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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हेमचंद्र प्रभृति सोलह वैयाकरणों द्वारा प्रस्तुत पाठभेदों अथवा मतों का परामर्श किया है। सर्वसंग्राहकता के कारण गणरत्न-महोदधि गणपाठ विषयक एक सर्वोत्कृष्ट ग्रंथ माना जाता है। जौमर व्याकरण के गणपाठ पर न्यायपंचानन ने गणप्रकाश नामक टीका लिखी है। इन महत्त्वपूर्ण गणपाठों के अतिरिक्त जौमर, सारस्वत, मुग्धबोध, सौपद्म, इन व्याकरणों से संबद्ध तथा अन्य भी गणपाठ व्याकरण वाङ्मय में विद्यमान हैं। 11 "उणादि सूत्र" व्याकरण के पांच अंगों में उणादि सूत्रपाठ चौथा अंग है। संस्कृत के भाषाशास्त्र में, जिन शब्दों में धात्वर्थ का अनुमान प्रतीत होता है, उन शब्दों को यौगिक मानते हैं। जिनमें धात्वर्थानुगमन प्रतीत होने पर भी, किसी विशिष्ट अर्थ की प्रतीति होती है, वे योगरूढ कहे जाते हैं और जिन शब्दों में धात्वर्थ का अनुगमन प्रतीत नहीं होता वे रूढ माने जाते हैं। यास्काचार्य और शाकटायन के मतानुसार सभी संस्कृत शब्द धातुज हैं। कोई भी शब्द रूढ नहीं। इस मत का प्रतिवाद भी कुछ वैयाकरणों ने किया। विवादास्पद शब्दों का धातुजत्व सिद्ध करने के लिये एक ऐसा मार्ग वैयाकरणों ने निकाला जिससे दोनों मतों का समन्वय हो सके। इसी प्रयत्न में उणादिपाठ का उदय हुआ। शब्दानुशासन के कृदन्त (कृत प्रत्ययान्त धातुज) शब्दों के प्रकरण के परिशिष्ट अंश को उणादि पाठ नाम दिया गया। उणादि सूत्रों द्वारा विवादास्पद शब्दों की, कृदन्त शब्दों के समान प्रकृति प्रत्ययात्मक व्युत्पत्ति दी गई और शब्दानुशासनान्तर्गत कृदन्त प्रकरण से उन्हें पृथक् कर, उनका रूढार्थ भी अभिव्यक्त किया गया। इसी कारण प्रायः सभी उणादि सूत्रों के व्याख्याकार औणदिक शब्दों को रूढ मानते हुए वर्णानुपूर्वी के परिज्ञान के लिये, उनमें प्रकृति प्रत्यय विभाग की कल्पना स्वीकार करते हैं। संज्ञासु धातुरूपाणि प्रत्ययाश्च ततः परे। कार्याद् विद्यादनबन्धम् एतत् शास्त्रम् उणादिषु ।। अर्थात् किसी नाम शब्द में धातु का अंश देख कर उसके प्रत्यय की कल्पना करना और शब्द में गुण-वृध्दि इत्यादि देख कर उस प्रत्यय के अनुबन्ध की योजना करना; यही उणादि सूत्रों का तंत्र है। इस तंत्र के अनुसार पाणिनि से पूर्ववर्ती आचार्यों के उणादि सूत्र उपलब्ध नहीं होते। पाणिनि ने "उणादयो बहुलम्" इस सूत्र से संकेतित उणादि प्रत्ययों के निदर्शन के लिये, किसी उणादि पाठ का प्रवचन किया होगा। पाणिनीय वैयाकरणों द्वारा पंचपादी और दशपादी दोनों प्रकार के उणादि सूत्र समादृत हैं। इनमें से पंचपादी उणादि सूत्रों के प्रवक्ता आदिशाब्दिक शाकटायन तथा पाणिनि भी माने जाते हैं। दशपादी उणादि सूत्रों के प्रवक्ता के संबंध में भी विवाद है। प्रायः दोनों के प्रवक्ता पाणिनि को मानने के पक्ष में विद्वानों की अनुकूलता है। पं. युधिष्ठिर मीमांसक के विचार में पंचपादी उणादि सूत्र पाणिनिप्रोक्त हैं। पंचपादी उणादि की कुछ वृत्तियाँ उपलब्ध हैं। उनके सूत्रपाठ में अनेक प्रकार की विषमताएँ हैं। सूत्रों में न्यूनाधिकता और सूत्रगत पाठों में अंतर प्रचुर मात्रा में दिखाई देता है। अर्थात् अष्टध्यायी तथा धातुपाठ के समान पंचपादी उणादिपाठ के भी प्राच्य, औदीच्य और दाक्षिणात्य तीन पाठ होना संभव है। दशपादी उणादि सूत्रों के प्रवक्ता ने पंचपादी पाठ के आधार पर ही अपनी रचना की है। पाणिनीय धातुपाठ में अनुपलब्ध अनेक धातुओं का निर्देश दशपादी में मिलता है। पंचपादी तथा दशपादी पर कुछ वृत्तिग्रंथ लिखे गए हैं। कातंत्र व्याकरण से संबंधित एक षट्पादी उणादिपाठ उपलब्ध होता है जिस पर कातंत्र व्याकरण के व्याख्याता दुर्गसिंह ने वृत्ति लिखी है। भोजदेव ने अपने व्याकरण से संबंधित उणादि सूत्रों का प्रवचन अपने सरस्वतीकण्ठाभरण व्याकरण के 1-2-3 पाठों में किया है। इस पर दण्डनाथ की व्याख्या मद्रास से पृथक् प्रकाशित हुई है। आचार्य हेमचंद्र ने अपने व्याकरण से संबद्ध उणादिपाठ लिखा और उस पर स्वयं विवृति लिखी। हैम व्याकरण के उणादि सूत्रों की संख्या 1006 है और विवृत्ति का श्लोक-परिमाण 2400 है। इनके अतिरिक्त जौमर, सारस्वत और सुपद्म व्याकरण से संबंधित उणादि सूत्र भी वृत्तिसहित विद्यमान हैं। लिंगानुशासन शब्दानुशासन में शब्दलिंग का ज्ञान आवश्यक माना जाता है। अतः लिंगानुशासन, शब्दानुशासन का एक अंग माना गया है। परंतु धातुपाठ, गणपाठ, उणादिपाठ के समान लिंगानुशासन व्याकरणशास्त्र के सूत्रों से संबद्ध नहीं है। व्याकरणों के प्रायः प्रत्येक प्रवक्ता ने स्वीय व्याकरण से संबद्ध लिंगानुशासन का प्रवचन किया है और हर्षवर्धन, वामन जैसे कुछ ऐसे भी ग्रंथकार हैं, जिन्होंने केवल लिंगानुशासन का ही प्रवचन किया। हर्षवर्धन का लिंगानुशासन जर्मन भावानुवाद सहित जर्मनी में मुद्रित हुआ है और व्याख्या तथा परिशिष्टों सहित इसका संस्करण मद्रास विश्वविद्यालय से प्रकाशित हुआ है। वामन के लिंगानुशासन में केवल 33 कारिकाएं हैं। पाल्यकीर्ति, हेमचन्द्र सूरि, पद्मनाथ आदि अन्य व्याकरणकारों के भी लिंगानुशासन विषयक संक्षिप्त ग्रंथ हैं। 12 परिभाषा संस्कृत शब्दानुशासनों से संबंधित, विविध परिभाषा संग्रह प्रसिद्ध हैं। ये परिभाषाएँ सूत्ररूप होती हैं जिनका कार्य कमरे में रखे हुए दीपक के समान होता है। जिस प्रकार प्रज्वलित दीपक सारे कक्ष को प्रकाशित करता है, उसी प्रकार परिभाषात्मक संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 53 For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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