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थे । इन्द्र-अर्जुन संवाद के रूप में भारवि ने अपना जीवनविषयक दृष्टिकोण अर्जुन के मुख से कहलवाया है जब अर्जुन ने इंद्र से शस्त्रों की मांग की तब इंद्र कहते हैं- 'शस्त्र क्या मांगते हो, मोक्ष मांगों। इस पर अर्जुन कहता है 'मुझ जैसे क्षत्रिय को विशेषतः अपमानदंश से दग्ध क्षत्रिय को यह उपदेश मत दो। जब तक में अपने शत्रुओं का विनाश कर वंश की कीर्ति को उज्ज्वल नहीं करता, तब तक यदि मुझे तुम्हारा मोक्ष प्राप्त हो भी गया, तो मेरी विजयसिद्धि के मार्ग में वह एक रोडा ही सिद्ध होगा' ।
इनके विषय में निम्र
प्रचलित है
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भारवि की पत्नी ने एक बार घर के दारिद्र के बारे में पति को उलाहना दिया । पत्नी की बात उनके हृदय को चुभी । वे गृहत्याग कर निरुद्देश्य चल पडे। मार्ग में एक तडाग के किनारे विश्राम के लिये बैठे। वहां उन्हें निम्न श्लोक स्फुरित हुआ
"सहसा विदधीत न क्रियामविवेकः परमापदां पदम् ।
वृणते हि विमृश्यकारिणं गुणलुब्धाः स्वयमेव सम्पदः ।। " अर्थ- कोई भी कार्य बिना सोचे-समझे नहीं करना चाहिये क्यों कि अविचार सभी अनर्थो की जड है। विवेकी पुरुष के गुणों पर मोहित होकर लक्ष्मी स्वयं उसे वरण करती है।
जैसे ही उपयुक्त श्लोक भारवि के मुख से बाहर निकला, निकटवर्ती राजधानी से मृगयार्थ आये हुए एक राजा ने उसे सुना। वे प्रसन्न हुये तथा उन्होंने भारवि को दूसरे दिन राजसभा में उपस्थित रहने का आमंत्रण दिया। तदनुसार भारवि राजप्रासाद के द्वार पर पहुंचे। द्वारपाल ने उन्हें चीथड़ों में देखकर भीतर प्रवेश करने की अनुमति नहीं दी।
राजा ने भारवि का वह श्लोक अपने शयनकक्ष में सुवर्णाक्षरों में अंकित करवाया ।
एक बार राजा मृगया से रात को बहुत देरी से लौटे तथा सीधे अपने शयनकक्ष में पहुंचे। उन्होंने पर्यंक पर रानी को किसी युवा पुरुष के साथ लेटे हुए देखा। उन्हें अत्यंत क्रोध हुआ। उन्होंने दोनों का शिरच्छेद करने के लिये खड्ग उठाया। उसी समय उनकी दृष्टि उस श्लोक पर पडी । अतः उन्होंने रानी को जगा कर उस युवक के विषय में पूछताछ की। रानी ने कहा "बीस वर्ष पूर्व खोया हुआ यह अपना पुत्र आज ही अचानक आया है। देखो, कैसा शांति से सो रहा है।" राजा ने अनुभव किया कि उस श्लोक के कारण ही उनके हाथों अविवेकपूर्ण कृति नहीं हुई। अतः उन्होंने भारवि को ढूंढ निकाला तथा उन्हें विपुल धन से पुरस्कृत किया ।
भारवि ने एकमात्र महाकाव्य 'किरातार्जुनीय' की रचना की है, जिसमें 'महाभारत' ( वनपर्व) के आधार पर अर्जुन व किरात - वेषधारी शिव के युद्ध का वर्णन है । 'किरातार्जुनीय', संस्कृत के प्रसिद्ध पंचमहाकाव्यों में गिना जाता है। भारवि
के संबंध में सुभाषित-संग्रहों में कतिपय प्रशास्तियां प्राप्त होती है।
भारवि ने अपने महाकाव्य में एक नयी शैली तथा नयी प्रवृत्ति का सूत्रपात किया जिसका अनुकरण माघ, रत्नाकर, भट्टि आदि परवर्ती कवियों ने किया है।
अनुमान है कि दंडी तथा भामह ने आदर्श महाकाव्य के जो लक्षण बताये हैं, वे भारवि के किरातार्जुनीय महाकाव्य पर आधारित हैं।
भावभट्ट संगीतशय जर्नादन भट्ट के पुत्र । गायक तानभट्ट के पौत्र, बीकानेर के राजा अनूपसिंह (ई.स. 1674 से 1709) के आश्रित रचनाए-अनुपसंगीत-विलास, अनूप-संगीतरत्नाकर, अनुपसंगीतकुश । मुद्रित संगीत-विनोद, मुरली - प्रकाश, नष्टोद्दिष्टप्रबोधक, धौवपद टीका ।
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भावमिश्र ई. 16 वीं शती । एक सुप्रसिध्द वैद्यकशास्त्रज्ञ । पिता - श्री मिश्र लटक । बहुधा कन्नौज निवासी। "भावप्रकाश” नामक ग्रंथ के रचयिता । इस ग्रंथ के पूर्व लिखे गये वैद्यकशास्त्र के ग्रंथों में जिन औषधि वनस्पतियों तथा व्याधियों का उल्लेख नहीं हुआ था, उनका इस ग्रंथ में वर्णन मिलता है। "भावप्रकाश" की गणना, आयुर्वेदशास्त्र की लघुत्रयी के रूप में होती है। भावमिश्र ने 'गुणरत्नमाला' नामक एक चिकित्सा-विषयक ग्रंथ की भी रचना की थी, जो हस्तलेख के रूप में इंडिया ऑफिस पुस्तकालय में है । भावविजयगणि जैनपंथी तपागच्छीय मुनि विमलसूर के शिष्य । समय- ई. 17 वीं शती ग्रंथ- उत्तराध्ययन-व्याख्या (वि.सं. 1689 ) । यह व्याख्या कथानकों से भरपूर और पद्यबद्ध है। भावविवेक - ( भव्य या भाविवेक) बौद्ध न्याय में स्वतन्त्र मत के उद्भावक । माध्यमिक सिद्धान्तों की सत्ता सिद्ध करने के लिये स्वतन्त्र प्रमाण उपस्थित करने से प्रतिपक्षी स्वयं परास्त होता है, यह इनकी मान्यता रही। इनकी रचनाएं मूल संस्कृत में अनुपलब्ध चीनी तथा तिब्बती अनुवादों से शत रचनाएं (1) माध्यमिक कारिका - व्याख्या (2) मध्यमहृदयकारिका, (3) मध्यमार्थ संग्रह और (4) हस्तरत्र । भावसेन त्रैविद्यई. 13 वीं शती। जैनपंथी मूलसंघ सेनगण के आचार्य । कर्नाटकवासी। व्याकरण, दर्शन और सिद्धान्त इन तीन विद्याओं में निपुण अतः त्रैविध कहलाये। वादीभकेसरी, वादिपर्वत आदि विशेषण प्राप्त रचनाएं 1. प्रभाप्रमेव, 2. कथाविचार, 3. शाकटायन-व्याकरण टीका, 4. कातन्त्ररूपमाला, 5. न्यायसूत्रावली, 6. भुक्ति-मुक्ति-विचार, 7. सिद्धान्तसार, 8. न्यायदीपिका, 9. सप्तपदार्थी टीका, 10. विश्वतत्त्वप्रकाश ।
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भास
समय - ई. पू. चौथी व पांचवी शती के बीच । इन्होंने 13 नाटकों की रचना की है जो सभी प्रकाशित हो चुके हैं। इनके सभी नाटकों का हिन्दी अनुवाद व संस्कृत टीका
संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड / 397
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