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सद्वस्तु (ब्रह्म) पर अविद्या के कारण जगत् केवल भासमान होता है। "अहं ब्रह्मास्मि" ज्ञान का प्रकाश आते ही वह आभास नष्ट हो जाता है।
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पुरुष : इस तत्त्व का अस्तित्व जिन पांच कारणों से माना जाता है उनका संकलन एक कारिका में ईश्वरकृष्ण ने किया है : "संपवात् त्रिगुणादिविपर्ययादधिष्ठानात्। पुरुषोऽस्ति भीतृभावात् कैवत्यार्थ प्रकृते।"
1) जिस प्रकार सुसमृद्ध भवन या सुसज्जित शय्या दूसरे किसी उपभोक्ता के लिए ही होती है (स्वयं अपने लिए नहीं), उसी प्रकार यह संघातमय जगत् भोग्य प्रकृति के अन्य किसी दूसरे के उपभोग के लिए ही है ।
2- 3 ) जिस प्रकार सुसज्ज रथ जड़ होने के कारण चल नहीं सकता, उसे चलाने के लिए अजड़-चेतन सारथि की आवश्यकता होती ही है, उसी प्रकार जड शरीरों का चालक उनसे विपरीत स्वरूप का होना चाहिए।
4) संसार में सभी पदार्थ भोग्य हैं। अतः उनका कोई तो भोक्ता भी होना चाहिए। यह भोक्ता ही पुरुष है।
5) संसार में सभी दुःखी जीव दुःखों से मुक्ति होने की इच्छा रखते हुए दीखते हैं जिस में यह मुक्त होने की प्रवृत्ति होती है, वही पुरुष है। सांख्यदर्शन में अव्यक्त तत्त्वों के अन्तर्गत मूलप्रकृति का एकत्व माना है, किन्तु उससे सर्वथा विपरीत पुरुष तत्त्व का अनेकत्व प्रतिपादन किया है।
जनन-मरण करणानां प्रतिनियमाद् अयुगपतृव्रवृत्तेश्च । पुरुषबहुत्वं सिद्धं त्रैगुण्यविपर्ययाच्चैव ।।
इस कारिका में पुरुष का बहुत्व सिद्ध करने वाले तीन कारण बतलाए गये हैं। 1) सभी पुरुषों का जन्म मरण एक साथ नहीं होता। सभी की इन्द्रियाँ समान शक्तियुक्त नहीं होती। अर्थात् एक पुरुष की दर्शनशक्ति या श्रवणशक्ति क्षीण या नष्ट होने पर सभी की नहीं होती।
2) सभी की कामों में प्रवृत्ति एक साथ नहीं होती। कुछ विद्यार्थी जब पढते है तब दूसरे खेलते दिखाई देते हैं । 3) प्रत्येक व्यक्ति के स्वभाव में भी अंतर होता है। कोई उद्योगशील होते हैं तो दूसरे आलसी होते हैं। इस प्रकार का वैचित्र्य, पुरुष तत्त्व एक ही होता, तो नहीं दिखाई देता। अतः "पुरुषबहुत्व" सिद्ध होता है।
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सांख्य मतानुयायियों में दो भेद 1) सेश्वरवादी और 2 ) निरीश्वरवादी दिखाई देते हैं। उपनिषदों, महाभारत, भागवत आदि पुराणों में प्रतिपादित सांख्य सिद्धान्त में ईश्वर का अस्तित्व माना हुआ दिखाई देता है।
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"मायां तु प्रकृति विद्याद्मायिनं तु महेश्वरम्"
इस प्रकार के महत्त्वपूर्ण उपनिषद्वचनों में सेश्वरवादी सांख्यमत के बीज स्पष्टतया दिखाई देते हैं। महाभारत में सांख्य और वेदान्त में विशेष भेद नहीं दिखाई देता। पतंजलि के योगदर्शन को "सेश्वर सांख्य" और कपिलोक्त दर्शन को "निरीश्वर सांख्य" कहने की परिपाटी है। निरीश्वरवादी सांख्यदार्शनिकों ने ईश्वरास्तिक्य के प्रमाणों का खंडन नहीं किया। उन्हें अपनी विवेचन प्रक्रिया में पुरुष और प्रकृति इन दो तत्त्वों के आधार पर विश्वोत्पत्ति की समस्या सुलझाना संभव हुआ, तीसरे ईश्वरतत्त्व का अस्तित्व सिद्ध करने की आवश्यकता प्रतीत नहीं हुई । सांख्य निरीश्वरवादी है, किन्तु "नास्तिक" अर्थात् वेदनिंदक नहीं हैं।
सांख्यमतानुसार पुरुष स्वभावतः त्रिगुणातीत या मुक्त ही होता है, किन्तु प्रकृति के साथ वह अपना तादात्म्य, अविवेक के कारण मानता है, और प्रकृतिजन्य दुःख भोगता है। विवेक का उदय होने पर उसे "अपवर्ग" या "कैवल्य" की अवस्था प्राप्त होती है। यह विवेक, "व्यक्त, अव्यक्त और ज्ञ का तत्त्वज्ञान होने पर ही उदित होता है। विवेक का उदय होते ही प्रकृति का बंधन सदा के लिये छूट जाता है, और पुरुष यह अनुभव करने लगता है कि, "मै सभी कर्तृत्व से अतीत तथा निःसंग हूं।” यह अनुभूति ही जीवनमुक्त अवस्था है। जीवन्मुक्त पुरुष को विदेहमुक्ति प्राप्त होती है। यही मानवजीवन का आत्यंतिक उद्दिष्ट है।
ईश्वरकृष्ण ने "प्रकृति" का स्वरूप "नर्तकी" के समान वर्णन किया है। जिस प्रकार कलाकुशल नर्तकी रंगमंच पर दर्शकों के समक्ष अपनी कुशलता दिखा कर स्वयमेव नर्तन से निवृत्त होती है, उसी प्रकार प्रकृति, पुरुष को भोग तथा अपवर्ग देने का व्यापार पूर्ण होने पर, सर्वथा निवृत्त हो जाती है। जिस पुरुष को उसका स्वरूप ज्ञात होता है, उसके समाने वह लज्जावती स्त्री के समान कभी नहीं उपस्थित होती । प्रकृति की निवृत्ति ही पुरुष की कैवल्यावस्था है।
3 "योगदर्शन"
योग शब्द "युज्" तथा युजिर् ( जोडना या मिलाना) धातु से निष्पन्न हुआ है। ऋग्वेद में योग शब्द आता है परंतु वहां उसके अर्थ एकरूप नहीं माने जाते। "योगक्षेम" यह सामासिक शब्द भी ऋग्वेद में आता है जहाँ योग शब्द का अर्थ सायण ने "अप्राप्तप्रापणम्" अर्थात् जो पहले से प्राप्त न हो उसे प्राप्त करना, इस प्रकार बताया है। उपनिषदों, महाभारत भगवद्गीता, तथा पुराणों में सांख्य और योग का उल्लेख एक साथ हुआ है और उनका परस्पर संबंध भी इन ग्रन्थों में समान ही रहा है कठोनिषद में
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142 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड
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