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गाव दिये। कुछ इतिहासवेत्ताओं का मत है कि बंगाल का ठाकुर-राजवंश इन्हीं से प्रारंभ हुआ। "वेणी-संहार" के अध्ययन से ज्ञात होता है कि ये वैष्णव संप्रदाय के कवि थे। "वेणीसंहार" के भरतवाक्य से पता चलता है कि ये किसी सहृदय राजा के आश्रित रहे होंगे। पाश्चात्य पंडित स्टेन कोनो के कथनानुसार वे राजा आदिशूर आदित्यसेन थे, जिनका समय 671 ई. है। रमेशचंद्र मजूमदार भी माधवगुप्त के पुत्र आदित्यसेन का समय 675 ई. के लगभग मानते हैं, जो शक्तिशाली होकर स्वतंत्र हो गए थे। आदिशूर के साथ संबद्ध होने के कारण, भट्टनारायण का समय 7 वीं शती का उत्तरार्ध माना जा सकता है। विल्सन ने "वेणी-संहार" का रचना-काल 8 वीं या 9 वीं शती माना है। परंपरा में एक श्लोक मिलता है - ___ 'वेदबाणाङ्गशाके तु नृपोऽभूच्चादिशूरकः। वसुकर्माङ्गके शाके गौडे विप्रः समागतः" ।। इसके अनुसार आदिशूर का समय 654 शकाब्द (या 732 ई.) है पर विद्वानों ने छानबीन करने के बाद आदित्यसेन व आदिशूर को अभिन्न नहीं माना है। बंगाल में पाल-वंश के अभ्युदय के पूर्व ही आदिशूर हुए थे, और पाल-वंश का अभ्युदय 750-60 ई. के आस-पास हुआ था। "काव्यालंकार-सूत्र" में भट्टनारायण का उल्लेख किया है। अतः इनका समय ई. 8 वीं शती का पूर्वार्ध सिद्ध होता है। सुभाषित-संग्रहों में इनके नाम से अनेक पद्य प्राप्त होते हैं जो "वेणी-संहार" में उपलब्ध नहीं होते। इससे ज्ञात होता है कि "वेणी-संहार" के अतिरिक्त इनकी अन्य कृतियां भी रही होंगी। दंडी ने अपनी 'अवन्ति-सुंदरी कथा" में उल्लेख किया है कि भट्टनारायण की 3 कृतियां हैं। प्रो. गजेंद्रगडकर के अनुसार "दशकुमारचरित" की पूर्वपीठिका के रचयिता भट्टनारायण ही थे। "जानकी-हरण" नामक नाटक की एक पांडुलिपि की सूची इनके नाम से प्राप्त हुई है पर कतिपय विद्वान् इस विचार के हैं कि ये ग्रंथ किसी अन्य के हैं। भट्टनारायण को एकमात्र "वेणी-संहार" का ही प्रणेता माना जा सकता है। ___ "वेणी-संहार" में महाभारत के युद्ध को वर्ण्य-विषय बनाकर उसे नाटक का रूप दिया गया है। अंत में गदा-युद्ध में भीमसेन दुर्योधन को मार कर उसके रक्त से रंजित अपने हाथों द्वारा द्रौपदी की वेणी (केश) का संहार (गूंथना) करता है। इसी कथानक की प्रधानता के कारण कवि ने इसे "वेणी-संहार" की संज्ञा दी। आलोचकों ने इनके “वेणी-संहार" को नाट्य-कला की दृष्टि से दोषपूर्ण माना है पर इसका कला-पक्ष या काव्य-तत्त्व सशक्त है। इनकी शैली पर कालिदास माघ व बाण का प्रभाव है।
रात्रि (निशा) का सुंदर वर्णन करने के कारण, इन्हें "निशा-नारायण" यह अपरनाम सुभाषित-संग्रह-कारों ने दिया। बाण के कहने पर वे बौद्धशिष्य होकर उस मत में पारंगत
हुए और धर्मकीर्ति (बौद्ध) को पराजित किया। "रूपावतार" यह रचना भट्टनारायण तथा धर्मकीर्ति की बताई जाती है। भट्ट भास्कराचार्य - ई. 11 वीं शती। उज्जयिनी के निवासी। सायणाचार्य और देवयज्वाचार्य के पूर्वकालीन भट्ट भास्कराचार्य, अपने काल के बडे उद्भट वेद-भाष्यकार थे। सायण के पूर्ववर्ती, अस्य वामीयसूक्त के भाष्यकार आत्मानन्द भी भट्ट भास्कराचार्य का निर्देश करते हैं।
तैत्तिरीय संहिता पर "ज्ञानयज्ञ" नामक भाष्य के समान, ब्राह्मण और आरण्यक आदि ग्रंथों पर भी भट्ट भास्कर के भाष्य हैं। वे कौशिक गोत्री तेलगु ब्राह्मण थे। उनके शिवोपासक होने का अनुमान है।
अपने भाष्य में एक-एक शब्द के अनेक अर्थ भट्ट भास्कर देते हैं। मंत्रों के आध्यात्मिक अर्थ भी उनकी भाष्यरचना में उपलब्ध हैं। वैदिकी स्वरप्रक्रिया का उन्हें प्रशस्त ज्ञान था। भट्ट मथुरानाथ शास्त्री - समय 1890 से 1960 ई.। पिता द्वारकानाथ शर्मा प्रकांड पंडित थे। संस्कृत-पत्रिका "भारती" के प्रारंभ से संपादक। जयपुर के निवासी। इन्होंने साहित्याचार्य व व्याकरणशास्त्र की शिक्षा प्राप्त की थी, तथा जयपुर के विख्यात महाराजा संस्कृत महाविद्यालय के प्रोफेसर व अध्यक्ष( संस्कृत-साहित्य-विभाग) के पद को भूषित किया था। श्री. शास्त्री को कवि शिरोमणि, साहित्यवारिधि, साहित्यालंकार कविरत्न, कविसार्वभौम, कवि-सम्राट् इत्यादि उपाधियों से अलंकृत किया गया था। राजस्थान के संस्कृत-कवियों में इनकी गणना प्रथम श्रेणी में की जाती है।
प्रकाशित कृतियां - 1. साहित्यवैभव, 2. गोविन्दवैभव, 3. जयपुरवैभव, 4. संस्कृतगाथासप्तशती (हालकृत गाथा सप्तशती का संस्कृत अनुवाद), 5. त्रिपुरसुन्दरीस्तवराज, 6. मंजुकवितानिकुंजम्, 7. ईश्वरविलासितम्, ___ अप्रकाशित कृतियां - 1. आर्याणामादिभाषा, 2. काश्मीरकमहाकविविह्नणस्तस्य काव्यं च, 3. संस्कृतसुधा, 4. भारतवैभवम्। संपादित कृतियां हैं- 1. रसगंगाधर, 2. ईश्वरविलासकाव्य, 3. कादम्बरी, 4. धातुप्रयोगपारिजात, 5. शिलालेखललन्तिका, 6. पद्यमुक्तावली आदि।
“साहित्यवैभवम्" में आधुनिक विषयों पर हिन्दी-उर्दू छंदों में ग्रथित काव्य-रचनाएं कर संस्कृत में आधुनिकता लाने का प्रथम प्रयास आपने किया। काव्य के प्रेमियों की ओर से उनके इस प्रयास को संमिश्र प्रतिसाद प्राप्त हुआ। “साहित्यवैभवम्" पर इन्होंने स्वयं ही "सहचरी' नामक टीका लिखी है।
अनेक विषयों पर आपकी स्फुट रचनाएं भी हैं - सामाजिक-1. एकवार दर्शनम्, 2. दयनीया, 3. अनादृता । प्रणय संबंधी - प्रतिदानम्, 2. दीक्षा। ऐतिहासिक- 1.
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 387
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