________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
डॉ. हेगडेवारजी, श्री. अणे के सहकारी सत्याग्रही रहे । सन 1941 में आप वाइसराय की शासन परिषद के सदस्य चुने गए थे, पर आगाखाँ - पैलेस में गांधीजी के उपवास के समय आपने वह उच्च पद छोड़ दिया। सन् 1943 में आप श्रीलंका में भारत सरकार के एजंट नियुक्त किए गए। स्वतंत्रता के पश्चात् देश की विधान निर्मात्री सभा के भी आप सदस्य रहे । बाद में लोकसभा के भी सदस्य रहे । महाराष्ट्र में विदर्भ के पृथक् राज्य का आंदोलन भी आपने खड़ा किया था। सन 1951 में आप दीर्घ काल तक पुणे में अस्वस्थ रहे। शरीर की उस अत्यंत विकल अवस्था में, शरीर प्लैस्तर में पड़ा होते हुए भी, अन्तःकरण की शांति के लिए आपने अपने पूज्य गुरुदेव श्री. लोकमान्य तिलक का संस्कृत पद्यात्मक चरित्र लिखने का संकल्प किया और पांच-छह वर्षों में अपना 'तिलक - यशोर्णवः' नामक पद्यमय तिलक चरित्र पूर्ण किया । सन् 1960 में आपका देहांत होने के पश्चात् सन् 1962 में इस ग्रंथ को साहित्य अकादमी का पुरस्कार दिया गया। पद्मविभूषण उपाधि भारत सरकार की ओर से विभूषित । राष्ट्रीय आंदोलनों में अग्रसर रहते हुए भी संस्कृत पांडित्य का रक्षण करते हुए संस्कृत में महत्त्वपूर्ण ग्रंथ का निर्माण करना, बापूजी अणे की विशेषता थी विदर्भ प्रदेश के प्रायः सभी राजकीय, धार्मिक, साहित्यिक, शैक्षणिक कार्यों को आपका संपूर्ण सहकार्य मिलता रहा। बापूजी अणे का अवांतर मराठी-अंग्रेजी लेखन, 'अक्षरमाधव' नामक ग्रंथ में संकलित किया गया है। अतिरात्रयाजी त्रिपुर- विजयचम्पू' नामक काव्य के रचयिता । 'नीलकंठ-विजयचंपू' के रचयिता नीलकंठ दीक्षित के सहोदर भ्राता । समय 17 वीं शती का मध्य। इनका चंपू-काव्य अभी तक अप्रकाशित है।
www.kobatirth.org
-
-
अत्रि ऋग्वेद के पांचवे मंडल के 37, 43 एवं 76-77 वें सूक्त इनके नाम से हैं। इस मंडल के अन्य सूक्त इनके गोत्रज ऋषियों के दृष्ट हैं। जन्मकथा इस भांति है
प्रजापति ने साध्यदेवों सहित त्रिसंवत्सर नामक एक सत्र आरंभ किया। उसमें वाग्देवी प्रकट हुई। उसे देख प्रजापति और वरुण का मन विचलित हुआ। दोनों का वीर्य पतन हुआ। वायु ने उसे अग्नि में डाला। उस अग्निज्वाला से भृग, और अंगारों से अंगिरा ऋषि का जन्म हुआ। इन दो सुंदर बच्चों को देख कर वाग्देवी ने प्रजापति से कहा- "इन दोनों के समान तीसरा पुत्र आप मुझें दे।” प्रजापति ने स्वीकार किया, और प्रतिसूर्य ही जिसे कहा जाय ऐसा पुत्र निर्माण किया । वही थे अत्रि (बृहद् देवता - 9, 101 ) ।
दूसरी कथा स्वायंभुव मन्वंतर में ब्रह्मा के नेत्र से इनका जन्म हुआ। ब्रह्मा के दस मानसपुत्रों में से एक। कर्दम प्रजापति की अनसूया नामक कन्या इनकी पत्नी थी। इन्होंने
270 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
चतूरात्र नामक याग प्रारंभ किया ( तै.सं.7.1.8)। किसी कारण कारावास भी भोगना पड़ा। अग्नि से अश्विनी की कृपा से बच पाये (ऋ. 1.118.7)।
सूर्यग्रहण संबंधी ज्ञान प्रथमतः इन्हें ही हुआ इसी कारण ग्रस्त सूर्य को अत्रि ही वापस लाते हैं, यह धारणा बनी (ऋ.5.40.5.9.) । अत्रिकुल के पुरुष, कवि थे और योद्धा भी । अत्रि का पर्जन्यसूक्त ओजस्वी है ऋ. 83 एक स्थान पर उन्होंने कहा है
विसमणं कृणुहि वित्तमेषां
ये भुञ्जते अपृणन्तो न उक्थेः । अपव्रतान् प्रवसे वावृधानान्
ब्रह्मद्विषः सूर्याद् यावयस्व ।। (ऋ.5.42.9.) अर्थ- जो लोग स्तोत्र गाकर पेट भरते हैं पर कौड़ी का भी दानधर्म नहीं करते, देवताओं को संतुष्ट नहीं करते, उनका धन क्षण भर भी टिकने न दो। उसी भांति सन्मार्ग से भ्रष्ट, भरपूर बालबच्चे होने से मस्त, धर्म का (शन का) द्वेष करने वाले जो दुष्ट होंगे, उन्हे सूर्यप्रकाश से अंधकार में गाड दो।
अत्रि सप्तर्षियों में से एक हैं। वे अत्यंत कर्मनिष्ठ एवं तेजस्वी थे। उन्हें उन्नीसवें द्वापरयुग का व्यास कहा जाता है। अनसूया से दत्त, दुर्वास, सोम और अर्यमा नामक चार पुत्र एवं अमला नामक एक कन्या उन्हें हुई। दाशरथी राम जब वनवास में थे, तब इनके आश्रम में भी गये थे। इस दंपती ने उनका स्वागत किया। वहां से अगला मार्ग (राम-लक्ष्मण को) अत्रि ने ही दिखाया (वा.रा. 2-117 119 ) ।
अत्रिसंहिता एवं अत्रिस्मृति नामक दो ग्रंथ इनके नाम पर हैं। मनु ने अत्यंत गौरव के साथ इनका मत स्वीकार किया है ( 3.16) । अत्रिसंहिता में 9 अध्याय हैं। योग, जप, कर्म विपाक, प्रायश्चित आदि का विचार उनमें किया गया है। वे सूत्रकार भी है।
अधीरकुमार सरकार- ई. 20 वीं शती । 'पाशुपत' नामक (एकांकी) तथा 'कचदेवयानी' नामक नाटक के प्रणेता। प. बंगाल में मेदिनीपुर के निवासी ।
अनन्तकीर्ति- अनन्तकीर्ति नाम के अनेक विद्वान हुए हैं। ये हैं- 'प्रामाण्यभंग' के रचयिता और 'सिद्धिप्रकरण' तथा सर्वज्ञसिद्धि के कर्ता (ई. 8-9 वीं शती)। ये रचनाएं बृहत् वादिराज द्वारा उल्लिखित हैं। विद्यानंद नामक विद्वान इनके समकालीन थे । अनंतदेव- ई. 13 वीं सदी। भास्कराचार्य के वंश के एक ज्योतिषी 'महागुप्त-सिद्धान्त' के बीसवें अध्याय और बृहज्जातक पर इन्होंने टीकाएँ लिखी है।
।
अनन्तदेव - ई. 16 वीं शती का उत्तरार्ध । गुरु- रामतीर्थ । कृतियां (1) मनोनुरंजन अथवा हरिभक्ति (नाटक) और (2) श्रीकृष्णभक्तिचन्द्रिका, जो विष्णुभक्ति एवं शृंगार रसप्रधान रचना है।
For Private and Personal Use Only