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शंख बजाये । अब युद्ध प्रारम्भ हो ही रहा था कि अर्जुन ने अपना रथ दोनों सेनाओं के बीच खडा करने के लिए श्रीकृष्ण से कहा। वहां अर्जुन ने दोनों सेनाओं में देखा की पितामह प्रपितामह, इष्ट मित्र बन्धु, पुत्र, पौत्र आदि उपस्थित हैं। उन्हें मार कर राज्य पाने की अपेक्षा भिक्षा मांग कर जीना योग्य होगा इस विचार से निरुत्साह होकर रथ में संज्ञा - शून्य सा बैठ गया। अर्जुन के उस शोक और मोह को दूर करने के लिए श्रीकृष्ण ने उसे अपनी गीता सुनायी।
अर्जुन दो प्रकारों से मोह में आ गया था। एक मोह यह था कि भीष्मादिकों के शरीर नाश के साथ-साथ उनकी आत्मा
का नाश होता है, और दूसरा मोह, क्षात्र धर्म युद्ध को, वह अधर्म समझने लगा था और भिक्षां देहि अधर्म को धर्म । अविनाशी आत्मा को, अर्जुन नाशवान् समझ रहा था और धर्म को अधर्म और अधर्म को धर्म समझ रहा था। इस लिए "आत्मा का नाश कोई नहीं कर सकता और तू क्षत्रिय होने के कारण युद्ध करना तेरा धर्म है। उसको तू कदापि त्याग नहीं सकता। अगर स्वधर्म का त्याग करेगा तो तुझे पाप लगेगा। युद्ध में तुझे पाप की आशंका होती हो तो कर्तव्यों को निभाते हुए पापों से अलिप्त रहने की योगयुक्ति इस प्रकार है, जय-पराजय, लाभ-हानी, सुख-दुःख इत्यादि द्वन्द्व समान मान कर निष्काम निर्भय बुद्धि से कर्तव्य करना चाहिए।" इस प्रकार श्रीकृष्ण भगवान् के उपदेश से प्रबुद्ध होकर अर्जुन युद्ध के लिए पुनः कटिबद्ध हुआ ।
इतने में धर्मराज शस्त्र नीचे रख कर, कवच उतार कर हाथ जोड़ कर चुपके से पैदल ही पूर्व की तरफ स्थित कौरवों की सेना की और जाने लगे। उनके पीछे उनके बन्धु, श्रीकृष्ण और अन्य राजा-महाराजा भी प्रस्तुत हुये। धर्मराज ने सीधे भीष्म, द्रोण, कृप, शल्य के पास पहुंच कर उनसे प्रार्थना की कि उन्हें संग्राम में विजयश्री प्राप्त हो। उनमें से भीष्म ने बताया कि मुझे जीत लेने का उपाय मै तुझे बताऊंगा । द्रोणाचार्य ने बताया कि में जब शस्त्र नीचे रखूँ, तभी कोई मेरा वध कर सकेगा, अन्यथा मेरा वध असंभव है। सभी ने धर्मराज को आशीवार्द दिया कि तेरी जय निश्चित है। इतना सब होने पर धर्मराज अपनी सेना की ओर जाने लगे। इसी बीच श्रीकृष्ण ने कर्ण को पा कर उससे कहा कि भीष्म के युद्ध में रहते अगर तू कौरवों की तरफ से युद्ध करना नहीं चाहता है तो पांडवों की तरफ से युद्ध कर। परंतु यह सूचना कर्ण ने नहीं मानी। धर्मराज ने दोनों सेनाओं के बीच खडे हो कर उच्च स्वर से कहा, "कौरवों का पक्ष छोड़कर हमारे पक्ष में आने की जिनकी इच्छा हो वे आ सकते हैं।" वह सुन कर धृतराष्ट्र का पुत्र युयुत्सु पांडवों की ओर आ गया।
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1) पहले दिन भीष्म ने दिन भर घमासान युद्ध किया। विराट राजा के पुत्र श्वेत का वध किया और पांडवों की बहुत सेना नष्ट कर दी। भीष्म पितामह का पराक्रम देख कर आज जय प्राप्त करने की संभावना नहीं है समझ कर शाम को पांडवों ने युद्ध स्थगित किया। दोनों सेनाएं अपने-अपने शिबिर को चली गयी।
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2) दूसरे दिन पांडवों ने सेना की रचना च-व्यूह में की सूर्योदय के होते ही भीष्माचार्यजी की महाव्यूह से आबद्ध कौरव सेना पांडवों पर चढ़ आयी। भीष्माचार्य ने पांडवों की सेना का बहुत ही नाश किया। तब उनसे युद्ध करने अर्जुन प्रस्तुत हुआ । कोई किसी को जीत न सका। इसी समय भीम ने कलिंग देशके राजा श्रुतायु और निषाद राजा केतुमान का वध किया। उनकी सेना का इस प्रकार नाश किया कि भीम साक्षात् यमराज ही है ऐसा आभास कौरव सेना में निर्माण हुआ। तब भीम के साथ भीष्म युद्ध करने प्रस्तुत हुए। इतने में सात्यकि ने भीष्म के सारथी को मार डाला। उस समय घोडे उद्दाम होकर युद्ध-क्षेत्र के बाहर भीष्माचार्य के रथ को लेकर दौड पडे । दुर्योधन के पुत्र लक्ष्मण और अभिमन्यु के बीच युद्ध छिड गया। उनकी सहायता में एक ओर से दुर्योधन और दूसरी ओर अर्जुन वहाँ पहुँच गये। उस समय अर्जुन ने रथ घोडे, हाथी, पदाति आदि सभी विरोधियों का संहार शुरू कर दिया। तब कौरवों की सेना तितरबितर होने लगी। इतने में सूर्यास्त का समय हो आया। भीष्माचार्य ने युद्ध स्थगित किया और दोनों सेनाएँ अपने-अपने शिबिर में विश्राम के लिए चली गयीं।
3) तीसरे दिन भीष्माचार्यने अपनी सेना को गरुड-व्यूह में आबद्ध किया। उधर पांडवों ने अर्धचन्द्र-व्यूहकी रचना की थी । युद्ध के प्रारंभ में ही अर्जुन ने कौरवों की सेना का अत्यधिक नाश किया। सेना भागने लगी । दुर्योधन ने अपने प्रोत्साहन से वापस लौटाया । परन्तु दुर्योधन भीष्म द्रोण के पास जाकर कहने लगा, “आप अपने निजी उत्साह से युद्ध नहीं कर रहे। आपके रहते पांडवों का विजयी होना मुझे ठीक नहीं लग रहा है। अब उत्साह से युद्ध करने की कृपा करें।" यह सुन कर भीष्माचार्य क्रुद्ध हो कर बोले, "अब तक कई बार तुझको बताया कि पांडव अजेय हैं। मै बूढ़ा हो गया हूं। केवल कर्तव्य वश होकर ही युद्ध खेल ही रहा हूं।" कौरवोंकी सेना युद्ध के लिए फिर से लौटने पर अर्जुन ने महेन्द्र अस्त्र का प्रयोग किया। उस अस्त्र के प्रयोग से कौरवों की सेना का बहुत ही संहार हुआ। संध्या के समय, पांडवों की सेना अपना जय घोष करते हुए अपने शिबिर में चली गयी।
4) चौथे दिन सबेरे दुर्योधन को देखते ही उसे मारने के लिये भीम तेजी से दौड़ पड़ा। तब दुर्योधन ने मगधदेशीय दस हजार हाथियों की सेना भीम पर भेजी। भीमसेन ने उस सारी सेना का नाश किया, तब दुर्योधन ने क्रोध से आदेश दिया की
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 103
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