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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चाहिए। यह सुन कर दुर्योधन को बड़ा आनन्द हुआ और कृपाचार्य के हाथों अश्वत्थामा को उन्होंने सेनापतित्व का अभिषेक किया। अभिषेक के अनन्तर दुर्योधन से विदा लेकर वे तीनों वहां से चल दिये और दुर्योधन रातभर वही अपने हाथों अतीव कष्ट से अंगों को नोचनेवाले गिद्धों को हटाते लहूलुहान पड़ा रहा। 11 सौप्तिक पर्व कृपाचार्य, कृतवर्मा और अश्वत्थामा तीनों दुर्योधन से बिदा होकर एक जंगल में चले गये। वहां किसी पेड के नीचे रथ छोड़ कर संध्या वंदन के बाद वहीं जमीन पर सो गये। दोनों को भारी परिश्रम के कारण नींद अच्छी आयी, पर अश्वत्थामा क्रोध तथा दुःख के मारे नहीं सो सका।। रात के बढ़ने पर अश्वत्थामा को दिखायी दिया कि उस बरगद के पेड पर सोए कौओं को एक उल्लू आकर मार रहा है। वह दृश्य देखकर उल्लू ने मानो गुरूपदेश ही दिया समझ कर अश्वत्थामा ने अपने दोनों मित्रों को जगाया और अपना विचार बताया, कि क्यों न सोए पांडव सैन्य का विध्वंस किया जाय। उस पर वह अनुचित है, अधर्म है, उससे तेरी चारों ओर निंदा होगी, आदि आदि कृपाचार्य ने समझा दिया पर जब अश्वत्थामा अपने उस उद्दिष्ट की पूर्ति के लिए पांडव शिबिरों को जाने रथ पर जा बैठा तब वे दोनों भी उसके साथ लिए। पाण्डवों के शिबिरद्वार पर पहुंचने पर अश्वस्तथामा ने कहा, "तुम दोनों दरवाजे पर रह कर भीतर से बाहर भाग आने वालों को नष्ट करते रहो। मै भीतर जाकर सोते हुए लोगों का नाश करता हूं।" इतना कहकर वह पहले धृष्टद्युम्न के पास पहुंचा और लातों से उसे रौंदने लगा। धृष्टद्युम्न उठने की कोशिश करने लगा। तब अश्वत्थामा ने उसे दोनों हाथों से पकडा और उठा कर जमीन पर पटक दिया, और जिस प्रकार बिना शस्त्र के पशु की हत्या कर देते है; उसी प्रकार उसने धृष्टद्युम्न की हत्या की। उसके बाद शिखंडी, द्रौपदी के पुत्र आदि जो भी वहां थे उन सबका नाश अश्वत्थामा ने किया। जो भाग जाने के इरादे से शिबिर के दरवाजे पर पहुंचे उनका नाश वहां कृपाचार्य और कृतवर्मा ने किया। सबका नाश करने; पर बडी ही प्रसन्नता से वे तीनों दुर्योधन के पास आए, और उन्होंने वह सारा वृत्तांत उसे सुनाया। वह सब सुनकर उस बुरी हालत में भी उसे बडा हर्ष हुआ और थोडे ही समय में उसके प्राण उड गये। संजय धृतराष्ट्र को कहता है, “धृतराष्ट्र राजा! तुम्हारी दुष्ट मंत्रणा से, अन्यायपूर्ण व्यवहार से और घोर अपराध से ही इस तरह से कौरवों और दुर्योधन की मृत्यु के अनन्तर व्यासजी की कृपादृष्टि से प्राप्त मेरी दिव्य दृष्टि लुप्त हो गयी है। वैशंपायन जगमेजय राजा से बोले, "राजा, दूसरे दिन प्रातःकाल धृष्टद्युम्न का सारथी धर्मराज के पास आकर बताने लगा, "शिबिर की सारी सेना को कृपाचार्य, कृतवर्मा और अश्वत्थामा तीनों ने मार डाला। मै कृतवर्मा के पंजों से ज्यों त्यों करके बच गया हूं।" वह वृत्त सुनकर धर्मराजन कुछ देर शोक करते रहे। द्रौपदी के लिए नकुल को बुला भेजा और वे खुद सबके साथ शिबिर में पहुंचे। कुछ देर बाद द्रौपदी भी वहां पहुंची। पुत्रों की मृत्यु से उसे अतीव दुःख हुआ। दुःख के आवेग में द्रौपदी बोली, "मेरे पुत्रों को घात करने वाला अश्वत्थामा जब तक जीवित है तब तक मै बिना कुछ खाए पिए यहीं बैठी रहंगी। इतना कह कर वह वहीं बैठी। उस पर धर्मराज ने उससे पूछा, “अश्वत्थामा तो भाग गया है, उसको युद्ध में जीत भी लिया तो तुझ पर कैसे प्रकट होगा और तू उसका विश्वास कैसे कर सकेगी?" द्रौपदी ने बताया, "अश्वत्थामा के माथे पर जन्म से ही एक मणि है। वह मणि तुम्हारे माथे पर बिराजते देखूगी तभी मै जीवित वह सकूँगी, अन्यथा नहीं।" । वह सुनकर भीम रथ पर सवार होकर अश्वत्थामा का नाश करने चल पडा। नकुल उसका सारथी बना। भीम को चल पडते देख श्रीकृष्ण धर्मराज से बोले, "भीम को अकेले जाने देना उचित नहीं क्यों कि अश्वत्थामा जितना शस्त्रास्त्रवेत्ता है उतना ही दुष्ट भी है। उसकी दुष्टता की एक कहानी सुनाता हूँ, “अश्वत्थामा ने जब यह सुना कि द्रोणाचार्य ने अर्जुन को ब्रह्मास्त्र सिखाया है तब एकान्त में द्रोणाचार्य से ब्रह्मास्त्र मांगने लगा। द्रोणाचार्य ने उसकी अधमता देख कर उसे वह अस्त्र नहीं सिखाया। लेकिन वह जब बहुत ही गिड़गिड़ाया, तब उन्होंने वह अस्त्र उसे सिखा दिया, और बताया कि यह अस्त्र मानवों पर नहीं चलाना चाहिए। यही इसका नियम है। लेकिन तू अधम होने के कारण इस नियम का पालन तुझसे नहीं होगा। ब्रह्मास्त्र प्राप्ति के बाद एक बार अश्वत्थामा द्वारका पहुंचा। यादवों ने बडी आवभगत के साथ उसे रखवा लिया। एक दिन वह मेरे पास पहुंचा और मेरा सुदर्शन चक्र मांगने लगा। मैने उससे कहा, हां, कोई बात नहीं, उठा ले जा चक्र, "लेकिन वह उसे उठा न सका। तब वह बहुत ही शरमिन्दा हुआ। बाद में मैने उससे पूछा, “तूने मेरा चक्र क्यों चाहा? क्या करने जा रहा था तू? तब वह बोला "मै ब्रह्मास्त्र से अन्यों को जीत सकता था। लेकिन तुम्हें जीतने का कोई साधन मेरे पास नहीं था। तुमसे चक्र लेकर उसीसे तुम्हें जीतने का मेरा विचार था।" कुछ दिनों बाद वह द्वारका से चला गया। धर्मराज, यह है अश्वस्थामा की अधमता। इसलिए भीम का अकेले जाना इष्ट नहीं है।" इतना कह कर श्रीकृष्ण खुद रथ पर सवार हो गए। धर्मराज और अर्जन उसी रथ पर साथ चल पड़े। संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 117 For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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