SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 324
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir न्याय-दर्शन में युगांतर का आरंभ किया था और उसकी धारा ही पलट दी थी। "तत्त्व-चिंतामणी" का प्रणयन 1200 ई. के आसपास इन्होंने किया। प्रस्तुत ग्रंथ की पृष्ठसंख्या 300 है, जब कि उस पर लिखे गये टीकाग्रंथों की पृष्ठ-संख्या 10 लाख से भी अधिक है। गंगेश के पुत्र वर्धमान उपाध्याय भी अपने पिता के समान बहुत बडे नैयायिक थे। इन्होंने भी "तत्त्व-चिंतामणि" पर "प्रकाश" नामक टीका लिखी है। गौतम के केवल एक सूत्र- "प्रत्यक्षानुमानोपमानशब्दाः प्रमाणानि" पर रचित "तत्-चिंतामणि'- ग्रंथ में प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान व शब्द-इन 4 प्रमाणों का विवेचन गंगेशजी ने किया है। गंगेशजी की लेखन-शैली अत्यंत प्रौढ व शास्त्र-शुद्ध होने के कारण ज्योतिष को छोड प्रायः सभी उत्तरकालीन शास्त्रीय ग्रंथों पर उनकी शैली का प्रभाव परिलक्षित होता है। गजपति वीरश्री नारायणदेव- पिता- पद्मनाभ। पार्ला कीमेडी (उडीसा) में, ई. 1700 में राज्याधिपति। पुरुषोत्तम के पास संगीत-शिक्षा। रचना- "संगीत-नारायण" जिसमें अपनी अन्य रचना "अलंकारचंद्र" का उल्लेख इन्होंने किया है। अनेक कवियों तथा उनकी रचनाओं का इसमें उल्लेख है। गणधरकीर्ति- गुजरात-निवासी। पुष्पदन्त के प्रशिष्य और कुवलयचन्द्र के शिष्य। रचना- सोमदेवाचार्य के ध्यानविधि पर "अध्यात्मतरंगणी" नामक विस्तृत टीका। वाटग्राम में गुजरात के चालुक्यवंशी राजा जयसिंह (या सिद्धराज जयसिंह) के काल में यह टीका लिखी गई। समय ई. 12 वीं शती। गणनाथ सेन- ई. 20 वीं शती। बंगाली विद्वान्। कृतियांछन्दोविवेक, प्रत्यक्षशारीर व सिद्धान्त-निदान। गणपतिमुनि (वासिष्ठ)- ई. स. 1878-1936। जन्म-आन्ध्र के विशाखापट्टणम् जिले के कवलरायी ग्राम में, अय्यल सोमयाजी के परिवार में। पिता-नरसिंहशास्त्री। माता-नरसांबा। आयु के 6 वर्ष तक ये रोगग्रस्त थे और इन्हें वाणी भी प्राप्त नहीं हुई थी किन्तु बाद की आयु में अल्प काल में ही इन्होंने संस्कृत गणित, ज्योतिष, पंचमहाकाव्य आदि का अध्ययन पूर्ण कर लिया। इसी अवधि में सहस्रावधि संस्कृत श्लोकों की रचना की। अपनी माता की जन्मपत्रिका देखकर मृत्यु दिन का भविष्य कथन किया, जो सही निकला। छात्रावस्था में ही इनका विवाह हो गया किन्तु गृहस्थी में उनका मन नहीं रमा। 14 वर्षों की अवस्था में धार्तराष्ट्रसंभव नामक खंडकाव्य की रचना की। 18 वर्ष की आयु में पेरमा नामक अग्रहार में जाकर तप करने लगे। बाद में बंगाल के नवद्वीप में एक साहित्य-परिषद् के अवसर पर शीघ्रकवित्व की प्रवीणता से "काव्य-कंठ" की उपाधि प्राप्त की। इनके कुछ प्रमुख ग्रंथ :- उमासहस्रम्, इन्द्राणी-सप्तशती, शिवशतक, भुंगदूत, विश्वप्रमाण-चर्चा, विवाहधर्मसूत्रम्, ईशोपनिषद्भाष्यम् तथा आयुर्वेद व ज्योतिष पर 5-6 ग्रंथों के अलावा महाभारत-विमर्शः नामक प्रकरण-ग्रंथ । रमण महर्षि और योगी अरविंद के शिष्य तथा मित्र । गणपतिशास्त्री (म.म.)- इन्होंने अपने "श्रीमूलचरितम्" काव्य में त्रावणकोर-राजवंश का चरित्र वर्णन किया है। अन्य काव्य "अर्थचिन्तामणिमाला" में त्रावणकोर के राजा विशाखराम का स्तवन है। आप त्रिवेन्द्रम में दीर्घकाल तक संस्कृताध्यापक रहे । तदनन्तर "क्यूरेटर" के पद पर नियुक्ति हुई। इस कार्यकाल में "भासनाटक-चक्र" प्रकाशित कर बहुत ख्याति प्राप्त की। गणपतिशास्त्री- ई. 19-20 वीं शती। तंजौर जिले के निवासी। रचनाएं-कटाक्षशतकम्, ध्रुवचरितम्, रसिकभूषणम्, गुरुराजसप्ततिः तटाटाका-परिणयम् और अन्यापदेशशतकम्। गणेश दैवज्ञ- ज्योतिष-शास्त्र के एक श्रेष्ठ महाराष्ट्रीय आचार्य । पिता-केशव। माता-लक्ष्मी। सन् 1517 ई. में जन्म। इन्होंने 13 वर्ष की आयु में ही "ग्रह-लाघव" नामक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ की रचना की थी। इनके द्वारा प्रणीत अन्य ग्रंथ हैंलघुतिथि-चिंतामणि, बृहत्तिथि- चिंतामणि, सिद्धान्त-शिरामणिटीका, लीलावती-टीका, विवाह-वृंदावन-टीका, मुहूर्त-तत्त्व-टीका, श्राद्धादि-निर्णय, छंदोर्णव-टीका, सुधीर-रंजनी-यंत्र, कृष्ण-जन्माष्टमी-निर्णय और होलिका-निर्णय।। गणेश दैवज्ञ कथाः- यह प्रसिद्ध ज्योतिषी "ग्रहलाधव" के लेखक हैं। इनके पिता-केशव जाने माने ज्योतिषशास्त्र विशारद थे। एक बार केशव द्वारा बताया गया समय गलत निकला तब सब ने उनका उपहास किया। इस से अपमानित होकर वह गणेश मंदिर में गए तथा वहां उन्होंने तपश्चर्या आरम्भ की। गणेश ने प्रसन्न होकर उन्हें दृष्टांत दिया कि वृद्धावस्था के कारण वह ग्रहशोध तथा गणित ठीक से कर न पाएंगें उस समय गणेश स्वयं उनके पुत्ररूप में जन्म ग्रहण करनेका आश्वासन दिया। यही पुत्र आगे चलकर गणेश दैवज्ञ के नाम से प्रसिद्ध हुए। ग्रहवेध तथा गणित दोनों कार्यों में वह प्रवीण थे। इनके पैर में आंख निकलने से वह समाज में आदर के भाजन हुए। गणेशराम शर्मा (पं)- जन्म 27 मार्च, 1908 ई.। जन्मस्थान डूंगरपूर, किन्तु इनका कार्यक्षेत्र झालावाड रहा है, अतः इनकी गणना पूर्वी राजस्थान के कवियों में होती है। पिता-श्री. केदारलाल शर्मा । भारतधर्ममहामण्डल द्वारा आपको "विद्याभूषण" की उपाधि से सम्मानित किया गया था। "ज्योतिषोपाध्याय', “साहित्य-रत्न" आदि उपाधियां भी आपको प्राप्त थीं। आप झालावाड के राजेन्द्र कालेज में संस्कृत के प्राध्यापक रहे हैं। साहित्य सम्मेलन दिल्ली द्वारा आपको स्वर्णपदक भेंट किया गया। आपकी प्रमुख कृतियां हैं : ___1. आशीःकुसुमांजली, 2. श्रीलामणिप्रशस्तिः, 3. श्रीमोहनाभ्युदयः (गांधीजी पर), 4. महिषमर्दिनी- स्तुतिः, 5. देवीस्तुतिः, 6. संस्कृतकथाकुंज, 7. लक्ष्मणाभ्युदय (इसमें डूंगरपुर के राजा लक्ष्मणसिंह का चरित्र ग्रंथित है। 308 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy