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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भक्तजन उसके चरणों में शरण आते हैं। ईश्वर का विग्रह दिव्य अद्वितीय सौन्दर्य से युक्त होता है; और लक्ष्मी, भू तथा लीला उसकी पत्नियाँ हैं। वह पाँच स्वरूपों में प्रकट होता है : 1) परस्वरूप इस स्वरूप में ईश्वर को नारायण, परब्रह्म या परवासुदेव कहते हैं और यह वैकुण्ठ में शेषरूप पर्यंक पर धर्मादि अष्टपादयुक्त रत्नसिंहासन पर शंख चक्रादि दिव्यायुधों सहित विराजमान है। श्री भूमी और लीला उसकी सेवा करती हैं। अनंत, गरुड, विश्वक्सेन इत्यादि मुक्त पुण्यात्मा उसके सहवास का आनंद पाते हैं। 2) व्यूहस्वरूप : सृष्टि की उत्पत्ति आदि कार्य के निमित्त परस्वरूपी ईश्वर, वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध नामक चार स्वरूप धारण करता है। वासुदेव षड्गुणैश्वर्यसम्पन्न है और संकर्षण ज्ञनवलसंपन्न, प्रद्युम्र ऐश्वर्य वीर्यसम्पन्न तथा अनिरुद्ध शक्ति-तेज-सम्पन्न है। इस प्रकार प्रस्तुत चतुर्व्यूह स्वरूप में ईश्वरी दिव्य गुण विभाजित है । 3) विभवस्वरूप : इसमें मत्स्य, कूर्म, वराह आदि ईश्वरी अवतारों की गणना होती है। 4 ) अन्तर्यामीस्वरूप : समस्त प्राणिमात्र के अंतरंग में विद्यमान इसी स्वरूप का साक्षात्कार योगी पाते हैं | 5) मूर्तिस्वरूप : नगर, ग्राम, गृह आदि स्थानों में उपासक लोग जिस धातु-पाषाण आदि की मूर्ति की प्राणप्रतिष्ठा करते हैं, उस में अप्राकृत शरीर से ईश्वर का निवास होता है। परमात्मा (ईश्वर) और जीवात्मा (वित्) दोनों में प्रत्यकृत्य वेतनत्व, कर्तृत्व इत्यादि गुणधर्म होते हैं। जीवात्मा (चित्) स्वयंप्रकाशी, नित्य, अणुपरिमाण, अगोचर, अगम्य, निरवयव, निर्विकार, आनंदी, अज्ञानी किंतु ईश्वराधीन है। जीवात्मा असंख्य होते हैं और उनके विविध वर्ग होते हैं :- 1) बद्ध, 2) मुक्त, 3) नित्य । बद्ध जीवात्माओं में जो बुद्धिप्रधान होते हैं वे 1) बुभुक्षु (सुखोपभोगों में मग्न) और 2 मुमुक्षु दो प्रकार के होते है। कुछ बुभुक्षु, अलौकिक भोग प्राप्ति के हेतु यज्ञ, दान, तप आदि कर्म करते हैं, तो अन्य कोई बुभुक्षु ईश्वर की उपासना करते हैं। 1 मुमुक्षु जीवात्माओं में कुछ "केवली" होने की इच्छा रखते हैं तो कुछ मोक्ष की इच्छा रखते हैं। इन मोक्षार्थी जीवों में कुछ वैदिक कर्मकाण्ड, ज्ञानयोग, कर्मयोग द्वारा, अपना अधिकार बढाते हुए अंत में सर्वांगीण भक्तियोग के द्वारा ईश्वर की प्राप्ति करते हैं । प्रपत्ति या अनन्य शरणागति स्वरूप भक्ति का अधिकार मानवमात्र को होता है। भक्तियोग की साधना में पूर्णता आने के लिये निष्काम कर्मयोग और ज्ञानयोग ( जीव के प्रकृति से पृथक्त्व और ईश्वरांशत्व का ज्ञान प्राप्त करना) का सहाय आवश्यक हैं। भक्तियोग, ज्ञानयोग से श्रेष्ठ है। यमनियमादि योगसाधना सहित ईश्वर का अखंड ध्यान करना, इसी को भक्तियोग कहते हैं। भक्तियोग की साधना में सात अंग माने जाते है: 1 ) पवित्र आहारादि से शरीरशुद्धि 2 ) विमोक या ब्रह्मचर्यपालन 3 ) अभ्यास ( यथाशक्ति पंचमहायज्ञों का अनुष्ठान 4 ) कल्याण (सत्य, आर्जव, दया, दान, अहिंसा इत्यादि व्रतपालन ) 5 ) विश्वनिर्माता का निरंतर चिन्तन 6 ) अनवसाद, ( दैन्यत्याग) ७) अनुध्दर्ष (सुख दुःख में समभाव ) इन सात साधनों से युक्त भक्ति योग की साधना से ईश्वर साक्षात्कार की संभावना होती है। जिस साधक से यह साधना नहीं हो सकती उसके लिये षड्विधा प्रपत्ति और आचार्याभिवान योग का विधान राजदर्शन में किया है। पडविधा प्रपत्ति आनुकूल्यस्य संकल्पः प्रतिकृत्वस्य सर्जनम्। रक्षिष्यतीति विश्वासः गोप्तृत्ववरण तथा आत्मनिक्षेपकार्पण्ये षविधा शरणागतिः ।। आचार्यभियान योग का अर्थ है आचार्य या गुरु को शरण जाना और उन्हीं के उपदेश के अनुसार सारे कर्म करना । इस योग में शिष्य के मोक्ष का दायित्व आचार्य अपने पर लेते हैं। रामानुज मत के अनुसार अपरोक्ष ज्ञान के बिना मुक्ति नहीं मिलती परंतु यह ज्ञान ईश्वर की ध्रुवास्मृति या अखंड स्मृति के बिना उदित नहीं होता। वैदिक कर्मों का अनुष्ठान इसमें सहाय्यक होता है। अतः शंकराचार्य जहां केवल ज्ञान को ही उपादेय मानते हैं वहाँ रामानुजाचार्य कर्म- ज्ञानसमुच्चय को उपादेय मानते हैं । कर्म के साथ भक्ति के उदय होने में तत्त्वज्ञान को वे सहकारी कारण मानते हैं। इस प्रकार मुक्ति का प्रधान कारण भक्ति ही माना गया है। भक्ति का सर्वश्रेष्ठ स्वरूप प्रपत्ति अर्थात् अनन्यशरणागति है। इस शरणागति के लिये कर्मों का अनुष्ठान आवश्यक है या नहीं इस विषय में रामानुज मतानुयायी आचार्यों में तीव्र मतभेद हैं। टैंकलै नामक मत के लोकाचार्य प्रपत्ति के लिए कर्मानुष्ठान को आवश्यक नहीं मानते। निःसहाय "मार्जारकिशोर" (बिल्ली का बच्चा) को उसकी माता एक स्थान से दूसरे स्थान तक पंहुचाती है, उसी प्रकार भगवान् अपने प्रपन्न शरणागत भक्तों को परमोच्च अवस्था तक पहुंचा ही देते हैं। दूसरे वडकलै मत के आचार्य वेदान्तवेशिक "कपिकिशोर" (बंदरी का बच्चा) का दृष्टान्त देते हुए भक्ति साधना में कर्मानुष्ठान की आवश्यकता प्रतिपादन करते हैं । 13 वीं शती में श्रीकण्ठाचार्य ने अपने ब्रह्मसूत्रभाष्य द्वारा "शैव विशिष्टाद्वैत" मत का प्रतिपादन किया। अप्पय दीक्षित ने शिवार्क मणिदीपिका नामक महत्त्वपूर्ण टीका लिखी है। इनका सिद्धान्त रामानुज सिद्धान्त के For Private and Personal Use Only इस भाष्य पर समान ही है । संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड / 173
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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