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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बहुत से यादव की कृष्ण द्वारका से हस्तिनापुर आगास्तिनापुर की तरफ लौटने लगा पाडा और गाड़ियों कहने पर कि यज्ञ करने के लिए पर्याप्त धन नहीं है, व्यासजी ने बताया कि पहले मरुत्त राजा ने हिमालय पहाड पर यज्ञ करके जो धनराशि वहीं छोड दी है, भगवान् शंकर को प्रसन्न करके तुम उस मांग ले आवो और तुम्हारे यज्ञ के लिए वह धन पर्याप्त है। यह सुनकर धर्मराज संतुष्ट हुए। यह देखकर कि धर्मराज को राज्य प्राप्त हुआ है और पूरा प्रदेश समृद्ध हुआ है, श्रीकृष्ण और अर्जुन को बडाही आनंद हुआ। वे दोनों, एक बार स्थान स्थान के तीर्थ क्षेत्रों को देखते हुए इंद्रप्रस्थ पहुंचे। वहां मयसभा में बड़े आनन्द के साथ काल बिताते उनमें सुख दुख की तथा युद्ध के संबंध में बहुत सी बातें हुई। अनंतर श्रीकृष्ण अर्जुन से बोले, "मुझे अब द्वारकापुरी की याद आ रही है। मेरा यहां का कार्य अब समाप्त हुआ है। यहां से मेरे बिदा लेने की बात तू धर्मराज से कर।" अर्जुन ने कहा, "वह तो ठीक है, लेकिन तुमने पहले जो ज्ञान श्रीगीता के रूप में मुझे कुरुक्षेत्र में सिखाया था, उसे मै भूल गया हूँ। द्वारका जाने से पहले वह ज्ञान मुझे फिर से सिखाओ।" श्रीकृष्ण ने कहा, "अब उस ज्ञानका उपदेश फिर कर सकने में मैं असमर्थ हूं, क्यों कि उस समय योगयुक्त होकर मैने तुझे वह ज्ञान सिखाया था।" बाद में श्रीकृष्ण धर्मराज से बिदा लेकर और अश्वमेघ यज्ञ में आने का अभिवचन देकर सुभद्रा के साथ द्वारका चले गये। इधर पांडवों ने व्यास महर्षि की सूचना के अनुसार धन लाने के लिए हिमालय की ओर प्रस्थान किया। वहां पहुंचने पर कुबेर तथा रुद्र की पूजा अर्चा करके वहां विविध प्रकार का धन प्राप्त किया। लाखो ऊँटों, हाथियों, घोडों और गाड़ियों पर वे सम्पत्ति लाद लाद कर लाते रहे। इस तरह से धीरे धीरे पांडव हस्तिनापुर की तरफ लौटने लगे। पांडव जिस समय सम्पत्ति लाने चले गये उस समय श्रीकृष्ण द्वारका से हस्तिनापुर आ गये। उनके साथ में सुभद्रा, बलराम, प्रद्युम्न, सात्यकि, कृतवर्मा आदि बहुत से यादव थे। श्रीकृष्ण के हस्तिनापुर में रहते हुए परीक्षित का जन्म हुआ। अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र का प्रभाव होने के कारण वह अर्भक प्रेतरूप ही था। श्रीकृष्ण ने अपने दिव्य सामर्थ्य से उसे फिर से जीवित किया। उस समय श्रीकृष्ण बोले, "अगर मैने कदापि असत्य भाषण न किया हो, अगर मैने युद्ध में पीठ न दिखाई हो, धर्म और ब्राह्मण अगर मुझे सदैव प्रिय रहे हों, अर्जुन के बारेमें मेरे हृदय में परायेपन की भावना न रही हो, कंस आदि का वध मैने न्यायपूर्वक किया हो, याने वे सारी बातें सत्यपर आधारित हों, तो उसी सत्य के प्रभाव से यह बालक जीवित हो उठे।" इतना कहते ही वह अर्भक जीवित हो उठा और चलन वलन करने लगा। वह देखकर कुन्ती, सुभद्रा, उत्तरा (जो कि उस बालक की मां ही थी।), द्रौपदी आदि को जो आनंद हुआ उसका वर्णन हो ही नहीं सकता। पुत्र का नाम परीक्षित रखा गया। उसके जन्म के एक महीने के बाद पांडव यज्ञ के लिए वह अपार धनराशि लेकर हस्तिनापुर लौट आये। बाद में शुभमूहुर्त देखकर व्यास महर्षि की सूचना के अनुसार धर्मराज ने यज्ञ दीक्षा ली और अश्व को विजयार्थ छोड दिया। उसकी रक्षा करने के लिए अर्जुन पीछे पीछे जा रहा था। यज्ञ का अश्व प्राग्ज्योतिष नगर को प्राप्त हुआ। वहां भगदत्त के पुत्र वज्रदत्त के विरोध को अर्जुन ने नष्ट किया। वहां तीन दिन युद्ध हुआ। धर्मराज ने, प्रस्थान करते समय अर्जुन से कह रखा था कि जहां तक हो सके प्राणहानि न होने पाए। तद्नुसार अर्जुन समझौते से काम लेता था। जहां किसी ने विरोध किया उसी से वह युद्ध करता था, लेकिन सोच संभलकर और जीत लेने पर यज्ञ में उपस्थित रहने का आमंत्रण देता जाता था। बाद में सिंधु देश को घोडा पहुंचा। वहां जयद्रथ का पुत्र सुरथ अर्जुन के आने का समाचार पाते ही आतंक से चल बसा। उसकी सेना का भी पराभव हो गया। तब जयद्रथ की पत्नी (धृतराष्ट्र की कन्या, दुर्योधन की भगिनी), दुःशला अपने छोटे पोते को लेकर अर्जुन के पास चली आई और उसने उसे अर्जुन के चरणों में रखा। अर्जुन ने उसकी सांत्वना की। बाद में घोड़ा मणिपुरनगर में पहुँचा। वहां ब्रभुवाहन राजा राज्य करता था। अर्जुन जब तीर्थयात्रा पर था। तब उसने वहां की चित्रांगदा और नागकन्या उलूपी से विवाह किया था। अर्जुन से चित्रांगदा को जो पुत्र हुआ वही वह था बभ्रुवाहन । अर्जुन के आगमन का समाचार सुनते ही अर्जुन के आगत स्वागत की सिद्धता करके वह अगवानी के लिए चला गया लेकिन अपने पुत्र की वह नम्रता अर्जुन को पसंद नहीं आई। अर्जुन ने उसकी निंदा की और कहा कि, "युद्ध में अपना सामर्थ्य बताओगे तभी मै तुझे सच्चा पुत्र मानूंगा।" तब भी वह युद्ध करना नहीं चाहता था, लेकिन उलूपी ने उसे युद्ध करने विवश किया। उस युद्ध में अर्जुन की मृत्यु होने पर उलूपी ने नागलोक में जाकर संजीवन मणि लेकर अर्जुन को जीवित किया। जीवित हो जाने पर अर्जुन ने उससे उसका कारण पूछा, तब उलूपी ने बताया कि भारतीय युद्ध में तुमने भीष्म पीतामह को अधर्म से मारा। तुमने शिखंडी को जब आगे किया तब भीष्म पितामह अपने रथ में पीठ फेर के बैठे रहे और तुमने शिखंडी की आड़ में खडे होकर भीष्मजी पर तीर चलाए। उससे अष्ट वसु क्षुब्ध होकर उन्होंने तुम्हें शापित किया था। मेरे पिताने जब उनकी प्रार्थना की और उन्हें मनाया तब उन्होंने बताया कि अर्जुन अगर वभ्रुवाहन के हाथों मृत्यु पाएगा तो यह शाप असर नहीं करेगा । इसलिये मुझे यह सब करना पडा । यह सुन लेने के बाद अर्जुन उन सबको यज्ञ का आमंत्रण देकर आगे बढ़ा। उसके पश्चात् घोडा मगध देश की राजधानी "राजगृह" में पहुंचा। वहां जरासंध के पोते, सहदेव के पुत्र मेधसंधि ने संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 121 For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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