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प्रदर्शित की है। वे पुराणों एवं महाभारत के ज्योतिःशास्त्रीय वक्तव्यों में यथार्थता नहीं मानते और जहां यथार्थता दीखती है वहां "प्रक्षेप' (इंटरपोलेशन) मानकर, निराकृत कर देते हैं। पारजिटर ने तो यह भी कह दिया है कि पुराण ग्रंथ प्राकृत भाषीय ग्रंथों के संस्कृत रूपान्तर हैं। किर्फेल ने पार्जिटर के इस मत का विरोध किया है। पुराणों एवं उपपुराणों के अंतरंग का परीक्षण
करने वालों को उन की निर्मिति में कुछ क्रमिक विकास दिखाई देता है। इसी कारण पुराणों के काल निर्धारण के संबंध में मतभेद दिखाई देता है। परंपरावादी मत का उल्लेख उपर किया गया है। आधुनिक चिकित्सकों में भारतरत्न म.म. पांडुरंग वामन काणे का मत प्रतिपादन हमें उचित लगा। अतः वह यहां उद्धृत करते हैं:
___ "अथर्ववेद, शतपथ ब्राह्मण एवं प्राचीन उपनिषदों में उल्लिखित “पुराण' के विषय में हमें कुछ भी ज्ञात नहीं है, किन्तु इतना स्पष्ट है कि पुराण ने वेदों के समान ही पुनीतता के पद को प्राप्त कर लिया था और वैदिक काल में वह इतिहास के साथ गहरे रूप से संबंधित था। पुराण साहित्य के विकास की यह प्रथम सीढ़ी थी किन्तु हम प्राचीन कालों के पुराण के भीतर के विषयों को बिल्कुल नहीं जानते।
तैत्तिरीय आरण्यक ने "पुराणानि" का उल्लेख किया है, अतः उस के समय में कम से कम तीन पुराण तो अवश्य रहे होंगे क्यों कि यह निर्देश बहुवचन में है। आपस्तंब धर्मसूत्र ने एक पुराण से चार श्लोक उद्धृत किये हैं और एक पुराण को भविष्यत् पुराण नाम से पुकारा है जिससे प्रकट होता है कि पांचवी या चौथी ई.पू. शती तक कम से कम भविष्यत् पुराण नामक पुराण था। और अन्य पुराण रहे होंगे, या एक और पुराण रहा होगा जिसमें सर्ग एवं प्रतिसर्ग साथ कुछ स्मृति के विषय रहे होंगे। इसे हम पुराण साहित्य के विकास की दूसरी सीढी कह सकते है जिसके विषय के बारे में हमें कुछ थोडा बहुत ज्ञात है।
महाभारत ने सैकडों श्लोक उद्धृत किये हैं, जिनमें कुछ तो पौराणिक विषयों की गन्ध रखते हैं और कुछ पौराणिक परिधि में आ जो है। कुछ उदाहरण दिये जा रहे हैं : वन पर्व में विश्वामित्र की अतिमानुषी विभूति के विषय में एवं उनके इस
कथानक के विषय में (कि वे ब्राह्मण हैं) दो श्लोक उद्धृत किये हैं। अनुशासन पर्व में कुछ ऐसी गाथाएं उद्धृत की हैं जो पितरों द्वारा पुत्रों की महत्ता के विषय में गायी गयी हैं। ये गाथाएं शब्दों एवं भावों में इसी विषय में कहे गये पौराणिक वचनों
से मेल रखती हैं। याज्ञवल्क्य ने (1/3) पुराण को धर्मसाधनों में एक साधन माना है जिससे यह सिद्ध होता है कि कुछ ऐसे पुराण, जिन में स्मृति की बातें पायी जाती थी, उस स्मृति (अर्थात याज्ञवल्क्य स्मृति) से पूर्व ही अर्थात् दूसरी या तीसरी
शती में प्रणीत हो चुके थे। पुराणसाहित्य के विकास की यह तीसरी सीढी है। यह कहना कठिन है कि, वर्तमान मत्स्य पुराण मौलिक रूप से कम लिखा गया, किन्तु यह तीसरी शती के मध्य में या अन्त में संशोधित हुआ क्यों कि इसमें आन्ध्र वंश
के अधःपतन की चर्चा तो है, किन्तु गुप्तों का कोई उल्लेख नहीं है। किन्तु यह संभव है कि मत्स्य का बीज इस के कई शतियां पुराना हो। यही बात वायु एवं ब्रह्माण्ड के साथ भी है। ये दोनों लगभग ई. 320-335 के आसपास संगृहित या
संवर्धित हुए; क्यों कि इन्होंने गुप्तों की ओर संकेत तो किया है किन्तु गुप्त राजाओं के नाम नहीं लिये हैं। आज के रूप में ये दोनों (वायु एवं ब्रह्माण्ड) पुराण विकास की तीसरी सीढ़ी में ही रखे जाते हैं। महापुराणों में अधिकांश 5 वीं या छटी
शती और 9 वीं शती के बीच में प्रणीत हुए या पूर्ण किये गये। यह है पुराण साहित्य के विकास की चौथी सीढ़ी। उपपुराणों का संग्रह 7 वीं या 8 वीं शताब्दी के आरंभ से हुआ और उनकी संख्या 13 वीं शती तक या इसके आगे तक बढ़ती गयी। यह है पुराण साहित्य के विकास की अंतिम सीढी। इस प्रकार हम देखते हैं कि पुराणों ने हिंदु समाज को ईसा के पूर्व की शतियों के कुछ उपरान्त से 17 वीं या 18 वीं शती तक किंबहुना आज भी प्रभावित किया हुआ है। नवीं शती के उपरान्त कोई अन्य महापुराण नहीं प्रकट हुए किन्तु अतिरिक्त विषयों का समावेश कुछ पुराणों में होता रहा, जिसका सबसे बुरा उदाहरण है भविष्य पुराण का तृतीय भाग, जिसमें आदम एवं ईव, पृथ्वीराज एव जयचन्द्र, तैमूर, अकबर, चैतन्य, भट्टोजी, नादिरशाह आदि की कहानियाँ भर दी गयी हैं। पुराण शब्द ऋग्वेद में एक दर्जन से अधिक बार आया है। वहां यह विशेषण है और इसका अर्थ है प्राचीन, पुरातन या वृद्ध । जब पुराण प्राचीन कथानकों वाले ग्रन्थ का द्योतक हो गया तो "भविष्यत् पुराण" कहना स्पष्ट रूप से आत्मविरोध (या वदतोव्याघात) का परिचायक हो गया। किन्तु इस विरोध पर ध्यान नहीं दिया गया।" (भारत रत्न म. म. डॉ. पांडुरंग वामन काणे कृत धर्मशास्त्र का इतिहास। हिन्दी अनुवाद चतुर्थ भाग पृ. 397-98)
2 "पुराणोक्त धर्म" पुराणों का वेदों से दृढ संबंध है। प्रायः सभी पुराण तथा उपपुराण वेदानुकूल हैं। इसी कारण सनातन धर्मियों के प्रत्येक धार्मिक कृत्य के प्रारंभ में श्रुतिस्मृति-पुराणोक्तफलप्राप्त्यर्थ कर्म करिष्ये" यह संकल्पवाक्य उच्चारित होता है। वायुपुराण में ऐसा बलपूर्वक कहा है कि
यो विद्याच्चतुरो वेदान् सांगोपनिषदो द्विजः । न चेत् पुराणं संविद्याद् नैव स स्याद् विचक्षणः ।। 1-200 ।। अर्थात् जो वैदिक विद्वान चारों वेदों का, उनके छः अंगों एवं उपनिषदों के साथ ज्ञान प्राप्त करता है, किन्तु वह पुराणों
आदि को कण का तृतीय हुए किन्तु मा शती तक
है और
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड/73
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