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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वेदों में विकृतता निर्माण नहीं हुई। वेदों का रक्षण एवं वेदार्थ की मीमांसा के उद्देश्य से "अनुक्रमणी" नामक सूची ग्रंथों की रचना हुई। इसके द्वारा किसी भी मंत्र के ऋषि, देवता और छंद का पता मिलता है। शौनक की अनुवाकानुक्रमणी और कात्यायन की सर्वानुक्रमणी ग्रंथ प्रसिद्ध हैं। माधवभट्ट ने भी दो सर्वानुक्रमणियां लिखीं। यजुर्वेद की शुक्लयजुः सर्वानुक्रमणी, अथर्ववेद की बृहत्सर्वानुक्रमणी और सामवेद की अनेक अनुक्रमणियां विद्यमान हैं।' वेदों की उत्पत्ति के विषय में प्राचीन ग्रंथों में एकवाक्यता नहीं दिखाई देती। एक मत है कि वेद परमात्मा के मुख से निकले शब्द हैं। पुराणवाङ्मय में इसी दृष्टि से आविर्भूत, विनिःसृत उत्सृष्ट आदि शब्दों का प्रयोग किया गया है। परंपरा के अनुसार ब्रह्मा के चार मुखों से चार वेदों का निर्माण माना जाता है। ब्रह्मा को ही प्रजापति कहा गया है। उनका हुंकार प्रथम ऋषियों ने सुना इसलिये उसे "श्रुति' कहा गया। वेद शब्दरूप होने से आकाश से उत्पन्न हुए, यह भी एक मत है। शब्द, आकाश का ही गुण है। हृदयाकाश या चिदाकाश से जो दिव्य वाणी प्रकट हुई, वही वेद कहलाई। यह वाणी तपस्या में निमग्न ऋषियों के अंतःकरण में प्रकट हुई - इसी कारण वेदों की स्फूर्ति जिन ऋषियों को हुई, वे मंत्रों के द्रष्टा थे (रचयिता नहीं) यह माना जाता है। विष्णुपुराण में वेदों का प्रवर्तन विष्णु भगवान द्वारा कहा है। अन्य पुराणों में यह भी उल्लेख है कि वेद की प्राप्ति वामदेव याने शिव से हुई । शिव के जो पांच मुख हैं, उनमें एक वामदेव है। ऋक्, यजुस्, साम का मूलस्थान भी रूद्र ही है। कई पुराणों में, वेदों की निर्मिति ओंकार या प्रणव से मानी गई है। शिवपुराण (7, 6, 27) के अनुसार अ, उ, म् और सूक्ष्म नाद से ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद एवं अथर्ववेद निर्माण हुए। भगवद्गीता (7, 8) के अनुसार सारा वाङ्मय ही ओंकार से निर्मित है। महाभारत में भी कहा गया है कि पहले वेद एक मात्र था। वह ओंकारस्वरूप था। देवीमाहात्म्य में देवी को यह श्रेत्र दिया गया है । मत्स्यपुराण में गायत्री को वेदमाता माना गया है। कुछ पुराणों में सूर्य से वेदों की उत्पत्ति कही गई है। प्रारंभिक अवस्था में वेद एकमात्र था। भगवान व्यास ऋषि ने यज्ञविधि के अनुसार उस का चार भागों में विभाजन किया। इसी कारण उन्हें "वेदव्यास" (याने वेदों का विभाजन अथवा विस्तार करने वाले) कहते हैं। चारों वेदों का मण्डल, अष्टक, वर्ग, सूक्त, अनुवाक्, खण्ड, काण्ड, प्रश्न, छंद इत्यादि विविध प्रकारों से वर्गीकरण किया गया। गद्य और पद्य भाग के प्रत्येक अक्षर का परिगणन हुआ। सब प्रकार के धार्मिक कर्मों में वेदमंत्रों का यथोचित विनियोग कर, वैदिक हिंदुओं ने वेदों को अपनी जीवनपद्धति में महत्वपूर्ण स्थान दिया। संहिता और ब्राह्मण "मन्त्र-ब्राह्मणयोः वेदनामधेयम्" इस वचन के अनुसार मन्त्र और ब्राह्मण स्वरूप वाङ्मय को वेद कहते हैं। मन्त्रों के समुच्चय को "संहिता' कहते हैं। अर्थात् संहिता और ब्राह्मण ग्रन्थ मिलाकर वेदवाङ्मय होता है। "ब्राह्मण' - नामक ग्रन्थों में संहिता के मन्त्रों का सविस्तर विवरण किया गया है। यज्ञयागों का सविस्तर प्रतिपादन यही ब्राह्मण ग्रन्थों का मुख्य उद्देश्य है और उसी दृष्टि से उनमें वेदों का विवरण किया है। ब्राह्मण ग्रंथों के तीन विभाग होते हैं- (1) ब्राह्मण, (2) आरण्यक और (3) उपनिषद्। इस प्रकार संपूर्ण वैदिक वाङ्मय में (1) मंत्र संहिता (2) ब्राह्मण, (3) आरण्यक और (4) उपनिषद् इनका मुख्यतः अन्तर्भाव होता है। प्रतिपाद्य विषय की दृष्टि से वेदों के दो विभाग माने जाते हैं :- (1) कर्मकाण्ड और (2) ज्ञानकाण्ड। संहिता, ब्राह्मण और अंशतः आरण्यक इनमें प्रमुखतया वैदिक कर्मकाण्ड का और उपनिषदों में केवल ज्ञानकाण्ड का प्रतिपादन मिलता है। इस चतुर्विध वैदिक वाङ्मय का मानवी जीवन के, ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास इन चार आश्रमों से संबंध जोडा जाता है। ब्रह्मचर्याश्रम में संहिताओं का पठन, गृहस्थाश्रम में, ब्राह्मण ग्रन्थानुसार यज्ञ-यागादि कर्मों का आचरण, वानप्रस्थाश्रम में अरण्यवास करते हुए, आरण्यकों के अध्ययन द्वारा यज्ञ के आध्यात्मिक स्वरूप का आकलन और संन्यास आश्रम में कर्मकाण्ड का परित्याग कर उपनिषदों का श्रवण, मनन, और निदिध्यासन करते हुए, परम पुरुषार्थ (मोक्ष) की प्राप्ति, इस प्रकार चतुर्विध वेदवाङ्मय का जीवन की चतुर्विध अवस्थाओं से वैदिकों ने संबंध जोडा था। श्रीशंकराचार्य के अनुसार, वैदिक धर्म प्रवृत्तिपर और निवृत्तिपर माना हुआ है। (द्विविधो हि वैदिको धर्मः प्रवृत्तिलक्षणः निवृत्तिलक्षणः च) वैदिक वाङ्मय की संहिता और ब्राह्मणों का प्रवृत्तिपर धर्म से और आरण्यक (अंशतः) तथा उपनिषदों का निवृत्तिपर धर्म से संबंध माना गया है। प्रस्थानत्रयी उपनिषद् वाङ्मय, वेदों का अन्तिम भाग होने के कारण, उसे 'वेदान्त' भी कहते हैं। बादरायण व्यास ऋषि ने उपनिषदों को व्यवस्थित रूप देने के लिए ब्रह्मसूत्र अथवा शारीरक सूत्रों की रचना की। श्रीमद्भगवद्गीता में भी (ब्रह्मसूत्रों के समान) उपनिषदों का सार-सर्वस्व समाविष्ट होने के कारण, वेदान्त वाङ्मय में उपनिषदों के साथ ब्रह्मसूत्र और भगवद्गीता का भी अन्तर्भाव होता है संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड/7 For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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