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प्रकरण - 5 न्याय-वैशेषिक दर्शन
1 "न्याय दर्शन"
भारतीय आस्तिक दर्शनों में न्यायदर्शन को अग्रस्थान दिया जाता है :
गौतमस्य कणादस्य कपिलस्य पतंजलेः। व्यासस्य जैमिनेश्चापि दर्शनानि षडेव हि ।। इस सुप्रसिद्ध श्लोक में षड्दर्शनों के प्रवर्तकों की गणना में न्यायशास्त्र के सूत्रकार गौतम का निर्देश सर्वप्रथम किया है। न्यायशास्त्र का महत्त्व प्रतिपादन करते हुए न्यायसूत्र के भाष्यकार वात्स्यायन कहते हैं :
प्रदीपः सर्वविद्यानाम् उपायः सर्वकर्मणाम्। आश्रयः सर्वधर्माणां विद्योद्देशे प्रकीर्तिता।। (यह न्यायविद्या अन्य विद्याओं को प्रकाशित करने वाला प्रदीप है। सारे कर्मों की युक्तायुक्तता जानने का उपाय है और सभी धर्मों का आश्रय है)। "प्रमाणैः अर्थपरीक्षणं न्यायः" यह न्यायशास्त्र का प्रथम मूलसूत्र है जिस के आधार पर, परीक्षा करते हुए, उसकी सत्यात्यता निर्धारित करना, इस शास्त्र का प्रयोजन है। जो विचार न्याय के सिद्धान्तों के अनुसार सिद्ध नहीं होता वह अप्रामाणिक होने से सर्वथा अग्राह्य मानने की बुद्धिवादी विद्वानों की परंपरा होने से, इस शास्त्र का महत्त्व परंपरागत अध्ययन की पद्धति में विशेष माना जाता है। "प्रमाणैरर्थपरीक्षणं न्यायः" इस व्याख्या के अनुसार न्यायशास्त्र को प्रमाणशास्त्र प्रमाणविद्या, हेतुविद्या भी कहा गया है।
महर्षि गौतम इस शास्त्र के आद्य सूत्रकार हैं, तथापि इसका अस्तित्व उनसे प्राचीन काल में भी था। छांदोग्य उपनिषद में अनेक शास्त्रों की नामावलि में "वाकोवाक्यम्" नामक शास्त्र का उल्लेख मिलता है। श्री शंकराचार्यजी ने "वाकोवाक्य" का अर्थ दिया है तर्कशास्त्र अर्थात् न्यायशास्त्र। इन नामों के अतिरिक्त इस शास्त्र का और एक नाम है, “आन्वीक्षिकी"। कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में राजपुरुषों के लिए आन्वीक्षिकी, त्रयी, वार्ता और दण्डनीति इन चार विद्याओं का अध्ययन आवश्यक बताया है। इन चारों विद्याओं में आन्वीक्षिकी का विशेष महत्त्व बताते हुए अर्थशास्त्रकार कौटिल्य कहते हैं : "बलाबले चैतासां हेतुभिरन्वीक्षमाणा आन्वीक्षिकी लोकस्य उपकरोति, व्यसने अभ्युदये च बुद्धिम् अवस्थापयति, प्रज्ञावैशारद्यं च करोति'। अर्थात यह आन्वीक्षिकी विद्या, त्रयी (वेद), वार्ता (अर्थवाणिज्यादि व्यवहार शास्त्र) और दण्डनीति (राजनीति शास्त्र) इन तीन विद्याओं के बलाबल की परीक्षा करने वाली, संकट में और अभ्युदय काल में बुद्धि को स्थिर रखने वाली और बुद्धि को सतेज करने वाली होने के कारण, विशेष महत्त्व रखती है। कौटिल्य ने न्यायशास्त्र के अर्थ में ही “आन्वीक्षिकी" शब्द का प्रयोग किया है।
न्यायशास्त्र के विकास में खण्डन-मण्डन की परम्परा दिखाई देती है। मौतम के न्यायसूत्र से इस शास्त्र का प्रारंभ होता है। इस प्रथम ग्रंथ में ही बौद्ध सिद्धान्तों का खण्डन सूचित करने वाले कुछ सूत्र माने गये है। परंतु न्यायसूत्र का बौद्धमत से प्राचीनत्व कुछ विद्वान मानते हैं। उनके मतानुसार, सबसे पूर्व गौतम के अध्यात्म-प्रधान न्यायसूत्र की रचना हुई है। उसके बाद अक्षपाद ने उसका नवीन संस्करण किया और बौद्ध युग में उनसे कुछ प्रक्षेप और परिवर्धन होकर ही न्यायशास्त्र को वर्तमान स्वरुप प्राप्त हुआ है। न्यायसूत्रकार गौतम का समय ई. पू. छठी तथा चौथी शताब्दी माना जाने के कारण यह विचार रखा गया। इ.पू. दूसरी शती में वात्स्यायन ने न्यायसूत्रों का विस्तृत भाष्य लिखा। इस भाष्य में प्रतिपादित बौद्ध मत के प्रतिकूल विचारों का खण्डन बौद्धदार्शनिक दिङ्नागाचार्य ने अपने प्रमाण समुच्चय में किया। वसुबन्धु और नागार्जुन ने भी बौद्धमत विरोधी विचारों का खंडन करने का प्रयत्न किया। ई. छठी शताब्दी में उद्योतकराचार्य ने वात्स्यायन के न्यायभाष्य पर न्यायवार्तिक की रचना की। इस में दिङ्नागादि बौद्ध नैयायिकों ने आत्मतत्त्व के विरोध में जो प्रबल तर्क उपस्थित किये थे, उनका प्रखर खंडन उद्योतकराचार्य ने किया। बौद्ध और वैदिक न्यायशास्त्रियों के खण्डन-मण्डन में आत्मा और ईश्वर का अस्तित्व यह प्रमुख विवाद्य विषय था। उद्योतकर द्वारा प्रस्तुत तों का खंडन करने का प्रयास धर्मकीर्ति आदि कुछ बौद्ध पंडितों द्वारा हुआ। उनका खण्डन सुप्रसिद्ध भाष्यकार वाचस्पति मिश्र (9 वीं शती) ने अपनी न्यायवार्तिकतात्पर्यटीका में किया। 9 वीं शती में जयंत भट्ट ने न्यायसूत्र पर न्यायमंजरी नामक ग्रंथ लिखा, जिसमें चार्वाक, बौद्ध, मीमांसक और वेदान्तवादी विद्वानों के न्यायविरोधी युक्तिवादों का खण्डन किया है। इसी शताब्दी में भासर्वज्ञ ने "न्यायसार" नामक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ लिखा। दसवीं शती में उदयनाचार्य ने
130 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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