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शांतिदेव - महायान सम्प्रदाय के प्रसिद्ध दार्शनिक। तारनाथ के अनुसार इनका जन्म सौराष्ट्र (गुजरात) के राज-परिवार में हुआ। पिता-कल्याणवर्मा। तारादेवी की प्रेरणा से राज्यत्याग तथा बौद्ध मत का स्वीकार । बोधिसत्व मंजुश्री की कृपा से दीक्षा प्राप्त । मन्त्रतन्त्रों के पूर्ण ज्ञाता। कुछ समय तक महाराज पंचसिंहल के अमात्य । नालन्दा के प्रधान विद्वान् जयदेव के शिष्य। पीठस्थविर के पद पर नियुक्त। रचनाएं- (1) शिक्षा-समुच्चय, (2) सूत्र-समुच्चय और (3) बोधिचर्यावतार । इन रचनाओं का विस्तृत वर्णन बुस्तोन ने किया है। शांतिरक्षित - ई. 8 वीं सदी। बिहार के भागलपुर जिले में जन्म। प्रथम वैदिक ग्रंथों का अध्ययन किया। बाद में बौद्ध मत के प्रति आकर्षित होकर नालंदा गये। आचार्य ज्ञानगर्भ से भिक्षुदीक्षा ली। नालंदा महाविहार के प्रधान पीठस्थविर बने। 75 वर्ष की आयु तक आप नालंदा में ही रहे। तिब्बत के राजा का निमंत्रण पाकर, आप अनेक कष्ट सहन कर तिब्बत पहुंचे। राजा के अनुरोध पर बौद्ध धर्म का प्रचार किया। उन्हीं दिनों तिब्बत में महामारी फैली। भूत-प्रेतपूजक तिब्बती शांतिरक्षित को ही कारण मानने लगे। अतः उन्हें तिब्बत छोडना पडा। वहां से वे नेपाल गये। दो वर्ष पश्चात् वे पुनः तिब्बत गये। इस बार पद्मसंभव नामक आचार्य भी उनके साथ थे। वे तांत्रिक थे। बाद में अनेक विद्वान् नालंदा से पहुंचे। बौद्ध ग्रंथों का तिब्बती में अनुवाद किया। सन् 749 में तिब्बत में “सम्मे विहार" की स्थापना की। आप स्वतंत्र शून्यवादी आचार्य थे। ___तत्त्वसंग्रह" नामक पांच हजार श्लोकों का स्वतंत्र दार्शनिक ग्रंथ आपने लिखा। सौ वर्ष की आयु में दुर्घटना में आपकी मृत्यु हुई (762 ई.) सम्मे (साम्य) विहार के पास एक स्तूप में आपकी अस्थियां रखी गयी थी। स्तूप गिरने के बाद पात्र, चीवर एवं कपाल साम्ये विहार में रखी गयीं। शांतिसागर गणि - तपागच्छीय धर्मसागर गणि के प्रशिष्य एवं श्रुतसागर गणि के शिष्य। आपने कल्पसत्र पर कल्पकौमदी नामक शब्दार्थ प्रधान वृत्ति लिखी। (वि.सं. 1707) । ग्रंथमान 3707 श्लोक प्रमाण)। इसमें तपागच्छप्रवर्तक की गणना आपने की है। शांतिसूरि - समय- ई. विक्रम की 12 वीं शती। जन्मराधनपुर (गुजरात) के पास उण-उन्नतायु नामक गांव में। पिता-धनदेव। माता-धनश्री। बाल्यावस्था का नाम भीम । थारापद-गच्छिय-विजयसिंहसूरि द्वारा दीक्षित । मालव प्रदेश में भोजराज के सभापण्डितों को पराजित करने पर "वादिवेताल" की उपाधि से विभूषित। कवि धनपाल के मित्र। प्रधानशिष्य-मुनिचन्द्र। ग्रंथ-उत्तराध्ययन टीका। (शिष्यहिता वृत्ति) तथा तिलकमंजरी-टिप्पण। टीका में मूल सूत्र और वृत्ति दोनों का विषद विवेचन प्राकृत कथाओं के साथ किया है।
शाकटायन - (1) समय- ईसापूर्व एक हजार वर्ष । एक प्राचीन वैयाकरण। कुछ लोग इन्हें शकट-पुत्र मानते हैं, तो पाणिनि को शकट-पौत्र । पाणिनि के अनुसार आप काण्व-वंश के थे। ऋग्वेद एवं शुक्ल यजुर्वेद के प्रातिशाख्य एवं यास्क के निरुक्त में आपका उल्लेख आता है। पाणिनि आपको श्रेष्ठ मानते ही हैं। (अष्टा. 1-4-86-87) । केशव नामक ग्रंथकार ने आपका गौरव "आदिशाब्दिक" कह कर दिया है।
व्याकरण का उणादिसूत्र आपकी रचना है। आपके अनुसार सारे शब्द धातुसाधित हैं। बृहदेवता-ग्रंथ में दैवतशास्त्र विषयक कुछ उदाहरण हैं। शाकटायन ने संभवतः इस पर ग्रंथ लिखा होगा। शाकटायन-स्मृति एवं शाकटायन-व्याकरण भी आपकी रचनाएं हैं, पर एक भी उपलब्ध नहीं।
(2) सन् 9 का उत्तरार्ध। सुप्रसिद्ध जैन वैयाकरण । "शाकटायन-प्रक्रियासंग्रह" नामक ग्रंथ की रचना कर उस पर स्वयं ही “अमोघवृत्ति' नामक टीका लिखी। शाकपूणि - यास्कप्रणीत निरुक्त में उद्धृत एक निरुक्तकार । आत्मानन्द-प्रणीत “अस्य वामीय भाष्य" में शाकपूणि निरुक्तकार का बार-बार उल्लेख होने के कारण शाकपूणिकृत निरुक्त उपलब्ध हो ऐसी संभावना है। अन्य निरुक्तकारों की भांति शाकपूणि केवल निरुक्तकार ही नहीं, अपि तु निघण्टुकार भी थे। इनके निघण्टु का भी प्रमाण रूप से प्राचीन ग्रंथों में निर्देश मिलता है। शाकपूणि का अन्य नाम था रथीतर । शाकपूणि (रथीतर) ने तीन ऋक्संहिताओं का प्रवचन किया
और फिर चौथा निरुक्त बनाया ऐसा पुराणों में निर्देश है। अर्थात् शाकपूणि ऋग्भाष्यकार, निरुक्तकार और निघण्टुकार थे। जैसे यास्काचार्य ने निरुक्त के अतिरिक्त याजुष-सर्वानुक्रमणि लिखी उसी तरह शाकपूणि आचार्य ने तैत्तिरीय संहिता से संबंधित और कोई ग्रंथ लिखा हो ऐसी संभावना है। शाकपूणि, पदकार शाकल्य के काल के समीप एवं शाखा-प्रवर्तक होने से भी महाभारत काल के समीप ही हुए ऐसा पं. भगवद्दत्त का मत है। शाकल्य - ऋग्वेद के पदपाठकार। इनके अतिरिक्त दूसरे देवमित्र शाकल्य का पुराणों में वर्णन मिलता है। उन्होंने पांच संहिताएं बनाई ऐसा पुराणों में वर्णन है। पदपाठकार शाकल्य
और पंच-संहिताकार शाकल्य एक ही हैं; भिन्न नहीं, ऐसा विद्वानों का निर्णय है। शाकल्य महाभारतकालीन व्यक्ति हैं। जनक-सभा में याज्ञवल्क्य के साथ इनका विवाद हुआ था। शाकल्य का पदपाठ, निरुक्तकार यास्क को कई स्थानों पर मान्य नहीं था। माध्यंदिन संहिता का पदपाठ भी शाकल्यकृत हो ऐसी संभावना है। शाट्यायनि - मूल नाम शंग पर शाट्य के वंशज होने से शाट्यायनि या शाट्यायन कहे गये। सामविधान ब्राह्मण में बादरायण आपके गुरु बताये गये हैं। शाट्यायन ब्राह्मण,
मग हा
470 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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