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के समान है। अतः इसमें तत्कालीन नाट्यकला एवं संगीत आदि आनुषंगिक कला विषयक भरपूर जानकारी प्राप्त होती है। विषयों की विविधता के कारण प. बलदेव उपाध्याय, डा. गो. के. भट जैसे विद्वान नाट्यशास्त्र को एककर्तृक नहीं मानते। भरत मुनि ने दी हुई नाट्यमंडप अथवा प्रेक्षागृह विषयक जानकारी, उस प्राचीन काल की शिल्पकला की परिचायक है। पाश्चात्य विद्वानों के मतानुसार नाट्यगृहों की कल्पना भारतीयों ने ग्रीक सभ्यता से ली होगी, क्यों कि प्राचीन भारत में नाट्यप्रयोग प्रायः राजसभा में अथवा मंदिरों में होते थे। भरत नाट्यशास्त्र में उपलब्ध नाट्यगृह विषयक विवेचन से पाश्चात्य विद्वानों के मत का अनायास ही खंडन होता है।
नाट्यशास्त्र में विकृष्ट (लंब चतुष्कोणी) चतुरस्र (चतुष्कोणी) और त्र्यस्त्र (त्रिकोणी ) नाट्यगृह का वर्णन दिया है। इनके भी प्रत्येकशः जेष्ठ, मध्यम और कनिष्ठ प्रकार बताए हैं। नाट्यगृह के चार स्तंभों को ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र संज्ञाएं थीं। प्रेक्षागृह में रंगपीठ, रंगशीर्ष और मत्तवारणी नामक विभाग कलाकारों के उपयोग के लिए रखे जाते थे पर्दा रहता था। रंगभूमि पर दो पर्दे लगा कर, उनसे तीन विभाग करने की प्रथा थी। संगीत चूडामणि, मानसार इत्यादि ग्रंथों में भी नाट्यगृहों का वर्णन मिलता है परंतु उनका प्रमाण नाट्यशास्त्र के प्रमाण से भिन्न था।
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दशरूपक : भरत नाट्यशास्त्र के बाद लिखे हुए नाट्यविषयक ग्रंथों में दशरूपक एक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। रूपक अर्थात् दृश्यकाव्य को ही प्रतिपाद्य विषय मानकर, भरतकृत नाट्यशास्त्र के आधारपर इस ग्रंथ की रचना विष्णुपुत्र धनंजय ने की है। धनंजय, मालव देश के परमारवंशीय राजा मुंज के समकालीन (ई. 10 वीं शती) थे। दशरूपक पर विष्णुपुत्र धनिक ने "अवलोक" नामक टीका लिखी है। अर्थात् धनंजय और धनिक सहोदर थे।
प्रतापरुद्वीय : दशरूपक के आधार पर विद्यानाथ ने प्रतापरुद्रीय अथवा प्रतापरुद्रयशोभूषण नामक ग्रंथ लिखा है। इस संपूर्ण ग्रंथ का विषय है साहित्यशास्त्र, परंतु उसके पांचवे भाग में, ग्रंथकार ने एक पंचांकी नाटक उदाहरण के लिए प्रस्तुत किया है, जिसमें अपने आश्रयदाता, वरंगळ के काकतीय वंश के राजा प्रतापरुद्र (ई. 13-14 वी शती) की भूरि भूरि प्रशंसा की है। साहित्यदर्पण: मम्मटाचार्य के काव्यप्रकाश के समान कविराज विश्वनाथ का यह ग्रंथ साहित्यशास्त्र के विविध अंगोपांगों का विवेचन करता है। परंतु काव्यप्रकाश के समान इसमें नाट्य विषयक चर्चा की उपेक्षा नहीं हुई हैं। साहित्यदर्पण के तीसरे और छठें परिच्छेद में, नाट्यशास्त्र की सोदाहरण चर्चा विश्वनाथ ने की है। यह सारा प्रतिपादन, नाट्यशास्त्र और मुख्यतः दशरूपक पर आधारित है। विश्वनाथ के पितामह का नाम था नारायण और पिता चंद्रशेखर “सांधिविग्रहिक महापात्र', उपाधि से विभूषित थे जगन्मोहन शर्मा के मतानुसार विश्वनाथ ने पूर्व बंगाल में (आधुनिक बांगला देश में) सन् 1500 में ब्रह्मपुत्रा के किनारे रहते हुए साहित्यदर्पण की रचना की। बरो नामक पाश्चात्य विद्वान ने विश्वनाथ का समय 12 वीं शती माना है। म.म. भारतरत्न पांडुरंग वामन काणे ने विश्वनाथ का आविर्भाव काल 14 वीं शती सिद्ध किया है। काव्यप्रकाशदर्पण नामक काव्यप्रकाश की टीका, विश्वनाथ ने लिखी है, जिसमें अनेक संस्कृत शब्दों के अर्थ उडिया भाषा में बताये गए हैं। विश्वनाथ के उत्कलदेशी होने का यह प्रबल प्रमाण हो सकता है।
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इनके अतिरिक्त सागरनंदी (11 वीं शती) कृत नाटकलक्षण - रत्नकोश, हेमचंद्र का काव्यानुशासन, रामचंद्र गुणचंद्र ( हेमचंद्र के शिष्य) का नादर्पण (जिस में धनंजय के मतों का खंडन किया है।) रुय्यक (रुचक) कृत नाटकमीमांसा, भोजकृत सरस्वतीकण्ठाभरण तथा शृंगारप्रकाश और शारदातनयकृत भावप्रकाश ग्रंथ नाट्यशास्त्रीय वाङ्मय में उल्लेखनीय हैं। श्री रूपगोस्वामी (16 वीं शती), कामराज दीक्षित (17 वीं शती) नरसिंह सूरि (18 वीं शती) और कुरविराम ने भी नाट्यविषयक चर्चा अपने अपने ग्रंथों में की है।
नाट्य शास्त्र विषयक विविध ग्रंथों में 1 ) प्रतिपाद्य विषय एक ही होने के कारण और 2) उनका मूलस्रोत प्रायः एक ही होने के कारण, विषय के विवेचन में समानता है। कहीं कहीं किंचित् मतभेद मिलता है। जैसे रूपक के दस प्रकार भरत, धनंजय, विद्यानाथ, विश्वनाथ शिंगभूपाल और शारदातनय मानते हैं परंतु नाटिका और सड़क को मिला कर भोज और हेमचंद्र बारह प्रकार मानते हैं । किन्तु नाटिका और त्रोटक के सहित सागरनंदी बारह भेद मानते हैं तो नाटिका और प्रकरणिका के साथ बारह प्रकार, रामचंद्र - गुणचंद्र ने माने हैं। इस प्रकार के नाममात्र मतभेद के अतिरिक्त संस्कृत नाट्यशास्त्र में सर्वत्र समानता ही मिलती है।
216 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड
अंतरंग
3 नाट्यशास्त्र का नाट्य के अर्थ में "रूपक" शब्द का प्रयोग प्राचीन काल से होता आया है। संस्कृत नाट्यवाङ्मय में रूपक और उपरूपक नामक दो प्रमुख भेद मिलते हैं। रूपक नाट्यात्मक और उपरूपक नृत्यात्मक होते हैं। रूपक रसप्रधान, चतुर्विध अभिनयात्मक और वाक्यार्थाभिनयनिष्ठ होता है, तो उसके विपरीत नृत्य, भावाश्रय और पदार्थभिनयात्मक होता है। जो ताललयाश्रय तथा अभिनयशून्य अंगविक्षेपात्मक होता है, उसे "नृत" कहा गया है।
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