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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir का नाम देवेश्वर भट्ट था। इन विष्णु स्वामी के 700 वैष्णव त्रिदंडी संन्यासी, उनके मत का प्रचार करते थे, (2) कांचीनिवासी, राजगोपाल विष्णुस्वामी (जन्म 830 ई.) जिन्होंने विष्णु कांची में राजगोपाल देवजी अथवा वरदराजजी की प्रसिद्ध मूर्ति की प्रतिष्ठापना की। आचार्य बिल्वमंगल इन्हीं के शिष्य थे, और (3) विष्णुस्वामी, जो आचार्य वल्लभ के उपदेष्टा पूर्वपुरुष थे। अतः इस तथ्य का निर्णय नहीं हो पाता कि विष्णुस्वामी का वास्तविक व्यक्तिमत्व, देश और काल क्या था। विष्णु स्वामी की ग्रंथ-संपदा विपुल बतलाई जाती है, परंतु इनमें 'सर्वज्ञसूक्त' ही एकमात्र ऐसी रचना है, जो प्रमाण-कोटि में स्वीकृत की गई है। श्रीधर स्वामी ने अपनी रचनाओं में इसका अत्यधिक उपयोग किया है। श्रीधरी (टीका) में विष्णुस्वामी के कतिपय सिद्धांतों का भी आभास मिलता है। विष्णुस्वामी के ईश्वर सच्चिदानंद-स्वरूप हैं और वे अपनी 'ह्लादिनी संवित्' के द्वारा आश्लिष्ट हैं तथा माया उन्हीं के आधीन रहती है। ईश्वर का प्रधान अवतार नृसिंह-रूप बतलाया गया है। कुछ लोग विष्णु स्वामी को नृसिंह ओर गोपाल दोनों का उपासक मानते हैं। भागवत की श्रीधरी टीका से यह तथ्य स्पष्टतः विदित होता है कि ऐसी अवस्था में श्रीधर स्वामी को भी विष्णुस्वामी-मत का अनुयायी माना जा सकता है। विहारकृष्ण दास - ई. 17 वीं शती का पूर्वार्ध । बंगाली। कृतियां- पारसिक-प्रकाश (संस्कृत- फारसी भाषा कोश)। वीतहव्य आंगिरस - ऋग्वेद के छठे मंडल के पंद्रहवें सूक्त । के द्रष्टा। वीरनन्दी - नंदिसंघ देशीयगण के जैन आचार्य । गुरु-अभयनंदी। समय 950-999 ई.। इन्होंने 'चंद्रप्रभचरित' नामक महाकाव्य की रचना की है, जिसमें 18 सर्ग हैं और उनमें 7 वें जैन तीर्थकर चन्द्रप्रभ का जीवन चरित्र वर्णित है। इस महाकाव्य के 1697 पद्य हैं, धर्म, दर्शन, आचार आदि की दृष्टियों से भी यह सुरस महाकाव्य समृद्ध है। वीरनन्दी (सिद्धान्त चक्रवर्ती) - मूलसंध देशीयगण के आचार्य मेघचन्द्र विद्यदेव के पुत्र और शिष्य। कर्नाटकवासी। प्रमुख शिष्य प्रभाचन्द्र, जिन्होंने गंगराज द्वारा मेधचन्द्र की निषद्या का निर्माण कराया था। समय- ई. 12-13 वीं शती। ग्रंथ-आचारसार । इसमें 12 अधिकारों में मुनियों के आचार-विचार का वर्णन किया गया है। वीरनन्दी की ही इस ग्रंथ पर कन्नड-टीका उपलब्ध है। इस ग्रंथ को जैन विद्वानों ने शिरोधार्य माना है। अन्य शिष्य- अभिनव पम्प (नामचन्द्र)। यह वीरनंदी चन्द्रप्रभचरित्र के कर्ता वीरनंदी से भिन्न हैं। वीरनंदी ने न्याय, साहित्य तथा व्याकरण का गहरा अध्ययन किया था। वीरभट्टदेशिक - काकतीय भूपति रुद्रदेव के आश्रित । रचनानाट्यशेखर (सन 1160 में)। वीरभद्रदेव - "कंदर्प-चूडामणि' नामक काव्य के रचयिता। इसकी रचना इन्होंने 1577 में की थी। इनके जीवन-चरित्र पर पद्मनाम मिश्र ने 'वीरभद्रसेन-चंपू' का प्रणयन किया था। ये महाराज रीवा-नरेश रामचंद्र के पुत्र थे। वीरभद्रय्या - तंजौर निवासी। समय- ई. 1735 से 18171 अपने समय के उत्कृष्ट संगीतज्ञ। रचना- तालमालिका। वीरराघव - जन्म 1820, मृत्यु- 1882 ईसवी। तंजौर के महाराज शिवेन्द्र (1835-1865) (शिवाजी) की राजसभा में सम्मानित। कौण्डिन्यगोत्री। कृतियां- रामराज्याभिषेक नाटक (अपूर्ण), वल्लीपरिणय नाटक, रामानुजाष्टक काव्य तथा अन्य सात रचनाएं। वीरराघव - मैसूरनिवासी। जन्म- मद्रास के चिंगलपेट जिले के भूसुरपुरी (तिरूमलिसाई) ग्राम में सन् 1770 ई. में । दाशरथिवंशीय । पिता- नरसिंह सूरि । कृतियां- मलयजाकल्याण नाटिका, उत्तररामचरित् टीका, महावीरचरित् टीका, भक्तिसारोदय काव्य तथा कई दार्शनिक ग्रंथ। वीरराघवाचार्य - पिता- श्रीशेल गुरु। पितामह- अहोबिल। अपनी विद्वत्ता के कारण इनके पिता "अखिल-विद्या-जलनिधिः' की उपाधि से मंडित थे। इन्होंने अपने इन विद्वान् पिता से ही महाभारत, पुराणों एवं श्रीमद्भागवत का गंभीर अध्ययन किया था। इन्होंने सुदर्शन सूरि की 'श्रुतप्रकाशिका' नामक श्रीभाष्यव्याख्या का नामतः उल्लेख किया है तथा श्रीधर के अद्वैती मतका बहुशः खंडन किया है। फलतः इन्हें ई. 14 वीं शताब्दी के पश्चात् का ही माना जा सकता है। उधर विश्वनाथ चक्रवर्ती ने, अपनी सारार्थदर्शिनी भागवत-टीका में इनके मत का खंडन किया है, जिनका समय ई. 17 वीं शताब्दी का उत्तरार्ध माना जाता है- 1700 विक्रमी- 1789 विक्रमी (1644 ई. - 1733 ई.)। फलतः वीर राघव का समय श्रीधर एवं विश्वनाथ चक्रवर्ती के मध्य में अर्थात् 1500 ई. के आसपास होना चाहिये। वीरराघव की भागवत-व्याख्या का नाम हैभागवत-चन्द्रचन्द्रिका। यह बडी विस्तृत व विशालकाय व्याख्या है। उसका उद्देश्य है विशिष्टाद्वैती सिद्धान्तों का भागवत से समर्थन तथा पुष्टीकरण। इस उद्देश्य की सिद्धि में वीरराघव को पर्याप्त सफलता प्राप्त हुई है। इस कार्य में उन्होंने श्रीधर के मत का बहुशः खण्डन किया है। स्पष्ट है कि सुदर्शन सूरि की लध्वक्षर टीका से संतुष्ट न होने के कारण, वीर राघव ने अपनी भागवा-चन्द्रचन्द्रिका में दार्शनिक तत्त्वों का बहुशः विस्तार किया है। इस टीकाग्रंथ की प्रामाणिकता, सांप्रदायानुशीलता एवं प्रमेयबहुलता का यही प्रमाण है कि वीर राघव की भागवत-चंद्रचंद्रिका के अनंतर किसी भी विशिष्टाद्वैती विद्वान् ने समस्त भागवत पर टीका लिखने की आवश्यकता का अनुभव नहीं किया। संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 457 For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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