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सूत्रवचन सारे व्याकरणशास्त्र को प्रकाशित करता है। "परितो व्यापृतां भाषां परिभाषां प्रचक्षते'' इन शब्दों में परिभाषा शब्द का स्पष्टीकरण दिया जाता है। कुछ परिभाषाएं पाणिनीय आदि शास्त्रों के अन्तर्गत ही सूत्ररूप में होती हैं और अन्य कुछ परिभाषाएँ सूत्रपाठों से बाह्य होती हैं। सामान्यतः 1) ज्ञापित 2) न्यायसिद्ध और 3) वाचानक इन तीन प्रकार की परिभाषाएँ मानी गयी हैं। ज्ञापित परिभाषाएं वार्तिककार एवं भाष्यकार (पतंजलि) के वचनस्वरूप होती हैं। इनके अतिरिक्त कुछ परिभाषाओं का एक अंश सूत्रों द्वारा ज्ञापित होता है, और अवशिष्ट अंश लौकिक न्यायद्वारा अथवा पूर्वाचार्यों के वचन द्वारा पठित होता है। इस प्रकार की परिभाषा, “मिश्रित परिभाषा" कही जाती है।
परिभाषाओं के संबंध में वैयाकरणों का संकेत है कि व्याकरण सूत्रों के अनुसार शब्द की सिद्धि करते समय जहां विप्रतिपत्ति अर्थात् मतभेद निर्माण होते हैं, वहां शास्त्रीय कार्य को पूर्ति के लिए परिभाषा का आश्रय लेकर कार्यनिर्वाह किया जाता है। इसी दृष्टि से "अनियमप्रसंगे नियमकारिणी" यह परिभाषा की व्याख्या की गई है।
पाणिनीय वैयाकरणों द्वारा स्वीकृत परिभाषाओं के विविध पाठ उपलब्ध होते हैं। 1) क्षीरदेवविरचित परभिाषावृत्ति में आश्रित 2) परिभाषेन्दुशेखर आदि में आश्रित और 3) पुरुषोत्तमदेवकृत परिभाषावृत्ति में उपलब्ध। इनमें संगृहीत परिभाषाओं की संख्या 93 से 140 तक मिलती है। सम्पति पाणिनीय वैयाकरणों द्वारा, नागेशभट्ट के परिभाषेन्दुशेखर में पठित 133 परिभाषाएँ प्रामाणिक मानी जाती हैं। पुणे निवासी काशीनाथ वासुदेव अभ्यंकर ने, सांप्रत उपलब्ध विविध परिभाषा पाठों तथा उनकी वृत्तियों का "परिभाषासंग्रह" किया, जिसका प्रकाशन भाण्डारकर प्राच्यविद्या संशोधन मंदिर द्वारा, सन् 1967 में हुआ है। परिभाषाओं के संबंध में ("व्याडिविरचित", "पाणिनिप्रोक्त” इत्यादि विशेषणों से) यह माना जाता है कि इनके मूल रचयिता व्याडि तथा पाणिनि रहे होंगे।
इन परभिाषा सूत्रों पर अनेक व्याख्या ग्रंथ लिखे गये, जिनमें विशेष उल्लेखनीय हैं : परिभाषावृत्ति - पुरुषोत्तम देव
परिभाषारत्न
- अप्पा सुधी - क्षीरदेव
परिभाषा-प्रदीपार्चि - उदयशंकर भट्ट. - नीलकण्ठ वाजपेयी
परिभाषेन्दुशेखर
- नागेश भट्ट परिभाषार्थसंग्रह - वैद्यनाथ शास्त्री
परिभाषा-भास्कर
- शेषद्रिनाथ सुधी परिभाषाभास्कर - हरिभास्कर अग्निहोत्री
सार्थपरिभाषापाठ - गमप्रसाद द्विवेदी प्राय इन सभी व्याख्याओं पर टीका ग्रंथ लिखे गये हैं। परिभाषाओं के विवृत्ति पूरक ग्रंथों में, नागेशभट्ट कृत परिभाषेन्दुशेखर का विशेष स्थान है। इसी ग्रंथ का प्राधान्यतः सर्वत्र अध्ययन होता है और "शेखरान्तं व्याकरणम्" इस प्रसिद्ध वचन के अनुसार, पाणिनीय व्याकरण के अध्ययन- अध्यापन की परिसमाप्ति परिभाषेन्दुशेखर के अध्ययन समाप्त होने पर मानी जाती है। परिभाषेन्दुशेखर पर कुछ प्रसिद्ध टीकाएँ विद्यमान हैं:टीका
- लेखक गदा - वैद्यनाथ पायगुण्डे
त्रिपथगा - (1) राघवेन्द्राचार्य, (2) वेंकटेशपुत्र लक्ष्मीविलास - शिवराम
भैरवी - भैरव मिश्र चन्द्रिका - विश्वनाथ भट्ट
सर्वमंगल - शेष शर्मा चित्प्रभा - ब्रह्मानंद सरस्वती
शंकरी - शंकरभट्ट
नागपुर के न्यायाधीश रावबहादूर नारायण दाजीबा वाडेगावकर ने लिखी हुई परिभाषेन्दुशेखर की सविस्तर मराठी व्याख्या 1936 में प्रकाशित हुई। काशीनाथ शास्त्री अभ्यंकर के परिभाषासंग्रह में कातंत्र (कालाप), चान्द्र, जैनेन्द्र, शाकटायन, हैम, मुग्धबोध और सुपद्म इन व्याकरण संप्रदायों की परिभाषाओं का संकलन किया है। इन परिभाषाओं पर भी टीकाग्रंथ लिखे गये हैं।
शान्तनव शास्त्र पाणिनीय संप्रदाय में उणादि के समान फ्ट्सूित्र नामक एक संक्षिप्त शास्त्र है जिसके द्वारा शब्दों के प्रकृति-प्रत्यय विभाग के बिना, उन्हे अखण्ड मान कर उदात्तादि स्वरनिर्देश किया जाता है। रूढ शब्दों को पाणिनि अत्युत्पन्न मानते थे, परंतु स्वरप्रक्रिया की दृष्टि से उन्हें व्युत्पन्न ही मानते थे। इसी लिए उन्होंने शब्दों के स्वर-परिज्ञान के लिये पांच सौ सूत्रों की रचना की है। परंतु पाणिनीय शास्त्र के व्याख्याता कात्यायन और पतंजलि रूढ शब्दों को अव्युत्पन्न मानते थे। अतः उन्हें रूढ शब्दों के स्वरनिर्देश के लिए "फिट्सूत्र जैसे शास्त्र की, जिस में शब्द को अखण्ड मान कर स्वरनिर्देश किया जाता है, आवश्यकता प्रतीत हुई। इस प्रकार के शास्त्र के प्रवक्ता नाम शन्तनु था। अतः फिट्सूत्रों को "शान्तनव सूत्र" कहते हैं। इस शान्तनव शास्त्र को "फिट्सूत्र" संज्ञा प्राप्त होने का कारण, इसका प्रथम सूत्र फिट् है। "पाणिनि ने जिस अर्थ में "प्रातिपदिक" संज्ञा का प्रयोग किया, वही "फिट" संज्ञा का अर्थ है। इस संज्ञा-वाचक सूत्र के कारण यह शास्त्र "फिट्सूत्र" नाम से प्रसिद्ध हुआ। युधिष्ठिर
54 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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