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लिखी गयीं, जिन
(ई-13 वीं शती) कृत शतामालास्तवन, शीलविजयका प्राचीन जैन आचार्यों
परिचय देने वाली "पट्टावलियों' एवं 'गुर्वावलियों' के संग्रह प्रकाशित किए हैं। इनमें संगृहीत पट्टावली तथा गुर्वावलि से श्वेतांबर तथा दिगंबर सम्प्रदाय के विद्वान आचार्यो की अखंडीत परंपरा का परिचय प्राप्त होता है। अतः इनका ऐतिहासिक महत्त्व निर्विवाद है।
ऐतिहासिक नगरों एवं तीर्थक्षेत्रों का परिचय पुराणों एवं महाकाव्यों में मिलता है। जैन वाङ्मय में इसी विषय पर तीर्थमालाएं लिखी गयीं, जिनमें तीर्थक्षेत्रों और उनकी पदयात्रा करने वाले महानुभावों का परिचय प्राप्त होता है। इस प्रकार के ऐतिहासिक वाङ्मय में धनेश्वर सूरि (ई-13 वीं शती) कृत शत्रुजय माहात्म्य, मदनकीर्ति कृत शासन-चतुस्त्रिंशिंका, जिनप्रभूसरिकृत विविधतीर्थकल्प, महेन्द्रसूरिकृत तीर्थमाला प्रकरण, एवं धर्मघोष कृत तीर्थमालास्तवन, शीलविजयकृत तीर्थमाला, और ज्ञानसागरकृत तीर्थावली इत्यादि उल्लेखनीय हैं। विजयधर्म सूरि ने प्राचीन तीर्थमाला संग्रह प्रकाशित कराया है। प्राचीन जैन आचार्यों में "विज्ञप्तिपत्र" लिखने की पद्धति थी। इनमें कुछ संस्कृत में लिखे गये हैं। इन पत्रों के रूप में विनयविजयकृत इन्दुदूत, विजयामृतसूरिकृत मयूरदूत, मेघविजय कृत समस्यालेख तथा चेतोदूत जैसे मनोहर खंडाकाव्य मिले हैं। विज्ञप्ति पत्रों में सुन्दरसूरि द्वारा अपने गुरु देवसुन्दरसूरि को लिखा हुआ त्रिदशतंरगिणी, जयसागरगणि ने अपने गुरु जिनभद्रसूरि को लिखा हुआ विज्ञप्ति-त्रिवेणी, विनयाविजय का इन्दुदूत याने उन्होंने अपने गुरु विजयप्रभसूसिर की लिखा हुआ विज्ञप्तिपत्र है। विजयाविजय तथा अन्य विज्ञप्तिपत्र विजयानंदसूरि तथा विजयदेव सूरि के प्रति भेजे थे। डॉ. हीरानन्द शास्त्री के "एन्शन्ट विज्ञप्ति पत्रा" नामक संग्रह में 24 विज्ञप्ति पत्रों का परिचय दिया है जिन में 6 संस्कृत में है।
प्राचीन काल में शिला, स्तम्भ, ताम्रपट काष्ठपट्टियां, कपड़ा आदि पर राजाओं की बिरुदावलियां, संग्रामविजय, वंशपरिचय तथा राजनीतिक शासनपत्र, उत्कीर्ण करने की पद्धति थी। प्राचीन इतिहास की जानकारी के लिए इस प्रकार के "अभिलेख साहित्य" का महत्त्व निर्विवाद माना जाता है।
इस प्रकार के अभिलेखों में कलिंग-नरेश खारवेल का हाथीगुंफा शिलालेख (ई.पू.प्रथम-द्वितीय शती) रविकीर्तिचरित, चालुक्य पुलकेशि द्वितीय का शिलालेख (ई.7 वीं शती) कक्कुक का घटियाल प्रस्तलेख (ई.10 वीं शती) हथुडी के धवल राष्ट्रकूट का बीजापुरलेख (ई. 10 वीं शती) विजयकीर्ति मुनिकृत सिंग्र कछवाहा का दुधकुण्ड लेख, (ई.11 वीं शती) जयंमगल सूरि विरचित चायिंग चाहमान का सुन्धाद्रिलेख, अमोघवर्ष का कोनर शिलालेख, मल्लि-षेण प्रशस्ति, सुदह, मदनूर, कुलचुम्बरु और लक्ष्मेश्वर आदि से प्राप्त लेख संस्कृत भाषीय गद्य तथा पद्य काव्य के अच्छे उदाहरण माने जाते हैं। इस प्रकार के सैकड़ों अभिलेखों का संपादन, प्रकाशन, परीक्षण करने का कार्य जेम्स प्रिन्सेप, जनरल कनिंगहॅम, राजेन्द्रलाल मित्र, ई. हुल्श, जे.एफ. फ्लीट, लुई राईस, गेरिनो, भगवानलाल इन्द्रजी, राखालदास बैनर्जी, काशीप्रसाद जायस्वाल, वेणीमाधव बरुआ, शशिकान्त जैन, डॉ. हीरालाल जैन, पद्मभूषण डॉ. वा. वि. मिराशी, विजय मूर्तिशास्त्री, पूरण चन्द्र नाहर, डॉ. विद्याधर जोहरापूरकर, डॉ. गुलाब चौधरी, इत्यादि विद्वानों द्वारा हुआ है। एपिग्राफिका इंडिका, इंडियन एण्टिक्वेरी, जर्नल ऑफ रॉयल एशियाटिक सोसायटी, जैन शिलालेखसंग्रह, जैसी पत्रिकाएं एवं ग्रंथों के विविध खंडों में इन अभिलेखों का प्रकाशन हो चुका है। संस्कृत भाषा के ऐतिहासिक वाङ्मय में इस प्रकार के साहित्य का, अज्ञात जानकारी को जानने की दृष्टि से, अत्यंत महत्त्व है।
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 129
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