________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
सिल्वाँ लेवी के मतानुसार, किसी अज्ञात कवि ने मृच्छकटिक की रचना कर, उसे शूद्रक के नाम से प्रसिद्ध कर दिया है। डा. कीथ शूद्रक को काल्पनिक पुरुष मानते हैं। उनके मतानुसार वास्तविक मृच्छकटिक का लेखक कोई दूसरा ही पुरुष होना चाहिये। भासरचित "दरिद्रचारुदत्त" के आधार पर किसी अज्ञात कवि ने कुछ परिवर्तन और नवीन कल्पनाओं का समावेश कर, प्रस्तुत नाटक खड़ा किया है।
शूद्रक के नाम पर यह एकमात्र प्रकरण उपलब्ध है और यह संपूर्ण नाट्यवाङ्मय में अपने ढंग की अकेली और अनोखी कलाकृति है। इसमें चोरी, जुआरी एवं चापलूसी है, राजा नीच जाति की रखेली को प्रश्रय देता है। शकार जैसे दुर्जन से डरने वाले उच्च पदस्थ अधिकारी, है, न्याय केवल राजा की इच्छा पर आश्रित रहता है, निर्धन ब्राह्मण सार्थवाह पर नितान्त प्रेम करनेवाली तरुण गणिका है।
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
मृच्छकटिक में रंगमंच का शास्त्रीय तंत्र ठीक सम्हाला है परंतु रुढि एवं परंपरा को विशेष महत्त्व नहीं दिया है। कथावस्तु का वैचित्र्य, पात्रों की विविधता, घटनाओं का गतिमान संक्रमण, सामाजिक और राजनीतिक क्रांति और उच्च कोटि का हास्य विनोद इन कारणों से मृच्छकटिक को विश्व के नाटकों में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त हुआ है।
कालिदास कालिदासकृत मालविकाग्निमित्र, विक्रमोर्वशीय और शाकुंतल ये तीन नाटक उपलब्ध हैं। इन तीन नाटकों के अनुक्रम के विषय में, विद्वानों में एकवाक्यता नहीं है। प्रायः बहुसंख्य विद्वान उपरिनिर्दिष्ट रचनाक्रम मानने के पक्ष में है । परंतु केपलर ने मालविकाग्निमित्र को कालिदास की अंतिम रचना माना है। इस नाटक को कालिदास की रचना न मानने वाले भी विद्वान है परंतु उनके तर्कों का खण्डन वेवर, ह्यूम, केपलर और लेव्ही जैसे विद्वानों ने किया है। विक्रमोर्वशीय की कथा प्राचीन ग्रंथों में अन्याय रूप में मिलती है। कालिदास ने अपनी कथा मत्स्यपुराण से ली होगी, यह तर्क किया जाता है। इसी कारण इसे " त्रोटक" नामक उपरूपक कहा गया है। वास्तव में इसका स्वरूप "नाटक" सा ही है।
शाकुन्तल : संपूर्ण संस्कृत नाट्यवाङ्मय में इस नाटक को विद्वान रसिकों ने अग्रपूजा का मान दिया है। इसका अनुवाद मात्र पढ़ कर जर्मनी का महाकवि गटे हर्ष विभोर होकर नाचने लगा था । शकुन्तला की मूलकथा महाभारत और पद्मपुराण में मिलती है। मूल नीरस कथा में महाकवि कालिदास ने अपनी प्रतिभा से अपूर्व सरसता निर्माण कर, उसे सारे संसार में लोकप्रिय कर डाला। कवि ने शकुन्तला का व्यक्तित्व तीन रूपों में चित्रित किया है। प्रारंभ में वह तपोवन की निसर्गरम्य पवित्र वातावरण में मुग्धा मुनिकन्या के रूप में कामवश होती हुई दीखती है। दूसरी अवस्था में पतिद्वारा तिरस्कृत होते ही उसे नीच और अनार्य जैसे दूषणों से सभा में फटकारती है और तीसरी अवस्था में स्वर्गीय आश्रम में अपने पुत्र के साथ राजा पर क्षमापूर्ण प्रेम करती हुई, उनके साथ इह लोक की ओर प्रयाण करती हुई दिखाई देती है। कोमल भावनाओं का आविष्कार और प्रकृतिसौंदर्य का हृदयंगम चित्रण कालिदास के नाटकों में स्थान स्थान पर प्रतीत होता है।
विशाखदत्त: मुद्राराक्षस के रचियता विशाखदत्त का निर्देश विशाखदेव, भास्करदत्त और पृथु ( विल्सन के मतानुसार, चाहमान राजा पृथ्वीराज) इन नामों से होता है इस नाटक का सात अंकी संविधानक, ई. पूर्व 4 थी शताब्दी में चंद्रगुप्त और चाणक्य ने नंद वंश का नाश कर जो राज्यक्रांति की, उस ऐतिहासिक घटना पर आधारित है। इस नाटक में वर्णित विविध आख्यायिकाएं सर्वत्र प्रसिद्ध थीं कुछ प्राचीन विद्वानों के मतानुसार विशाखदत्त ने अपनी कथावस्तु बृहत्कथा से ली और उसमें प्रसिद्ध आख्यायिकाओं का कौशल्य से उपयोग करने का प्रयत्न किया कुटिल राजनीति का व्यवस्थित चित्रण करनेवाला मुद्राराक्षस जैसा दूसरा नाटक संस्कृत साहित्य में नहीं है। विशुद्ध राजनीतिक नाटक होने के कारण इसमें माधुर्य एवं लालित्य का सर्वथा अभाव है। चन्दनदास की पत्नी एकमात्र स्त्रीपात्र है । किन्तु कथा के विकास में उसका कुछ भी महत्त्व नहीं है । संस्कृत में यह एकमात्र नाटककार है जिसने रसपरिपाक की अपेक्षा घटना वैचित्र्य पर ही बल दया है। मुद्राराक्षस वीररसप्रधान होने पर भी उसमें युद्ध के दृश्य नहीं हैं। यहां शस्त्रों का द्वन्द्व न होकर कुटिल बुद्धि का अद्भुत संघर्ष आदि से अंत तक चित्रित किया हुआ है। इस नाटक में चंद्रगुप्त और चाणक्य इन दोनों के नायकत्व के संबंध में विद्वानों ने मतभेद व्यक्त किये हैं। संस्कृत नाटकों की परिपाटी के अनुसार भरतवाक्य का पाठ नायक द्वारा ही किया जाता है परंतु मुद्राराक्षस में भर राक्षस द्वारा कहा गया है।
226 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड
:
हर्ष जिसके आविर्भाव काल के विषय में विवाद नहीं है ऐसा हर्ष (अथवा हर्षवर्धन शिलादित्य) यह एकमात्र प्राचीन नाटककार है। हर्ष के नाम पर रत्नावली, प्रियदर्शिका और नागानंद ये तीन नाटक प्रसिद्ध है, परंतु इनके कर्तृत्व का श्रेय उसे देने में विद्वानों ने मतभेद व्यक्त किया है। काव्यप्रकाश के उपोद्घात में (1, 2) मम्मट ने "श्रीहर्षादेर्धावकादीनामिव धनम् " यह वाक्य डाला है। इसके कारण हर्ष के लेखकत्व के संबंध में विवाद पर "बाण" शब्द का प्रयोग हुआ है। इस कारण हाल और बूल्हर ने है। काव्हेल का मत है कि, रत्नावली नाटिका की रचना बाण ने और नागानंद की रचना धावक ने की । पिशेल का मत है
-
खड़े हुए। साथ ही कुछ स्थलों में "धावक के स्थान तीनों नाटकों का कर्तृत्व हर्षचरितकार बाणभट्ट को दिया
For Private and Personal Use Only