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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शिष्य कमलशील द्वारा उल्लिखित। समय-लगभग ई. 8 वीं शताब्दी। प्रमाण और नय के विशिष्ट विद्वान्। सुमतिकीर्ति - इनके गुरु-ज्ञानभूषण ने कर्मकाण्ड की टीका सुमतिकीर्ति की सहायता से प्रस्तुत की। रचनाएं- कर्मकाण्डटीका और पंचसंग्रहटीका। इनके अतिरिक्त इनकी कुछ हिन्दी रचनाएं भी उपलब्ध हैं। सुमतीन्द्र - रचना-सूमतीन्द्र-जयघोषणा। सुरीन्द्रतीर्थ और वेंकटनारायण के शिष्य। माध्वसम्प्रदायी। इन्होंने शाहजी-स्तवन के लिये यह रचना की थी। राजा ने तिरुवाडमरुदूर नामक ग्राम में इन्हें "ठ प्रदान किया। सुमित्र कौत्स - ऋग्वेद के दसवें मंडल के 105 वें सूक्त के द्रष्टा। इन्द्र की स्तुति में रचे गए इस सूक्त में इन्द्र की यज्ञप्रियता, भक्तों पर वह कैसे कृपादृष्टि रखता है तथा द्वेष करने वालों के लिये वह किस प्रकार घातक है आदि का विवरण दिया गया है। इनकी एक ऋचा इस प्रकार है : अप योरिन्द्रः पापज आ मर्तो न शश्रमाणो बिभीवान्। शुभे यधुयुजे तविषीवान्।। अर्थात् - पातक के कारण जो वासनाएं उत्पन्न होती हैं, इन्द्र उनका नाश करता है। मर्त्य (मानव) का स्वभाव कुछ ऐसा है कि वह परिश्रम नहीं करना चाहता साथ ही वह डरपोक भी है परन्तु यदि मनुष्य शुभकार्य की ओर प्रवृत्त होगा तो वह बडा धैर्यवान् बनेगा। सुरेन्द्रमोहन पंचतीर्थ - ई. 20 वीं शती। कलकत्ता-निवासी। कृतियां- वैद्यदुर्घह, कांचनमाला, पंचकन्या, प्रजापतेः पाठशाला, अशोककानने जानकी, वणिक्सुता आदि कई बालोचित लघु नाटक। सुरेश्वर - ई. 11 वीं शती। अपर नाम सुरपाल। बंगालनरेश रामपाल के अंतरंग वैद्य। पिता-भद्रेश्वर। "शब्दप्रदीप" नामक आयुर्वेदिक वनस्पतिकोश के कर्ता। अन्य- कृतियां - वृक्षायुर्वेद और लोहपद्धति । सुरेश्वराचार्य - ई. 8 वीं शती। श्रीशंकराचार्य के प्रमुख चार शिष्यों में से एक। पूर्वाश्रम में इनका नाम विश्वरूप था। यह माना जाता था कि सुरेश्वराचार्य मंडनमिश्र का चतुर्थाश्रमी नाम है। मंडनमिश्र कर्मकांडी मीमांसक थे जिन पर वादविवाद में शंकराचार्य ने विजय पायी है और उन्हें संन्यास-दीक्षा देकर उनका नाम सुरेश्वराचार्य रखा। इस प्रकार की जानकारी "शांकर-दिग्विजय" में दी गयी है। किन्तु हाल में किये गये संशोधन से यह तथ्य सामने आया है कि मंडन-मिश्र और सुरेश्वराचार्य, पृथक् तथा भिन्नकाल थे। शंकराचार्य के आदेशों पर सुरेश्वराचार्य ने तैत्तिरीययोपनिषद्-भाष्य, बृहदारण्यक-भाष्य, दक्षिणामूर्तिस्तोत्र, पंचीकरण आदि ग्रंथों पर वार्तिकों की रचना की। इनके अलावा नैष्कर्म्य-सिद्धि नामक एक स्वतंत्र ग्रंथ भी आपने लिखा। इसमें उन्होंने अविद्या के लक्षणों पर प्रकाश डाला है। सुवेदा शैरिषी - शिरिष के पुत्र ऋग्वेद के 10 वें मण्डल के 147 वें सूक्त के द्रष्टा । इस सूक्त का विषय है इन्द्रस्तुति । सुश्रुत - एक आयुर्वेदाचार्य तथा शल्यतंत्र-वेत्ता। इनके निश्चित काल की जानकारी उपलब्ध नहीं है, तथापि ये वाग्भट के पूर्व तथा अग्निवेश के समकालीन रहे होंगे। पाणिनि ने अपनी अष्टाध्यायी में "सौश्रुतपार्थवाः" नामक पाठ लिखा है। इससे यह अनुमान लगाया जाता है कि सुश्रुत पाणिनि के पूर्वकाल में रहे होंगे। "सुश्रुतसंहिता" से पता चलता है कि ये विश्वामित्र के पुत्र थे, किन्तु एक अन्य मतानुसार सुश्रुत को शालिहोत्र का पुत्र माना गया है। इस सन्दर्भ में लक्षण-प्रकाश में कहा है कि शालिहोत्र नामक ऋषिश्रेष्ठ से सुश्रुत प्रश्न करता है और इस प्रकार पुत्र द्वारा प्रश्न किये जाने पर शालिहोत्र कहता है। सुश्रुत ने शस्त्र-शास्त्र की विद्या दिवोदास से प्राप्त की और "सुश्रुतसंहिता" नामक ग्रन्थ लिखा। इसके पांच विभाग हैंसूत्रस्थान, निदानस्थान, शरीरस्थान, चिकित्सास्थान और कल्पस्थान । शस्त्रोपचार तथा व्रणोपचार विषयक विस्तृत जानकारी इसमें दी गई है। वैद्यकी-क्षेत्र में त्वचारोपण-तंत्र के भी सुश्रुत अच्छे जानकर थे। सुश्रुत-संहिता में आगे चलकर "उत्तरस्थान" नामक एक और विभाग जोडा गया है। इसे मिलाकर इस ग्रंथ को "वृद्धसुश्रुत" कहा जाने लगा। सहस्त्य घौषेय - घोषा के पुत्र । ऋग्वेद के 10 वें मंडल के 41 वें सूक्त के द्रष्टा। इस सूक्त की देवता अश्विनी है। सुहोत्र - भारद्वाज के पुत्र। ऋग्वेद के 6-31-32 वें सूक्तों के द्रष्टा। इन्द्र इन सूक्तों की देवता है। सूर्य दैवज्ञ . ई. 15 वीं शती। सामभाष्यकार। इनके ग्रंथ अनुपलब्ध हैं। ग्रंथकार ने "परमार्थप्रपा' नामक अपने गीताभाष्य में कई बार सामसंबंधी अनेक मंत्र और ग्रंथ उद्धृत किये हैं। उनका रावण-भाष्य पर बडा विश्वास था। ग्रंथकार ने भक्तिशतक और शतश्लोक-भाष्य नामक दो ग्रंथ रचे थे। सूर्यनारायण - अलूरिकुलोत्पन्न । माता-ज्ञानम्बा व पिता-यज्ञेश्वर । इन्होंने “एकदिन-प्रबन्धः" नामक काव्य की रचना एक ही दिन में की थी। यह इसकी विशेषता है। काव्य का वर्ण्य विषय है महाभारत की कथा। सूर्यनारायणाध्वरी - ई. 19-20 वीं शती। "सीता-परिणय" नामक काव्य के रचयिता।। सोंठीभद्रादि रामशास्त्री . ई. 1856 से 1915। पीठापुरम् (आंध्र) के निवासी । रचना-शम्बरासुरविजय-चम्पू, श्रीरामविजयम् काव्य और मुक्तावली नाटिका। सोल - समय-ई. 13 वीं शताब्दी का मध्य। आयुर्वेद विषयक "गदनिग्रह" व "गुणसंग्रह" नामक दो ग्रंथों के प्रणेता। ये गुजरात के निवासी तथा जोशी थे। गद-निग्रह संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड । 487 For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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