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घोडे को रोका। उसे पराभूत करके, अर्जुन दक्षिण दिशा की तरफ मुडकर आंध्र, द्रविड, महिषक, कोल्लगिरि, गोकर्ण के राजाओं
को जीत कर पश्चिम समुद्र के तट से होकर सौराष्ट्र देश, प्रभासतीर्थ होकर द्वारका पहुंचा। वहां यादवों के पुत्र घोड़े को पकड रहे थे, पर उग्रसेन और वसुदेव ने उन्हें रोका। घोडा आगे चला और पंचनद (पंजाब) देश से होकर गांधार देश को पहुंचा। वहां शकुनि का पुत्र राज्य कर रहा था। उसे जीत लेने के बाद अर्जुन हस्तिनापुर की तरफ चल पड़ा।
धर्मराज ने भीमसेन को आदेश दिया कि यज्ञ में जो भी अतिथि अभ्यागत आ जाएंगे, उन सबका अच्छा प्रबन्ध कर दिया जाय। उनके आदेशानुसार यज्ञ मंडप खूब अच्छी तरह से सजाया गया। प्रतिदिन एक लाख ब्राह्मणों का भोजन होने पर नगाड़ा बजाना तय हुआ था। नगाडा दिनभर में कई बार बजाना पड़ता था।
उस यज्ञ के अंतिम काल में वहां एक नेवला पहुंचा। उसका आधा शरीर सोने का था। वह नेवला मनुष्य जैसा जोर से बोलने लगा, “कुरुक्षेत्र में रहनेवाले ब्राह्मण के एक सेर सत्तू की बराबरी भी वह यह यज्ञ नहीं कर सकता।" सुनकर वहां के ब्राह्मणों ने उससे उसका आशय पूछा। तब वह कहने लगा, “कुरुक्षेत्र में उंछवृत्ति का एक ब्राह्मण था। उसके एक स्त्री, एक पुत्र और पुत्रवधू थी। उन चारों को पर्याप्त धान्य शायद ही मिला करता था। एक बार ऐसे ही कई दिन अभुक्त रहने पर गरमी में उसे एक सेर सत्तू मिले। वैश्वदेव होने पर अतिथि वहाँ पहुँच गया। ब्राह्मण ने चार के लिए उस सत्तू को चार भागों में विभाजित किया था। उनमें से अपने हिस्से का एक भाग अतिथि को दे दिया। तब कहीं वह अतिथि तृप्त हो गया,
और उसने अपना सच्चा रूप भी प्रकट किया। वह साक्षात् यमधर्म था। उसने उस ब्राह्मण से कहा कि तूने जो यह दान कर्म बडे आनंद से किया, उससे तेरा नाम स्वर्ग लोक तक पहुंच गया है। उसके इतना कहते ही स्वर्ग से ब्राह्मण पर पुष्पवृष्टि हुई। स्वर्ग से उसको ले जाने एक विमान आ पहुंचा। उस विमान पर सवार होकर वह ब्राह्मण सपरिवार स्वर्ग में गया।
इतना कह लेने पर नेवला कुछ और बोला, “ब्राह्मण के पहुंचने पर मै अपने बिल से बाहर आ गया। वहां जो जूठा पड़ा मिला उसमें मैं लोटा। उसी क्षण उस ब्राह्मण के पुण्य से मेरा आधा शरीर स्वर्ण का हो गया। शेष आधा शरीर भी स्वर्ण का हो इस आशा से मै इस यज्ञ में पहुंचा। लेकिन निराशा ही हुई। मेरा बाकी आधा शरीर सोने का नहीं हो पाया है। इसलिए मेरा आशय यही है कि उस ब्राह्मण के एक सेर सत्तू की भी बराबरी इस यज्ञ को नहीं है। इतना कहकर नेवला वहांसे चल दिया।
15 आश्रमवासिक पर्व धर्मराज के राज्य करते पंद्रह साल बीत चुकने पर धृतराष्ट्र अरण्य में रहने चला गया। पंद्रह वर्षों में धर्मराज ने उसका उचित सम्मान रखा। उसकी अनुमति के बिना वह कोई भी कार्य नहीं करता था। दुर्योधन के समय धृतराष्ट्र की जो व्यवस्था थी उससे भी सुंदर व्यवस्था धर्मराज ने रखी। लेकिन भीमसेन धर्मराज के अनजाने धृतराष्ट्र को तीखे ताने कसता था। इसलिये पंद्रह सालों के बाद भीष्म, दुर्योधन आदि के श्राद्ध करके, विविध प्रकार के दान देकर सभी प्रजाननों से बिदा लेकर धृतराष्ट्र ने अरण्यवास के लिए प्रस्थान किया। साथ में गांधारी, कुन्ती, विदुर और संजय भी चले। पांडवों ने कुन्ती को बहुत मनाया कि वह जंगल न चली जाए लेकिन उसने नहीं माना। धृतराष्ट्र राजा उन सबके साथ कुरुक्षेत्र पहुंचा। वहां केकय देश के राजा शतयूप का आश्रम था। उस राजा को साथ लेकर धृतराष्ट्र व्यास महर्षि के आश्रम को चले गए। व्यास महर्षि से दीक्षा पाने के उपरान्त फिर शतयूप के आश्रम पहुंच कर धृतराष्ट्र तप करने लगे।
एक साल के बाद पांडव सभी स्त्रियों को साथ में लेकर धृतराष्ट्र से मिलने गये। उनके साथ हस्तिनापुर के बहुत से प्रजानन थे। पांडवों के वहां पहुंचने पर उन्हें विदुर दिखाई नहीं दिये। उनके संबंध में पूछताछ वे कर ही रहे थे। कि किसी पिशाच के समान विदुर दूर से आते दिखाई दिये। धर्मराज उनसे मिलने जब जाने लगे तब विदुर दौडते हुए दूर जंगल चले गए और एक पेड से सटकर खडे हो गए। धर्मराज के वहां जाने के बाद विदुर ने समाधि लगाई। उसके शरीर से निकला तेज धर्मराज के शरीर में प्रविष्ट हुआ। उससे धर्मराज को अनुभव हुआ कि अपना बल बढ़ा है। अनन्तर धर्मराज पुनः आश्रम लौट आये।
एक दिन व्यास महर्षि धृतराष्ट्र के निवास में पधारे। गांधारी की प्रार्थना पर युद्ध में जो मृत हुए थे उन सबसे सबकी भेंट गंगा में स्नान करने के बाद, व्यास महर्षि की कृपा से हो गई। एक रात रहने पर वे मृतात्मा गंगा के जल में लुप्त हो गये। अनन्तर व्यास महर्षि ने स्त्रियों से पूछा, "तुममें से किसी को अपने पति के साथ परलोक (पतिलोक) जाना हो तो इस गंगा के जल में प्रवेश करो।" यह सुनकर सभी विधवा स्त्रियों ने गंगा में प्रवेश कर अपने अपने पति के साथ स्वर्ग में सानंद प्रवेश किया। एक महिना वहां रहकर पांडव हस्तिनापुर लौट आए।
धृतराष्ट्र के जंगल गए तीन साल होने के उपरान्त नारद ऋषि धर्मराज के पास आकर रहने लगे। तुम्हारे धृतराष्ट्र से मिलकर, हस्तिनापुर लौट आने पर धृतराष्ट्र कुरुक्षेत्र से चलकर हरिद्वार आ पहुंचा। एक दिन स्नान करके आश्रम को लौटते समय चारों तरफ दावाग्नि भड़क उठी थी। तब धृतराष्ट्र ने संजय से कहा, "तू दावाग्नि से निकल जा। हम बहुत कृश हो
प्रजाच के समान विदुर दूर खडे हो गए। धर्मराजभव हुआ कि अपना बल
122 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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