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राजाओं को परास्त किया। उसका पराक्रम सुन कर जरासंघ उसका मित्र बन गया। आगे चल कर इन्द्र ने तुम्हारे हित के लिए उसके कवच-कुंडल (जो जन्मतः उसे मिले थे) मांग, लिए। इस तरह से कर्ण बड़ा बहादुर होने पर भी परिस्थिति से (शापादि से) पीड़ित था, और इसी लिए अर्जुन के हाथों उसका वध हुआ। लेकिन युद्ध में मृत्यु आने के कारण उसे सद्गति ही प्राप्त हुई है। इस लिए हे धर्मराज! उसके लिए शोक करना व्यर्थ है।
नारद ऋषि का वह भाषण सुनने पर भी धर्मराज का शोक शांत नहीं हुआ। वे फिर से वन चले जाने की और तपश्चर्या करने की बातें करने लगे। उस समय अर्जुन, भीमसेन, द्रौपदी, व्यास महर्षि और श्रीकृष्ण ने उन्हे तरह तरह समझा बुझाने का प्रयत्न किया। व्यास महर्षि बोले "वन में रह कर तप करना ब्राह्मण का काम है। क्षत्रियों का मुख्य कर्तव्य राज्य करना ही है। राजा अधर्म करने वाले को दंड देता है। अतः लोक धर्म पर चलते है, उसी से राजा को सद्गति प्राप्त होती है।
सुद्युम्न राजा के राज्य में दो ऋषि, शंख और लिखित रहते थे। एक बार लिखित ने अपने आश्रम के फल अनुमति लिए बिना खा लिये। तब शंख ने उससे कहा, "तूने चोरी की है, उस पातक का दंड भुगत कर फिर यहां चला आ।" लिखित सुद्युम्न राजा के पास चला गया। सुद्युम्न राजा ने उसके दोनों हात कटवा डालें। लिखित अपने बड़े भाई के यहां याने शंख के यहां लौट आया- और क्षमा मांगने लगा। तब शंख ने कहा, "मै तुझ पर गुस्सा नहीं हूं। किये पातकों का प्रायश्चित भोगना आवश्यक, इसलिए मैने तुझे राजा के पास जाने के लिए कहा। अब तू इस नदी में स्नान कर। तद्नुसार स्नान करते ही लिखित के हाथ पहले जैसे चंगे हो गए। उस दिन से वह नदी बाहुदा (बाहु-हाथ, दा-देनेवाली) कहलाने लगी। उस पर लिखित ने पूछा, तो फिर तुम्हीं ने मुझे दंड क्यों नही दिया? शंख ने बताया अपराधी को दंड देना राजा का कर्तव्य है, इसलिये मैने तुझे सुद्युम्न राजा के पास पहुंचाया।
व्यास ऋषि, कहते हैं, वह सुद्युम्न राजा क्षत्रियोचित धर्माचरण से परमधाम पहुंच गया। तू भी उसका अनुकरण करके धर्मानुकूल राज्य चला।
अनन्तर व्यास महर्षि पुनः बोले, "देव-दैत्य भाई-भाई होने पर दैत्य अधर्म करने वाले, इसलिए देवों ने उनका नाश तो किया ही, पर जिन शालावृक नाम के अठासी हजार (88,000) ब्राह्मणों ने उनका पक्ष लिया था उनका भी नाश किया। कौरव अधार्मिक थे। उनका नाश करने से तुझे पाप नहीं लगा है। इतना होने पर भी अगर तुझे पाप की शंका हो तो उससे सभी पापों का नाश हो जाएगा।" उसपर धर्मराज ने कहा “मुझे पूरा राजधर्म सुनने की इच्छा है।" व्यास ऋषि ने बताया उसके लिए तू भीष्म पितामह के पास जाकर उनसे प्रार्थना कर। धर्मराजने कहा, "मैने ही उनको मारा है, और अब मै उसके पास कैसे जाऊँ"? कहकर वे बहुत ही शोक करने लगे। तब श्रीकृष्ण ने कहा, "धर्मराज, धर्म की वृद्धि हो, अधर्म का नाश हो, और उससे सबका कल्याण हो एतदर्थ तू अपना वंशपरंपरागत राज्य चला। अब अधिक आग्रह मत कर।" वह सुन कर सबके साथ धर्मराज हस्तिनापुर लौट आये। हस्तिनापुर पहुंचने पर ब्राह्मण जब आशीर्वाद दे रहे थे तब चार्वाक नामका एक राक्षस धर्मराज से कहने लगा, “ये सभी ब्राह्मण कहते हैं कि तुझ जैसा निजी जाति का नाश करने वाला राजा हम नहीं चाहते हैं। धिक्कार है तुझे। अरे गुरु-हत्या करके जीवित रहने की अपेक्षा तू मर जाता तो अच्छा होता।" यह सुन कर धर्मराज सभी ब्राह्मणों से प्रार्थना करके बोले, "एक तो में पहले से ही दुःखी हूं। मेरा धिक्कार क्यों कर रहे है आप? यह दुष्ट राक्षस दुर्योधन का मित्र है। इसके कहने पर तुम ध्यान मत दो। तुम्हारा कल्याण हो।" इतना कहकर उन ब्राह्मणों ने अपने तप-तेज से उस चार्वाक राक्षस को नष्ट कर दिया।
उसके बाद राज्याभिषेक की सब सिद्धता हो जाने पर धौम्य ऋषि ने होमहवन किया और श्रीकृष्ण ने रत्नमय सुवर्ण सिंहासन पर द्रौपदी के साथ बैठ धर्मराज को अभिषेक किया। मंगलवाद्य बजने लगे। सभी प्रजाजनों ने अपने-अपने उपहार धर्मराज को अर्पित किए, श्रीकृष्ण की स्तुति की और सबके आभार माने। इस तरह से ठाट-बाट के साथ समारोह संपन्न होकर राज्याभिषेक का कार्यक्रम विधिवत् पूर्ण हो गया । सभी धन्य-धन्य कहने लगे। धर्मराज के शासन में सभी सानन्द दिन बिताने लगे।
एक दिन धर्मराज श्रीकृष्ण के पास गये। तब उन्हें, श्रीकृष्ण को ध्यानस्थ बैठे देख कर बड़ा अचरज हुआ। उन्होंने श्रीकृष्ण से प्रश्न किया कि भगवन्, सभी लोग तुम्हारा ध्यान करते हैं, पर तुम किसका ध्यान कर रहे थे। उस पर श्रीकृष्ण ने कहा, “मेरे एकनिष्ठ भक्त भीष्म शरशय्यापर मेरा ध्यान कर रहे हैं, इस लिए मेरा पूरा ध्यान उन्हीं की ओर लगा हुआ था। सचमुच भीष्म पितामह जैसा परमज्ञानी फिर कभी नहीं दिखाई देगा। इसलिये अब तू उनके पास चला जा और अपनी सारी शंकाकुशंकाओं का निरसन करा ले। उसी में तेरे मन को संतोष प्राप्त होगा।
तद्नुसार सभी पांडव, श्रीकृष्ण आदि लोग भीष्म के पास चले गए। भीष्म पितामह को प्रणाम करने पर श्रीकृष्ण ने भीष्म से कहा, "आपका शरीर मन आदि समर्थ हैं न? आप जैसा सर्वज्ञ इस युग में कोई भी नहीं है, कृपया धर्मराज के शंका-संदेहों को निरस्त कर दीजिए। उस पर भीष्म पितामह बोले, “भगवन्, तुम्हारी कृपा से ही मैं यहा जीवित हूं। अन्यथा
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड/119
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