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प्रकरण - 4
1 "पुराण वाङ्मय" हिंदु समाज के किसी भी धर्मकृत्य के संकल्प में "श्रुतिस्मृतिपुराणोक्त"- यह शब्दप्रयोग आता है। अर्थात् इस समाज के परम्परागत धर्म का प्रतिपादन श्रुतियों (वेद), स्मृतियों (मनु-याज्ञवलक्यादि के धर्मशास्त्र विषयक ग्रंथ) और पुराणों में मूलतः हुआ है। श्रुति और स्मृति में प्रतिपादित आचारधर्म का विधान त्रैवर्णिकों के ही लिए है किन्तु पुराणों में प्रतिपादित धर्म सभी मानवमात्र के लिये है। "एष साधारणःपन्थाः साक्षात् कैवल्यसिद्धिदः''
अर्थात् मोक्षप्राप्ति कराने वाला यह (पुराणोक्त धर्म) सर्वसाधारण है ऐसा पद्मपुराण में कहा है। सदाचार, नीति, भक्ति इत्यादि मानवोद्धारक तत्त्वों का उपदेश पुराणों ने अपनी रोचक, बोधक तथा सरस शैली में भरपूर मात्रा में किया है। पुराण कथाओं के कुछ अतिशयोक्तिपूर्ण, तर्कविसंगत एवं असंभाव्य अंशों की ओर निर्देश करते हुए उनकी कटु आलोचना कुछ चिकित्सक वृत्ति के विद्वानों ने की है, परंतु भारतीय परंपरा का यथोचित आकलन होने के लिये वैदिक वाङ्मय के समान पुराण वाङ्मय का भी ज्ञान अनिवार्य है, इसमें मतभेद नही हो सकता।
____ "पुराण' शब्द की निरुक्तिमूलक व्याख्या, "पुरा नवं भवति" (अर्थात् जो प्राचीन होते हुए भी नवीन होता है) एवं यस्मात् पुरा ह्यनतोदं पुराणं तेन तत्स्मृतम्। (अर्थात् (पुरा + अन) प्राचीन परंपरा की जो कामना करता है) इत्यादि वाक्यों में प्राचीन मनीषियों ने बताया है।
"सर्गश्च प्रतिसर्गश्च वंशो मन्वन्तराणि च। वंशानुचरितं चेति पुराणं पंचलक्षणम् ।।
इस प्रसिद्ध श्लोक में, सर्ग (विश्व की उत्पत्ति) प्रतिसर्ग (विश्व का प्रलय) वंश, मन्वन्तर (काल में स्थित्यंतर) एवं राजर्षियों के वंशों का ऐतिहासिक वृत्तान्त, इन पांच विषयों को पुराण का लक्षण माना गया है। कुछ अपवाद छोड कर सभी पुराणों में इन पांच विषयों का सविस्तर प्रतिपादन दिखाई देता है। "इतिहास-पुराणाभ्यां वेदं समुपबृहयेत्” यह भी एक वचन सुप्रसिद्ध है। तद्नुसार वेदज्ञान के विकास का साधन इतिहास और पुराण ग्रंथ माने जाते हैं। "इतिहास-पुराण"-- यह सामासिक शब्द प्रयोग वेद--उपनिषदों में आता है। वायुपुराण तथा महाभारत, स्वरूपात पुराण होते हुए भी इतिहास कहलाए गये हैं।
“पुराण' शब्द का प्रयोग ऋग्वेद, अथर्ववेद, गोपथ और शतपथ ब्राह्मण, आपस्तंब धर्मसूत्र, इत्यादि प्राचीन वैदिक ग्रंथों में हुआ है। अश्वमेधादि वैदिक यज्ञ-यागों में सूतों द्वारा पुराणों का कथन होता था। इन प्रमाणों से पुराणों की प्राचीन परंपरा सिद्ध होती है। उपनिषदों में इतिहासपुराण को "पंचमवेद" कहा है। विष्णुपुराण में कहा है कि
"आख्ता नैश्चाप्युपाख्यानैर्गाथाभिः कल्पशुद्धिभिः। पुराणसंहितां चक्रे पुराणार्थविशारदः" । अर्थात् पुराणों के मर्मज्ञ (व्यास) ने आख्यानों, उपाख्यानों, गाथाओं और कल्पशुद्धि (आचार विधि) इन उपकरणों से युक्त पुराणसंहिता का निर्माण किया और अपने प्रमुख शिष्य रोमहर्षण को उसका अधिकार दिया। रोमहर्षण ने अपने प्रमुख छह शिष्यों को यह संहिता पढाई। इस प्रकार अठारह पुराण संहिताओं का विस्तार हुआ। इन अठारह नामों का संग्रह एक सूत्रात्मक श्लोक में किया गया है :
म-द्रय भ-द्वयं चैव ब्र-त्रयं व-चतुष्टयम्। अ-ना-प-लिंग-कू-स्कानि पुराणानि पृथक् पृथक् ।। अर्थ मद्यं = मत्स्य, मार्कण्डेय। भद्वयं-भविष्य, भागवत। बत्रयं ब्रह्म, ब्रह्म-वैवर्त, ब्रह्माण्ड, । वयचतुष्टयम् = वराह, वामन, वायु, विष्णु। अ-अग्नि । ना = नारद। प-पद्म। लिं-लिंग। ग-गरुड। कू-कर्म। स्क-स्कंद। इस प्रकार आद्याक्षरों से पृथक् पृथक्
पुराणों की नामावली का कथन हुआ है। पद्मपुराण में इन अठराह पुराणों का त्रिगुणों के अनुसार त्रिविध वर्गीकरण किया है। 1) सात्त्विक पुराण : विष्णु, नारद, भागवत, गरुड, पद्म और वराह । 2) राजस पुराण : ब्रह्म, ब्रह्माण्ड, ब्रह्मवैवर्त, मार्कण्डेय, भविष्य और वामन । 3) तामस पुराण : मत्स्य, कूर्म, लिंग, वायु, स्कन्द और अग्नि। सामान्यतः सात्त्विक पुराण विष्णु माहात्म्य परक, राजस पुराण ब्रह्माविषयक और तामस पुराण शिव विषयक है।
भागवत पुराण के अनुसार अठराह पुराणों की श्लोकसंख्या निम्नप्रकार है : 1) ब्रह्मपुराण - 10 सहस्त्र 3) विष्णु - 23 "
5) भागवत - 18" 2) पद्म - 55 सहस्त्र 4) शिव - 24 "
6) भविष्य - 14,500
गंम्कत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड/7
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