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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir का ज्ञान नहीं प्राप्त करता, तो वह 'विचक्षण' अर्थात मर्मज्ञ नहीं होगा। यही भाव अन्य पुराणों में भी व्यक्त किया गया है। इस का यही तात्पर्य है कि वेदों में प्रतिपादित ज्ञानकाण्ड एवं कर्मकाण्ड का मार्मिक ज्ञान देने वाले ग्रंथ पुराण ही हैं। बौद्ध धर्म के हासकाल में "जनता का आकर्षण पुराणोक्त धर्म की ओर बढ़ गया। पुराणोक्त धर्म सभी वर्गों एवं जातियों के लिए आचरणीय होने के कारण, वह एक दृष्टि से भारत का राष्ट्रीय धर्म सा हो गया। पुराणों ने बुद्ध को भगवान् विष्णु के दस अवतारों में राम कृष्ण इत्यादि विभूतियों के साथ पूजनीय माना। बौद्ध धर्म के अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह जैसे प्राणभूत सिद्धान्तों को अपने धर्मविचारों में अग्रक्रम देने के कारण तथा उनके साथ भगवद्भक्ति का परमानंददायक मुक्तिसाधन सभी मानवमात्र के लिये आग्रहपूर्वक प्रतिपादन करने के कारण इस देश की बौद्ध मतानुयायी बहुसंख्य जनता पुराणोक्त धर्म के प्रति आकृष्ट हो गयी। भारत के बाहर भी अनेक देशों के सांस्कृतिक जीवन पर रामायण एवं महाभारत का गहरा प्रभाव पड़ा। जावा, सुमात्रा, काम्बोडिया जैसे सुदूर पूर्ववर्ती देशों में बौद्ध धर्म के न्हास के साथ इस्लाम का प्रभाव बढ़ने पर भी, उन देशों की नृत्य, नाट्य आदि कलाओं में आज भी रामायण-महाभारत जैसे श्रेष्ठ पुराण सदृश्य ग्रंथों का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है। भारत के मध्ययुगीन इतिहास में इस्लामी आक्रमकों के घोर अमानवीय अत्याचारों के कारण इस देश के वैयक्तिक पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन में जो भी धार्मिकता जीवित रह सकी, उसका स्वरूप “पुराणोक्त" ही था। इस काल में यज्ञ-यागात्मक वेदोक्त कर्मकाण्ड का तथा तांत्रिक क्रियाओं का पुराणोक्त धर्मविचारों का प्रभाव, वैदिक कर्ममार्ग तथा बौद्धिक नीतिमार्ग पर पडा और प्रायः सारा भारतीय समाज पुराणोक्त धर्मानुगामी बना। ब्राह्मणों के धार्मिक कृत्यों में वैदिक मंत्रों के साथ पौराणिक मंत्र भी व्यवहुत होने लगे। शूद्रों तथा स्त्रियों को रामायण, महाभारत एवं अन्य पुराणों के पढने का अधिकार पुराणोक्त धर्म के पुरस्कर्ताओं ने दिया। साथ ही अन्य वर्णियों के समान देवपूजा करने एवं अपने व्रतों एवं उत्सवों में पौराणिक मन्त्रों का प्रयोग करने का भी अधिकार उन्हें मिला। अर्थात् इस विषय में कुछ धर्मशास्त्रियों ने अपने अन्यान्य मत बाद में व्यक्त किये हैं। वेदों, जैमिनिसूत्रों, वेदान्तसूत्रों जैसे प्राचीन धर्मग्रन्थों ने इस बात पर कभी विचार नहीं किया कि स्त्रियां एवं शूद्र किस प्रकार उच्च आध्यात्मिक जीवन एवं अंतिम सुंदर गति प्राप्त कर सकते हैं। उन्होंने स्त्रियों और शूद्रों को वेद उपनिषदों के अध्ययन का अनधिकारी माना है। इस कारण शूद्र समाज का ध्यान भगवान् बुद्ध के धर्म की ओर आकृष्ट हुआ। पुराणों ने सर्वप्रथम प्राचीन परंपरागत संकुचित एवं कृपण दृष्टिकोण को परिवर्तित किया। "स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः" अथवा यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्। स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः” (गीता- 18/45-46) इस प्रकार के भगवद्गीता के वचनों में पुराण-धर्म का सारसर्वस्व बताया गया है। एकादशीव्रत, श्राद्धविधि, कृष्णजन्माष्टमी जैसे सामाजिक महोत्सव, तीर्थयात्रा, तीर्थस्नान, नामजप, अतिथिसत्कार, अन्नदान, जैसे साधारण से साधारण व्यक्ति को आचरणीय धार्मिक विधि और सबसे अधिक परमात्मा की सद्भाव पूर्ण अनन्य भक्ति इन पर अत्यधिक बल देकर पुराणों ने भारत के परंपरागत धर्म में स्पृहणीय परिवर्तन किया और उसे सर्वव्यापक स्वरूप दिया। धर्माचरण के इन विधियों का महत्त्व सैकडों आख्यानों, उपाख्यानों एवं कथाओं द्वारा सामान्य जनता को समझाया। पुराणोक्त धर्म के भक्ति सिद्धान्त ने हिंदुसमाज के सभी दलों को प्रभावित किया। बौद्धों के महायान सम्प्रदाय ने तथा जैन संप्रदायों ने भी इस भक्ति सिद्धान्त का स्वागत किया। इस्लाम एवं ईसाई धर्म में भी भक्तिवाद का महत्त्व बताया गया है, परंतु उस भक्ति का स्वरूप संकुचित तथा असहिष्णु सा है। पुराणोक्त भक्ति नवविधा है और उसमें उपास्य देवता के विषय में अनाग्रह है। ___ “आकाशात् पतियं तोयं यथा गच्छति सागरम्। सर्वदेवनमस्कारः केशवं प्रतिगच्छति ।। अथवा येऽप्यन्यदेवताभक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विताः। तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्यविधिपूर्वकम्।। (गीता- 9/23) इस अर्थ के अनेक औदार्यपूर्ण वचन पुराण ग्रन्थों में मिलते हैं जिनके द्वारा पुराणोक्त भक्तिमार्ग की व्यापकता व्यक्त होती है। इस उदारता या व्यापकता का मूल ऋग्वेद के एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति । अग्निं यमं मातरिश्वानमाहुः ।। अर्थात् सत् तत्त्व एक मात्र है, विद्वान् लोग उसे अग्नि, यम, मातरिश्वा (वायु) इत्यादि अनेक नामों से पुरकारते हैं इस मन्त्र में बताया जाता है। 3 "पुराणोक्त आख्यान" पुराण वाङ्मय का विस्तार एवं उसके अन्तर्गत आये हुए विषयों के प्रकार, संक्षिप्त परिचय के लिए भी एक प्रदीर्घ विषय होता है। प्रस्तृत कोश में यथास्थान संक्षेपतः पुराणों का परिचय दिया गया है। यहां हम केवल पुराणान्तर्गत आख्यानों एवं कथाओं का यथाक्रम संकेतमात्र करते हैं। परंपरानुसार पुराणों का जो क्रम माना जाता है तदनुसार यहां संकेत दिया गया है। पुराणों की श्लोकसंख्या विवाद्य है, परंतु अध्यायों की संख्या निश्चित सी है। अतः यहां अध्याय-संख्या का निर्देश किया है। दशीव्रत, श्राभक्ति को आचर के परंपरागत ख्यानों एवं 74/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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