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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मेरा शरीर वेदनाओं से पीड़ित है। मन और बुद्धि में स्थिरता नहीं, जीभ लडखडा रही है। इस अवस्था मैं क्या उपदेश दे सकता हूं। इसलिये, मुझे क्षमा हो। सभी ज्ञानी लोगों के गुरु आप ही हैं अतः आप ही धर्मराज को समुचित उपदेश दीजिए।" यह सुन कर श्रीकृष्ण संतुष्ट हो गए और उन्होंने भीष्म पितामह को वर-प्रदान किया, "तुम्हें वेदनाएं अब नहीं होगी, भूख प्यास नहीं सताएंगी मन बुद्धि में स्थिरता आ जाएगी और सब ज्ञान स्फुरित होगा।" श्रीकृष्ण के वर देने पर व्यास आदि ऋषियों ने भगवान् श्रीकृष्ण की पूजा की। उसी क्षण आकाशस्थ देवताओं ने पुष्पों की वर्षा की। उसके अनुसार दूसरे दिन नित्य-नैमित्तिक उपासना पूरी करके सभी भीष्म के पास पहुंचे। श्रीकृष्ण ने भीष्म से पूछा, "अब पीडाएं तो नहीं हो रही हैं?" भीष्म ने बताया, "भगवन् तुम्हारी कृपा से सब आनंद है। ऐसा लग रहा है की मैं फिर तरुण बन गया हूं और उपदेश देने की सामर्थ्य भी आ गयी है। लेकिन एक बात पूछनी है। धर्मराज को आप ही स्वयं उपदेश क्यों नहीं दे रहे हैं? श्रीकृष्ण ने कहा की मैं उपदेश दूं तो लोगों पर कुछ विशेष प्रभाव नहीं पड़ेगा; लेकिन आप उपदेश दोगे तो सब लोग आपका नाम आदरपूर्वक लेते रहेंगे। आपको वरप्रदान इसी लिये किया है। आपके इस उपदेश को वेद-वाक्य के समान पवित्र मानेंगे। तब भीष्म पितामह ने कहा, "भगवन् आपका कृपा-प्रसाद पाकर मैं अब उपदेश करता हूँ। धर्मराज प्रश्न करते रहें और मैं उसका उत्तर देता जाऊं।" श्रीकृष्ण ने कहा, " धर्मराज को आपके सम्मुख आने में लज्जा तथा ग्लानि हो रही है और उसे डर लगा रहा है कि कहीं आप शाप तो नहीं देंगे। जिनकी पूजा होनी चाहिए उन्हींका वध बाणों से उसने किया, इस लिए वह आपके सामने उपस्थित होने में सकुचा रहा है। उसपर भीष्म पितामह ने धर्मराज से कहा, "इसमें डरने या लज्जित होने का कोई कारण नहीं है। यह तो क्षत्रियों का धर्म ही है। युद्ध में कोई भी विरोध में खडा हो, साक्षात् गुरु भी क्यों न हो, क्षत्रिय को उसका वध कर ही देना चाहिए।" भीष्म के इस भाषण से धर्मराज ने धैर्य से उनके सामने जाकर उनकी वंदना की। भीष्म ने धर्मराज से कहा, "घबराने की कोई बात नहीं है, स्वस्थ चित्त से नीचे बैठ कर जो पूछना हो सो खुले दिल से पूछो।" धर्मराज ने सबको प्रणाम करके पहले राजधर्म के बारे में पूछा। भीष्म पितामह ने राज-धर्म का कथन संक्षेप में किया और अन्य शंकाओं के बारे में पूछा। इस तरह से कुछ दिनों तक यह कार्यक्रम जारी रहा। धर्मराज के प्रश्न और भीष्म पितामह के दिये उत्तर अनेक हैं। शान्तिपर्व और अनुशासनपर्व, दोनों पर्व इन्हीं प्रश्नोत्तरों से परिपूर्ण हैं। उनमें से शांति पर्व में राजधर्म, आपद्धर्म और मोक्षधर्म तीन प्रकरण है। उन सबका सारांश यहां देना असंभव है। 13 अनुशासनपर्व अनुशासन पर्व में धर्मराज और भीष्म के बीच जो प्रश्नोत्तर हुए वे "दान-धर्म" नाम से विख्यात है। वे प्रश्नोत्तर बहुसंख्य होने के कारण उनका सारांश भी यहां देना असंभव है। धर्मराज के सभी संशय जब निरस्त हो गये और धर्मराज को हस्तिनापुर जाने की आज्ञा देने का समय आ गया तब भीष्म पितामह ने उससे कहा, “कि अब शोक करना छोड दे। हस्तिनापुर पहुंच कर न्याय-नीति से राज्य का दायित्व संभालो। सबको सुख-समाधान दो। यज्ञ-याग कर लो, और उत्तरायण के लगते ही मेरे पास आओ।" "ठीक है, जो आज्ञा'' कहकर भीष्म पितामह को प्रणाम करके सब लोग धर्मराज के साथ हस्तिनापुर लौट आये। पचास दिन के बाद सूर्य उत्तर की तरफ झुका। उत्तरायण देख कर सब लोगों के साथ धर्मराज भीष्म पितामह के पास गये। सभी ने भीष्मजी की वंदना की। पिमामह ने कहा, "आप सब लोग आ गये। बहुत अच्छा हुआ। पूरे अठ्ठावन दिन में यहां पडा हूं। माघ महिने की शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि आज है। अब उत्तरायण शुरू हो जाने से शरीर त्यागने में कोई बाधा नहीं है।" इतना कहकर धृतराष्ट्र और धर्मराज को उन्होंने अंतिम उपदेश किया। श्रीकृष्ण को वंदन कर शरीर त्यागने की अनुमति मांगी। सबसे "प्रस्थान" कह कर उन्होंने समाधि लगाना प्रारंभ किया। समाधि लगाकर प्राणों को ब्रह्मरंध्र में ले जाते समय शरीर का जो-जो भाग छूटता गया उस-उस भाग के बाण धीरे धीरे निकल पड़ने लगे। अंत में ब्रह्म-रंध्रका भेदन करके जीवात्मा बाहर निकल पड़ा, उस समय एक विशेष प्रकार का तेज, “आकाशमार्ग से ऊपर उठता सबको दिखाई दिया। भीष्म के शरीर को वस्त्र-प्रावरणों, पुष्प मालाओं एवं सुंगधित द्रव्यों से सजा कर चंदन, कपूर आदि से बनाई चिता पर रख दिया। उसे अग्नि दी। सभी ने तीन उलटी परिक्रमाएं लगाई और गंगा के तटपर आकर भीष्म पितामह के नाम जल-तर्पण किया। 14 अश्वमेधिकपर्व वैशंपायन जनमेजय राजा को आगे बताते हैं :- भीष्म के नाम तर्पण करने के बाद गंगा नदी के बाहर आकर धर्मराजा फिर से शोक करने लगे। तब धृतराष्ट्र, व्यास तथा श्रीकृष्ण ने उन्हें उपदेश दिया और अश्वमेघ यज्ञ करने कहा। धर्मराज के 120 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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