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और उन तीनों को मिलाकर "प्रस्थानत्रयी' कहते हैं। अर्थात् वैदिक धर्म का संपूर्ण स्वरूप यथार्थतया समझने के लिए संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषदों के साथ ही ब्रह्मसूत्र और भगवद्गीता का भी अध्ययन नितान्त आवश्यक है। संहिता, ब्राह्मण
और आरण्यक (अंशतः) प्रवृत्तिपर वैदिक धर्म की प्रस्थानत्रयी है और उपनिषद् ब्रह्मसूत्र और गीता निवृत्तिपर वैदिक धर्म की प्रस्थानत्रयी है। ऋक्संहिता, यजुःसंहिता और सामसंहिता को मिलाकर "त्रयी' कहते है।
2 ऋग्वेद संहिता प्रसिद्ध ज्योतिःशास्त्रज्ञ वराहमिहिर कहते हैं कि, "वेदो हि यज्ञार्थमभिप्रवृत्ताः' - अर्थात् वेदों की निर्मिति परमात्मा ने यज्ञों के लिए ही की है। यज्ञविधि में होता, अध्वर्यु, उद्गाता और ब्रह्मा नामक चार ऋत्विजों की आवश्यकता होती है और उन चारों का ऋग, यजुस्, साम और अथर्व वेद से यथाक्रम संबंध रहता है।
यज्ञविधिं के समय विशिष्ट देवताओं का प्रशंसापर मन्त्रों व्दारा आवाहन करनेवाले ऋत्विक् को "होता" कहते हैं। देवताओं के आवाहन के निमित्त आवश्यक मन्त्रों का संकलन जिस संहिता में हुआ है वही है ऋक्संहिता अथवा ऋग्वेद। "ऋच्यते-स्तूयते प्रतिपाद्यः अर्थः यथा सा ऋक्" - याने जिस मन्त्र द्वारा प्रतिपाद्य विषय का स्तवन किया जाता है उसे "ऋक्" कहते है। इन ऋचाओं का समूह याने ऋग्वेद - (ऋचां समूहो ऋग्वेदः।) ऋग्वेद संहिता में सभी मन्त्र पादबद्ध अथवा छन्दोबद्ध होते है।
इस ऋग्वेद का सूक्त और मण्डल रूप में विभाजन शाकल ऋषि ने किया। "सूक्त" याने जिन मन्त्रों में ऋषि की कामना संपूर्णतया व्यक्त होती है ऐसा मन्त्रात्मक स्तोत्र- (संपूर्णऋषिकामं तु सूक्तमित्यभिधीयते। - बृहद्देवता)
वैदिक सूक्त चार प्रकार के होते हैं : (1) ऋषिसूक्त - अर्थात एक ही ऋषि के मंत्रों का समूह । (2) देवतासूक्त - अर्थात् एक ही देवता की स्तुति का मन्त्रसमूह। (3) अर्थसूक्त - अर्थात् एक विशिष्ट अर्थ की समाप्ति तक के मंत्रों का समूह । और (4) छन्दःसूक्त - अर्थात् समान छन्द के मंत्रों का समूह।
ऋग्वेद का विभाजन और भी दो प्रकार से किया गया है: (1) मण्डल, अनुवाक् एवं सूक्त और (2) अष्टक, अध्याय, वर्ग। संपूर्ण ऋग्वेद संहिता में 10 मण्डल, 85 अनुवाक् और 1017 सूक्त हैं। अथवा 8 अष्टक, 64 अध्याय और 208 वर्ग विद्यमान हैं। सारे मंत्र 15 छंदों में रचित हैं जिनमें गायत्री, उष्णिक्, अनुष्टुप, पंक्ति, बृहती और जगती प्रमुख माने जाते हैं। संपूर्ण मंत्रों की संख्या है 10580 शब्दों की संख्या है 1,53,826 और अक्षरों की संख्या 4,32,000 है। ऋग्वेद का प्रारंभ अग्निसूक्त से और अंत संज्ञानसूक्त से होता है।
- ऋग्वेद के द्रष्टा ऋग्वेद में अनेक ऋषियों का निर्देश हुआ है। भारतीय परंपरा के अनुसार ऋषि मंत्रों के "द्रष्टा" हैं, रचयिता नहीं [ऋषयो मन्त्रद्रष्टारः । ऋषिर्दर्शनात् (यास्काचार्य)] ऋग्वेद के ऋषिगण अन्यान्य कुटुंबों से संबंधित हैं। केवल प्रथम और दशम मण्डल में अन्यान्य परिवार के ऋषि के मंत्र संगृहीत किए हुए हैं।
आठवे मण्डल में कण्व और अंगिरा ऋषि के मंत्र हैं। इस मण्डल में “प्रगाथ"- नामक छंद का प्राधान्य होने के कारण, इस मण्डल के ऋषियों को "प्रगाथ" कहते हैं।
नवम मण्डल में सोमविषयक मंत्रों का संग्रह है। सोम को "पवमान" याने पावन करनेवाला कहते हैं। अतः इस मण्डल को “पवमान मण्डल" कहते हैं।
दशम मण्डल में अन्यान्य कुलों के ऋषियों के मंत्रों का संग्रह है। इस मण्डल में केवल देवतास्तुति के अतिरिक्त अन्य विषयों का भी समावेश हुआ है। द्वितीय मण्डल से सप्तम मण्डल तक एक एक कुल के ही ऋषियों मे मन्त्रों का संग्रह है। जैसे :- मण्डल 2-गृत्समद्। 3-विश्वामित्र। 4-वामदेव। 5-अत्रि। 6-भारद्वाज। 7-वसिष्ठ। __ कुछ अन्वेषकों के मतानुसार ऋग्वेद का दशम मण्डल उत्तरकालीन माना जाता है। पहले और दसवे मण्डल के सूक्तों की संख्या प्रत्येकशः 191 है।
व्यासकृत चरणव्यूह नामक ग्रंथ में (जिस पर महीदास की महत्त्वपूर्ण टीका उपलब्ध है) ऋग्वेद की पाच शाखाएं बताई हैं:- (1) शाकल, (2) बाष्कल, (3) आश्वलायन, (4) शांखायनी और (5) माण्डूकेयी। इनमें से आज शाकल और बाष्कल शाखा की ही संहिता उपलब्ध है।
ऋग्वेद संहिता निर्माण होने के पश्चात् उसे शुद्ध स्वरूप में सुरक्षित रखने के लिए तथा अर्थज्ञान के लिए उसका "पदपाठ" तैयार करने का कार्य शाकल्य ऋषि ने किया। शाकल्य का समय, निरुक्तकार यास्क (ई. 3 शती) और ऋप्रातिशाख्यकार शोनक (ईसा पूर्व) से भी प्राचीन माना जाता है। इस का कारण यही है कि, यास्काचार्य ने शाकल्य के वचन उद्धत किए हैं और ऋप्रातिशाख्य की रचना शाकल्य के पदपाठ पर ही आधारित है।
ऋग्वेद के सूक्तों में मन्त्रों की संख्या 3 से 58 तक है। तथापि सामान्यतः प्रत्येक सूक्त की मंत्रसंख्या 10 से 13 तक दिखाई देती है।
स्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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