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जल्हण - 13 वीं शती। रचना - सूक्तिमुक्तावली । जातुकर्ण्य - तीसरी या पांचवी शती के एक धर्मसूत्रकार । पिता- कात्यायन। गुरु- आसुरायण तथा यास्क। इनके एक शिष्य का नाम पारागर्व था। जातुकर्ण्य द्वारा रचित आचार तथा श्राद्ध संबंधी सूत्र अनेक व्यक्तियों के ग्रन्थों में बिखरे हुए मिलते हैं। विश्वरूप, अपरार्क, हलायुध तथा हेमाद्रि ने तथा स्मृतिचन्द्रिका, श्रौतसूत्र आदि ग्रन्थों में इनके सूत्रों का आधार लिया गया है। जितेन्द्रिय - समय ई. 11 वीं शती। वंगवासी। इनके नाम पर ग्रंथ उपलब्ध नहीं है। जीमूतवाहन के "कालविवेक" तथा रघुनन्दन के "दायतत्त्व" नामक ग्रंथों में जितेन्द्रिय के व्यवहार एवं उत्तराधिकार संबंधी मतों का उल्लेख है। जिनचन्द्र - दिल्ली की भट्टारक गद्दी के आचार्य। इन्होंने प्राचीन ग्रंथों की नयी नयी प्रतियां कराकर मंदिरों में प्रतिष्ठित की। जीर्णोद्धार किया। रचनाएं-सिद्धान्तसार और जिनचतुर्विंशतिस्तोत्र। इनके अतिरिक्त हिन्दी रचनाएं भी उपलब्ध हैं। बाघेरवाल जाति। जीवराज पापडीवाल ने जो वि. सं. 1548 में प्रतिष्ठा कराई थी, उसका आचार्यत्व शुभचन्द्र के शिष्य जिनचन्द्र ने ही किया था। जीवनकाल 91 वर्ष। जिनदास - आयुर्वेद के निष्णात पण्डित। चिकित्साशास्त्री। पिता रेखा। माता-रेखश्री। धर्मपत्नी-जिनदासी । पुत्र-नारायणदास। जिनदास के पिता रणस्तम्भ में बादशाह शेरशाह के द्वारा सम्मानित हुए। नवलक्षपुर के निवासी। समय ई. 16 वीं शती । रचना होलीरेणुका-चरित (वि. सं. 1608) 843 पद्य। जिनदासगणि - कोटिकगणीय, वज्रशाखी गोपालगणि महत्तर के शिष्य। समय वि. सं. 650-750। जिनदासगणि महत्तर ने जैन आगम ग्रंथों पर चूर्णियां लिखी हैं । नन्दीचूर्णि, अनुयोगद्वारचूर्णि, आवश्यकचूर्णि, दशवैकालिक-चूर्णि, उत्तराध्यायनचूर्णि, आचारांगचूर्णि, सूत्रकृतांगचूर्णि और व्याख्याप्रज्ञप्ति-चूर्णि। इन चूर्णियों की भाषा प्रायः प्राकृत बहुल संस्कृत है। उत्तराध्ययन चूर्णि और सूत्रकृतांग-चूर्णि में संस्कृत भाग अधिक है। कर्मप्रकृतिचूर्णि (7000 श्लोक प्रामण) शायद जिनदासगणि महत्तर की ही हो। जिनसेन (प्रथम) - ई. 8 वीं शती। जैन पंथी पुत्राटसंघ के आचार्य। गुरु-कीर्तिषेण। मूलतः दक्षिणवासी। रचना हरिवंशपुराण। (ई. 783)। रचनास्थान-वर्धमानपुर (वर्तमान धार जिले का बदनावर), जहां हरिषेण ने अपने कथाकोष की रचना की थी। रविषेण के पद्मचरित से प्रभावित । पौराणिक महाकाव्य में बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथ का चरित्र चित्रण तथा पाण्डवों और कौरवों का लोकप्रिय चरित्र भी सुंदरता के साथ अंकित है। कथावस्तु 36 सर्गों में विभक्त है। जिनसेन (द्वितीय) - ई. 9-10 वीं शताब्दी। बचपन में ही जैन पंथ की दीक्षा ली। गुरु का नाम वीरसेन और दादागुरु
का आर्यनन्दि। गुरुभाई का नाम जयसेन। उनके सतीर्थ दशरथ नामक आचार्य थे। उनके शिष्य गुणभद्र ने आदिपुराण के अवशिष्ट अंश को पूरा किया। जिनसेन का संबंध चित्रकूट, बंकापुर और बटग्राम से रहा है। राष्ट्रकूटवंशीय राजा अमोघवर्ष द्वारा सम्मानित रहे हैं। अतः जन्मस्थान महाराष्ट्र और कर्नाटक की सीमाभूमि अनुमानित की जा सकती है। ब्राह्मण कुल। रचनाएं-पार्वाभ्युदय (संदेशकाव्य), आदिपुराण और जयधवला टीका। पार्वाभ्युदय (ग्रंथार्गत जानकारी के अनुसार) कालिदास के मेघदूत नामक काव्य की समस्यापूर्ति है। इसमें 364 मन्दाक्रान्ता छन्द हैं। चौबीस जैन पुराणों में सर्वाधिक प्रसिद्ध 12 हजार श्लोकों वाले आदिपुराण में ऋषभदेव के दस पूर्व जन्मों की कथाएं वर्णित हैं। जयधवला टीका मूलतः वीरसेन (गुरु) की है, पर उनके स्वर्गस्थ हो जाने पर उसे जिनसेन ने पूरी की, जिसका प्रमाण चालीस हजार श्लोक हैं। जिनेन्द्रबुद्धि - ई. 8 वीं शती। बौद्ध पण्डित। “स्थविर जिनेन्द्र" तथा बोधिसत्त्वदेशीयाचार्य" के नामों से विख्यात । बंगाल के पाल राजा के समाश्रित। काशिका विवरण पंजिका (अपर नाम "न्याय") नामक पाणिनीय व्याकरण विषयक ग्रंथ के रचयिता । काशिका की टीकाओं में यह सर्वाधिक प्राचीन ग्रंथ है। जीमूतवाहन - समय - 1090-1130 ई. के बीच। स्थान - राढा। परिभद्रकुलोत्पन्न। बंगाल के राजा विष्वक्सेन की राजसभा में न्यायाधीश तथा बंगाल के प्रसिद्ध धर्मशास्त्रकार । इन्होंने कालविवेक, व्यवहारमातृका (न्यायमातृका) तथा दायभाग नामक तीन ग्रंथ लिखे हैं। "कालविवेक" में धार्मिक कृत्यों तथा संस्कारों के लिये उचित काल के विषय में विवेचन है। "व्यवहारमातृका" में न्यायालयीन कार्यपद्धति, न्यायालयों का संविधान, न्यायालयों का वर्गीकरण तथा अष्टादशाधिकार विधि का विवरण है। ___"दायभाग" में स्वामित्व, संपत्तिविभाजन, उत्तराधिकार, स्त्रीधन, विधवा-विवाह आदि विषयों का विवेचन है। इस ग्रंथ पर रघुनन्दन की टीका प्रसिद्ध है। कोलबुक ने इसका अंग्रेजी अनुवाद किया है। बंगाल के सभी न्यायालयों में दायभाग ग्रंथ प्रमाण माना जाता रहा। इसमें हिन्दू कानूनों का विस्तारपूर्वक विवेचन करते हुए अनेक विचार "मिताक्षरा" के विरुद्ध व्यक्त किये गए हैं। जीवगोस्वामी - समय लगभग 1575-1625 ई.। बंगाल में जन्म। भारद्वाज गोत्री यजुर्वेदी ब्राह्मण। गोडीय मतावलंबी, उद्भट विद्वान, भागवत के मर्मज्ञ तथा पाठादि के निमित्त बडे ही जागरूक टीकाकार। आपकी गणना गौडीय वैष्णव समाज के दैदीप्यमान रत्नों में की जाती है।
"दुर्गम संगमनी" टीका के आरंभ में इन्होंने अपने ज्येष्ठ पितृव्य सनातन एवं वल्लभ का निर्देश किया है।
बाल्यकाल में पिता का देहांत। अतः माता की देखरेख
328 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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