________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
जगडूचरित : ले. सर्वानन्द। गुरु धनप्रभसूरि । ई. 15 वीं शती। 7 सर्गों के इस काव्य में प्रसिद्ध जैन श्रावक जगडूशाह का चरित्र वर्णित है।
सुप्रसिद्ध जैन विद्वान हेमचन्द्राचार्य ने प्रबन्ध नाम एक विशिष्ट साहित्य प्रकार का सूत्रपात जैन वाङ्मय क्षेत्र में किया। उसका अनुकरण करते हुए अनेक प्रबन्ध ग्रंथ लिखे गये। इन जैन प्रबन्धो में तीर्थकारादिक प्राचीन धर्मपुरुषों के अतिरिक्त राजामहाराजा, सेठ और मुनियों के संबंध में कथा कहानियों का संग्रह मिलता है, जिनमें धर्मतत्त्वोपदेश के साथ मध्यकालीन इतिहास की भरपूर सामग्री मिलती है। ऐसे प्रबन्धो में उल्लेखनीय कुछ महत्वपूर्ण ग्रंथ :
प्रबन्धावलि : ले. जिनभद्र। ई. 14 वीं शती। इसमें 40 गद्य प्रबन्ध हैं जो अधिकांशतः गुजरात, राजस्थान, मालवा और वाराणसी से संबंधित ऐतिहासिक व्यक्तियों और घटनाओं से संबंधित हैं।
प्रभावकचरित : ले. मेरुतुंगसूरि । रचना समय सं 1361 इसमें वीरसूरि, शान्तिसूरि, महेन्द्रसूरि, सूराचार्य, अभयदेवाचार्य, वीरदेवगणि, देवसूरि और हेमचन्द्र सूरि ये आठ संत गुजरात के चालुक्यों के समय अणहिलपाटन में विद्यमान थे। इन महापुरुषों के साथ भोज भीम (प्रथम) सिद्धराज और कुमारपाल जैसे राजाओं की प्रसंग कथाएं दी गयी हैं। इस कृति में गुजरात से लेकर बंगाल तक पूरे उत्तर भारत का पर्यवेक्षण किया है।
कल्पप्रदीप (या विविध तीर्थकल्प) : ले. जिनप्रभूसूरि। इसका कुछ अंश जैन महाराष्ट्री भाषा में लिखा है। 60 कल्पों के इस ग्रंथ में गुजरात, सौराष्ट्र, उत्तरप्रदेश, राजस्थान, मालवा, पंजाब, अवध, बिहार, महाराष्ट्र, विदर्भ, कर्नाटक और आंध्रप्रदेश के तीर्थों के वर्णनों के साथ भरपूर ऐतिहासिक जानकारी मिलती है। सं 1081 में महमूद गजनी के गुजरात पर आक्रमण किया था। उसका उल्लेख तथा समग्र साहित्य इस ग्रंथ में मिलता है।
प्रबन्धकोश (या चतुर्विशति प्रबन्ध) : ले. राजशेखर। गुरु तिलकसूरि। इस ग्रंथ की रचना सं 1405 में दिल्ली में हुई। इसमें 10 जैन आचार्यों, 4 कवियों, 7 राजाओं तथा 3 राजमान्य पुरुषों के चरित्रों द्वारा इतिहासोपयोगी भरपूर सामग्री उपलब्ध होती है।
पुरातन प्रबन्धसंग्रह : ले. अज्ञात । इसमें 66 से अधिक प्रबन्धों का संग्रह है। समय ई. 15 वीं शती । मुनि जिनविजयजी द्वारा प्रकाशित । प्रवचनपरीक्षा : ले. धर्मसागर उपाध्याय। इसमें चावडा, चालुक्य और बघेलों की वंशावलियां दी गई हैं।
नाभीनन्दनोद्धार प्रबन्ध : (या शत्रुजय तीर्थोद्धार प्रबन्ध) : ले. कक्कसूरि। गुरु सिद्धसूरि । ई. 15 वीं शती। इसमें तुगलक राजवंश तथा गुजरात के अंतिम महाजन समराशाह के संबंध में महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक जानकारी प्राप्त होती है।
मुगल शासन के कुछ ऐतिहासिक तथ्यों की भरपूर जानकारी पद्मसुन्दरकृत पार्श्वनाथ काव्य, रायमल्लाभ्युदय, अकबरशाही शृंगारदर्पण में तथा कर्मवंशोत्कीर्तन काव्य, हीरसौभाग्य महाकाव्य शान्तिचंद्रकृत कृपारसकोश, सिद्धिचंद्रकृत भानुचंद्रगणिचरित, हेमविजय गणिकृत विजयप्रशस्ति महाकाव्य, श्रीवल्लभ उपाध्यायकृत विजयदेवमाहात्म्य, मेघविजय गणिकृत विजयदेवमाहात्म्य विवरण, दिग्विजय शव्य एवं देवानंद महाकाव्य इत्यादि जैन काव्यग्रंथों मे मुख्य वर्णनीय विषयों के साथ आनुषंगिक रीति से प्राप्त होती है जिससे मूल बादशाह के व्यवहार का परिचय मिलता है।
वैदिक वाङ्मय में "नाराशंसी गाथा" अर्थात् प्रसिद्ध वीरों की प्रशंसा के सूत्रों का उल्लेख प्रसिद्ध हैं। इन्हीं गाथाओं से वीर नरेश के पराक्रम की घटनाओं का वर्णन करने की परंपरा का प्रारंभ माना जाता है। इसी काव्यप्रणाली में आलंकारिक शैली में इतिहास प्रसिद्ध व्यक्तियों की प्रशस्तियां निर्माण हुई जिनसे भारतीय इतिहास के संयोजन के लिए बहुत सी सामग्री प्राप्त होती है। समुद्रगुप्त के संबंध में इलाहाबाद के स्तंभपर उत्कीर्ण, हरिषेणकृत प्रशस्ति, मन्दसौर के सूर्यमंदिर की वत्सभट्टिकृत प्रशस्ति, गिरनार शिलालेखों के रूप में प्राप्त रुद्रदामन् की प्रशस्ति एवं सिद्धसेन दिवाकरकृत गुणवचन द्वत्रिंशिका नामक चंद्रगुप्त (द्वितीय) की प्रशस्ति इत्यादि प्रशस्तिस्वरूप काव्यों का भारत के इतिहास में अत्यंत महत्त्व माना गया है। अनेक प्रशस्तियां स्थापत्य से संबद्ध हैं, जिनमें स्थापत्य निर्माता या दाता के वृतान्त के साथ तत्कालीन राजा से संबंधित वृतान्त उपलब्ध होता है। स्थापत्य प्रशस्तियों के समान ग्रन्थों के प्रारंभ में या अंतिम पुष्पिकाओं में अथवा अध्याय समाप्ति में जो ग्रंथ प्रशस्तियां उपलब्ध होती हैं उनमें महनीय ग्रंथकारों के संबंध में महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक जानकारी प्राप्त होती है। प्रशस्तिस्वरूप काव्यों में उदयप्रभ सूरिकृत सुकृतकीर्तिकल्लेल्लिनी, जयसिंहसूरिकृत वस्तुपाल-तेजपाल प्रशस्ति, नरचन्द्र, नरेन्द्रप्रभ, यशोवीर और अरिसिंह ठक्कुर द्रारा लिखित वस्तुपाल की प्रशस्तियां विशेष उल्लेखनीय हैं। इसी प्रकार मुनि जिनविजयजी द्वारा संपादित जैनपुस्तक प्रशस्तिसंग्रह, अमृतलाल मगनलाल शाह द्वारा संपादित प्रशस्तिसंग्रह (भाग 2), के, भुजबती शास्त्री द्वारा संपादित प्रशस्तिसंग्रह, परमानन्द शास्त्री कृत जैनग्रंथ प्रशस्तिसंग्रह और कस्तूरचंद्र कासलीवाल द्वारा संपादित प्रशस्तिसंग्रह ग्रंथ तथा ग्रंथकारों की प्रशस्तियां महत्त्वपूर्ण जानकारी की दृष्टि से ऐतिहासिक वाङ्मय में विशेष उल्लेखनीय हैं।
मुनि दर्शनविजय, मुनि जिनविजय पंचकल्याणविजयगणि इत्यादि विद्वानों ने जैनधर्म के संघों की गुरु-शिष्य परंपरा का
128 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
For Private and Personal Use Only