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कि तीनों रूपकों की रचना एक ही लेखक ने की है और वह लेखक हर्ष का समकालीन कोई उत्तम साहित्यिक होगा, या तो धावक ही होगा। रत्नावली में सिंहल राजकन्या रत्नावली और वत्सराज उदयन के प्रेमविवाह की अद्भुतरम्य कथा चार अंकों में चित्रित की है। तीनों रूपकों में यह श्रीहर्ष की प्रथम कृति मानी जाती है। अद्भुतरम्य कथावस्तु का संपूर्ण विकास इस प्रख्यात नाटिका में हुआ है।
प्रियदर्शिका नाटिका में भी उदयन के प्रेमविवाह की कथा चित्रित की है। इसमें नायिका प्रियदर्शिका (जो आरण्यिका नाम से उदयन के अन्तःपुर में अज्ञात अवस्था में रहती है।) अंग राजा (वासवदत्ता महारानी का चाचा) की कन्या होती है।
नागानन्द यह पाँच अंकों का बौद्ध नाटक है। अश्वघोष के बौद्ध नाटक अपूर्ण अवस्था में मिलते हैं। नागानन्द में भूतदया के सिद्धान्त का पालन, बौद्ध मतानुयायी नायक जीमूतवाहन ने किया है। नायिका मलयवती, अपने प्रियकर की सजीवता के लिए गौरी की आराधना करती है। इस प्रकार इस नाटक में बौद्ध और शैव जीवनपद्धति का समन्वय मिलता है। इस नाटक का संविधान बृहत्कथा या विद्याधरजातक से लिया हुआ है। वेतालपंचविंशति में भी यह कथा मिलती है। ___ भट्टनारायण : महाभारत में वस्त्रहरण के समय द्रौपदी की वेणी खींची गई थी। उस अपमान का पूरा बदला लेकर, दयोधन का वध कर, भीमसेन ने उसके रक्त से रंगे हए हाथों से वेणी का "संहार" अर्थात् बंधन किया। इस प्रक्षोभक घटना पर आधारित वेणीसंहार नाटक की रचना भट्टनारायण ने की और उसके द्वारा संस्कृत नाट्यवाङ्मय में अपना नाम अजरामर किया। महाभारत के वीरों के एक दूसरे के प्रति रागद्वेषादि भाव किस प्रकार के थे, इसका उत्कृष्ट परिचय वेणीसंहार के सात अंकों में दिया है।
भट्टनारायण मूलतः कान्यकुब्ज (कनौज) के निवासी थे। सातवीं शताब्दी में बंगाल के पालवंशीय राजा आदिशूर अथवा आदीश्वर ने इन्हें कान्यकुब्ज से बंगाल में लाया था। वेणीसंहार के बांगला भाषीय अनुवादक शौरींद्रमोहन टैगोर ने, अपने भट्टनारायण के वंशज होने का अभिमान से उल्लेख किया है।
प्रस्तुत नाटक में दुर्योधन का प्राधान्य देखकर, उसे नायक मानने वाले विद्वान अंत में उसका वध देख कर, वेणीसंहार को संस्कृत का शोकान्त नाटक मानते हैं। परंतु भारतीय नाट्यशास्त्र के अनुसार “नाधिकारिवधं क्वापि" (दशरूपक 3-36)
अधिकृतनायकवधं प्रवेशकादिनाऽपि न सूचयेत्' (धनिकटीका) इस प्रकार का निश्चित नियम होने के कारण, नाटककार ने जिसका • वध सूचित किया है ऐसा दुर्योधन वेणीसंहार का नायक नहीं माना जा सकता।
संपूर्ण नाटक में भीमसेन का व्यक्तित्व सामाजिकों को अधिक आकृष्ट करता है। अपने रक्तरंजित हाथों से द्रौपदी की वेणी गूंथने का प्रमुख कार्य भीमसेन ने ही पूर्ण किया है। अतः उसे वेणीसंहार का नायक कुछ विद्वानों ने माना है। परम्परा की दृष्टि से धीरोदात्त प्रकृति के युधिष्ठिर को इस नाटक का नायक माना जाता है। संस्कृत नाटक में "भरतवाक्य" का गायन या कथन करने वाला व्यक्ति नायक ही होता है और इस नाटक में यह कार्य युधिष्ठिर द्वारा संपादित किया है। विश्वनाथ ने अपने साहित्यदर्पण में, युधिष्ठिर को ही वेणीसंहार का नायक माना है। परंतु भट्टनारायण ने युधिष्ठिर के व्यक्तित्व का नायकोचित चित्रण नहीं किया। प्रथम और पंचम अंक में युधिष्ठिर का उल्लेख नेपथ्य से होता है। केवल अंतिम अंक में ही वे सामने आते हैं। इस तरह वेणीसंहार एक शास्त्रशुद्ध नाट्यकृति होते हुए भी, उसका नायक एक विवाद का विषय हुआ है।
भवभूति : संस्कृत नाटकों के रसिक अभ्यासक भवभूति को कालिदास के समान श्रेष्ठ नाटककार मानते हैं। कुछ रसिकों के मतानुसार भवभूति का उत्तररामचरित, कालिदास के शाकुन्तल से भी अधिक सरस एवं भावोत्कट है। भवभूति का वास्तव नाम श्रीकंठ था। इन्होंने अपने महावीरचरित, मालतीमाधव और उत्तररामचरित ये तीनों नाटक, कालप्रियनाथ के यात्रोत्सव निमित्त उक्त क्रमानुसार लिखे थे।
मालतीमाधव एक प्रकरण होते हुए भी उसमें नाट्यशास्त्र की दृष्टि से आवश्यक माना गया "विदूषक" भवभूति ने चित्रित नहीं किया। महावीरचरित में सीतास्वयंवर से लेकर रावणवध के पश्चात् अयोध्या प्रत्यागमन तक की रामकथा प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रीति से चित्रित की है। ऐसा माग जाता है कि इस नाटक के पंचम अंक के 46 वें श्लोक तक की रचना भवभूति ने की और उसका शेष भाग किसी सुब्रह्मण्य नामक कवि ने लिखा।
महावीरचरित की कथा से संबंध रखते हुए उत्तररामचरित की रचना भवभूति ने की है। इस प्रकार दोनों नाटकों के प्रत्येकशः सात सात अंकों में संपूर्ण रामचरित्र भवभूति ने नाट्यप्रयोगोचित किया है। उत्तरकालीन रामनाटकों के अनेक लेखकों पर भवभूति के इन दो नाटकों का काफी प्रभाव पड़ा है।
मालतीमाधव की कथा भवभूति ने अपनी प्रतिभा से उत्पन्न की है। इसमें वास्तवता और अद्भुतता का संगम कवि ने किया है। अघोरघंट की शिष्या कपालकुण्डला द्वारा, मालती का बलिदान के लिए अपहरण होने की वार्ता सुनने पर माधव की शोकाकुल अवस्था का चित्रण भवभूति ने, विक्रमोर्वशीय में कालिदास द्वारा चित्रित पुरुरवा की अवस्था के समान किया है।
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पर भवभूतिकात सात अंकों में से संबंध रखते
संस्कत वाङमय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 227
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