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टीका, षट्पाहुडटीका, सिद्धभक्तिटीका, सिद्धचक्राष्टक-टीका, ज्येष्ठजिनवरकथा, रविव्रतकथा, सप्तपरमस्थानकथा, मुकुटसप्तमीकथा, अक्षय-निधिकथा, षोडषकारण-कथा, मेघमालाव्रतकथा, चन्दनषष्ठीकथा, लब्धिविधानकथा, पुरन्दरविधानकथा, दशलक्षणीव्रतकथा, पुष्पांजलिव्रतकथा, आकाशपंचमीव्रतकथा, मुक्तावलीव्रतकथा, निर्दुःखसप्तमी-कथा सुगन्धदशमी-कथा, श्रावण द्वादशी-कथा, रत्नत्रयव्रत-कथा, अनन्तव्रत-कथा, अशोक-रोहिणीकथा, तपोलक्षण- पंक्तिकथा, मेरुपंक्तिकथा, विमानपंक्ति कथा, पल्लिविधान-कथा, श्रीपालचरित, यशोधरचरित, औदार्यचिन्तामणि (प्राकृत व्याकरण) श्रुतस्कन्धपूजा, पार्श्वनाथ स्तवन और शान्तिनाथ स्तवन। श्रुष्टिगू काव्य - ऋग्वेद के आठवें मंडल के 51 वें सूक्त के द्रष्टा । इंद्रस्तुति इसका विषय है। अनेक ऋषियों का उल्लेख होने से इसे सूक्त को ऐतिहासिक महत्त्व प्राप्त है। षड्गुरुशिष्य - समय- 13 वीं शती। ग्रंथ- ऐतरेय ब्राह्मण, ऐतरेय आरण्यक, आश्वालायन श्रौत, आश्वालयन गृह्य तथा ऋक् सर्वानुक्रमणी पर वृत्तियां लिखी हैं। ऐतरेय ब्राह्मण वृत्ति का नाम है 'सुखप्रदा' । सर्वानुक्रमणी वृत्ति का नाम 'वेदार्थ-दीपिका है। इसी ग्रंथ के अन्त में संवत् 1234 का निर्देश होने के कारण षड्गुरु शिष्य का समय स्पष्ट होता है।
षड्गुरुशिष्य ने विनायक, शूलपाणि, वा शूलांग, मुकुन्द वा गोविंद, सूर्य, व्यास तथा शिवयोगी इन छह गुरुओं का निर्देश किया है। षष्ठीदास विशारद - ई. 18 वीं शती की उत्तरार्ध । जयकृष्ण तर्कवागीश के पुत्र । 'धातुमाला' नामक व्याकरण-ग्रंथ के कर्ता। संकर्षणशरणदेव - निंबार्क-संप्रदार्य के प्रसिद्ध दिग्विजयी आचार्य केशव काश्मीरी के शिष्य। इन्होंने 'वैष्णव-धर्म सुरद्रुम-मंजरी' नामक ग्रंथ की रचना की जिसमें निंबार्क-मत की श्रेष्ठता का दिग्दर्शन तथा व्रतादि का वर्णन है। संघभद्र - आचार्य वसुबन्धु के समकालीन तथा उनके प्रबल विरोधक। वसुबन्धु के अभिधर्मकोशभाष्य में प्रतिपादित अनेक सिद्धान्त, वैभाषिक मत से असंगत होना ही विरोध का कारण था। संघभद्र वैभाषिक मत के पोषक थे तथा उसका पुनरुद्धार चाहते थे। इसी निमित्त उन्होंने दो. ग्रंथों की रचना भी कीअभिधर्मन्यायानुसार व अभिधर्मसमयदीपिका। इन दोनों ग्रंथों के केवल अनुवाद चीनी भाषा में उपलब्ध है। संघविजयगणि - विजयसेन सूरि के शिष्य। तपागच्छीय विद्वान। ग्रंथ-कल्पसूत्र- कल्पप्रदीपिका (वि.सं. 1674)। कल्याणविजयसूरि के शिष्य धनविजयगणि द्वारा वि.सं. 1681 में संशोधित। ग्रंथमान 3200 श्लोक। संध्याकर नन्दी - ई. 12 वीं शती। पुंड्रवर्धन (बंगाल) के निवासी। रामपाल (सन् 1017-1120) के विदेश-मन्त्री।
प्रजापति नन्दी के पुत्र । 'रामचरित'काव्य के प्रणेता। संभाजी महाराज - ई. 17 वीं शती। छत्रपति शिवाजी महाराज के वीर, रसिक और विद्वान पुत्र । रचना- बुधभूषण । कामंदकीय तथा नीतिविषयक अन्य ग्रंथों का परिशीलन एवं संकलन कर इस सुभाषित ग्रंथ की निर्मिति हुई है। संवनन आंगिरस - ऋग्वेद के दसवें मंडल के 191 वें क्रमांक के महत्त्वपूर्ण लघु सूक्त के द्रष्टा। प्रस्तुत सूक्त की दो से चार तक की ऋचाएं राष्ट्रीय आकांक्षा व प्रार्थना मानी जानी चाहिये। समाज के मतभेद दूर हों, स्नेह बढे, ऐक्य प्रस्थापित हो इस हेतु इनकी रचना की गई है। ऐतरेय ब्राह्मण (23.1) में सूचना है कि परस्पर-विरोधी लोगों में सामंजस्य निर्माण करने के लिये इस सूक्त का पठन किया जाये। यह सूक्त है -
संसमिधुवसे वृषनग्ने विश्वान्य आ। इळस्पदे समिध्यसे स नो वसून्या भर।। सं गच्छध्वं सं वदध्वं सं वो मनांसि जानताम्। देवा भागं यथा पूर्वे संजानाना उपासते ।।2।।
समानो मंत्रः समितिः समानी समानं मनः सह चित्तमेषाम्। समानं मन्त्रमभि मन्त्रये वः
समानेन वो हविषा जुहोमि ।।3।। समानि व आकूतिः समाना हृदयानि वः समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति ।।4 ।। अर्थ- हे उत्तरवेदी में प्रदीप जगद्व्यापक कामपूरक परमेश्वर अग्नि, हमें धन दो। सभी लोग एक विचार, एक भाषण, एक ज्ञान के हो। पुरातन सहविचारी लोगों के समान अपने कार्य एकमत से करें। ____ हम सभी की प्रार्थना, विचारस्थान, ज्ञान और मन एक-समान
हो। एक ही सामग्री से देवपूजन करें। संघशक्ति की पुष्टि के लिये सभी के अभिप्राय, अंतःकरण और मन एक-समान हों। __इस सूक्त की पहली ऋचा में इळस्पद स्थान का उल्लेख है। वैदिकों की धारणा है कि पृथ्वी पर आद्य अग्नि यहीं निर्माण हुई। सायणाचार्य के अनुसार इळस्पद याने उत्तरवेदी कुरुक्षेत्र है। संवर्त - याज्ञवल्क्य द्वारा प्रस्तुत स्मृतिकारों की सूची में आपका नाम है। आपकी दो स्मृतियां उपलब्ध हैं। उनमें क्रमशः 227
और 230 श्लोक हैं। इनमें यज्ञोपवीत के बाद ब्रह्मचारी का कर्तव्य, विवाहोत्तर गृहस्थ का आचार, अनेक प्रकार के दान और उनके फल, संन्यासधर्म आदि विषय हैं। संवर्त आंगिरस - आंगिरस के पुत्रों में से एक। आपका दूसरा नाम वीतहव्य है। ऐतरेय ब्राह्मण के अनुसार, मरुत्त आविक्षित राजा के आप पुरोहित थे। ऋग्वेद के दसवें मंडल के 172 वें सूक्त के आप द्रष्टा है। उसमें उषा का वर्णन है (10.172.4)
480 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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