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श्रीरंगराज - विजयनगर के युवराज। ई. 17 वीं शती का पूर्वार्ध। रचना- नाटक-परिभाषा। श्रीराम गोस्वामी - समय- 1727-1787 ई. । कवि रामगोस्वामी बीकानेर के महाराजा सूरतसिंह के आश्रित। इन्होंने अपने महाराजा को अपनी काव्य-रचना का विषय बनाया एवं 'सूरत-विलासः' नामक राजप्रशस्तिपर काव्य का प्रणयन किया। श्रीरामचन्द्र (प्रा.) - मछलीपट्टनम् के नोबल महाविद्यालय में प्राध्यापक। रचनाएं- शृंगारसुधार्णव-भाण, कुमारोदय-चम्पू
और देवीविजय-काव्य। श्रीराम शर्मा - ई. 15 वीं शती। चम्पाहट्टीय ब्राह्मण। वीरेन्द्र-प्रदेशी। कृतियां- विजया नामक सरिदेवकृत 'परिभाषावृत्ति' की टीका। विषय- व्याकरणशास्त्र (2) मुग्धबोध व्याकरण की टीका। श्रीरामशास्त्री वेदमूर्ति - 19-20 वीं शताब्दी। नेलोर निवासी। रचना- 'गुरुकल्याणम्'। श्रीलोकाचार्य - श्रीरामानुजाचार्य के वैकुंठवासी होने के पश्चात् 150 वर्षों की अवधि में ही दक्षिण के श्रीवैष्णवों में दो स्वतंत्र मत उठ खडे हुए थे। पहले मत का नाम था- 'टेकलै'
और दूसरा 'वडकलै' कहलाता था। श्रीलोकाचार्य मे टेकलै मत की प्रतिष्ठापना की। इनका समय 13 वां शतक था। इन्होंने अपने ग्रंथ 'श्रीवचनभूषण' में इस प्रपत्ति-पंथ का विशद शास्त्रीय विवेचन किया है।
आजकल लोकभाषा पर अधिक पक्षपात होने के कारण दक्षिण में टेकलै-मत पर विशेष आग्रह दृष्टिगोचर होता है। श्रीलोकाचार्य-प्रणीत 'श्रीवन-भूषण' नामक ग्रंथ पुरी के किसी मठ से प्रकाशित है। श्रीवत्सलांछन भट्टाचार्य - ई. 16 वीं शती। श्रीविष्णु चक्रवर्ती के पुत्र । 'रामोदय' (नाटक) काव्यामृत, काव्यपरीक्षा, सारबोधिनी तथा साहित्य-सर्वस्व के कर्ता। श्रीवल्लभ पाठक - ई. 17 वीं शती। तपागच्छ-निवासी। इन्होंने 21 सर्गों के 'विजय-देव-माहात्म्य' नामक महाकाव्य में जैन मुनि विजयदेव सूरि का चरित्र-वर्णन किया है। श्रीशैल दीक्षित - ई. 19 वीं शती। 'कर्नाटक-प्रकाशिका' (बंगलोर) के सम्पादक। रचनाएं- वीरांजनेय-शतक, हनुमन्नक्षत्रमाला (काव्य), गोपालार्या (काव्य), भ्रान्ति-विलासम् (शेक्सपियर के 'कामेडी ऑफ एरर्स' का संस्कृत अनुवाद)
और कावेरीगद्यम् (प्रवासवृत्त), श्रीकृष्णाम्युदयम् (गद्यकाव्य)। इन्हें गायनकला में नैपुण्य प्राप्त था। श्रीश्वर विद्यालंकार (भट्टाचार्य) - ई. 19-20 वीं शती। रंगपुर (बंगाल) के निवासी। पिता- क्षितीश्वर भट्टाचार्य कृतियांशक्तिशतक (अपर नाम देवीशतक), विजयिनीकाव्य (महारानीविक्टोरिया पर सन् 1902 में रचित), दिल्ली-महोत्सव (काव्य)
और विक्रमभारत। दिल्ली-महोत्सव-काव्यम् की रचना सन् 1902 में हुई। छह सों वाले इस काव्य में सप्तम एडवर्ड का राज्याभिषेक वर्णित है। श्रीहरि - एक महनीय भक्त कवि। गोदावरी-तट के निवासी। काश्यप गोत्री ब्राह्मण। 'हरिभक्ति-रसायन' नामक टीका के प्रणेता। टीका का रचना-काल सन् 1887। यह टीका भागवत के दशम स्कंध के पूर्वार्ध पर ही है। इनका कहना है कि भगवान् का प्रसाद ग्रहण कर ही वे इस टीका के प्रणयन में प्रवृत्त हुए। टीका से इनकी प्रतिभा प्रकाशित होती है। इस टीका का पुनर्प्रकाशन सन 1972 में हुआ। श्रीहर्ष - ई. 12 वीं सदी। 'नैषधीयचरित' (महाकाव्य) के कर्ता । इन्होंने महाकाव्य के प्रत्येक सर्ग के पश्चात् एवं ग्रंथसमाप्ति के बाद रचित चार श्लोकों में स्वयं के बारे में जानकारी दी है। आपके लिखे अन्य ग्रंथ है- विजयप्रशस्ति, अर्णव-वर्णन एवं नवसाहसांक-चरितचंपू। काव्ये व तर्क दोनों में उनकी बुद्धि चलती थी। कहते हैं कि योगसमाधि में आपको परब्रह्म का साक्षात्कार होता था। स्थैर्यविचारणा प्रकरण एवं ईश्वराभिसंधि नामक अन्य दो ग्रंथ भी आपकी ही रचनाएं हैं।
आपके काव्य में श्लेष, यमक, अनुप्रास इन शब्दालंकारों के साथ विविध अर्थालंकार, रस, ध्वनि, वक्रोक्ति आदि काव्यगत सौंदर्य एवं वैद्यकशास्त्र, कामशास्त्र, राज्यशास्त्र, धर्म, न्याय, ज्योतिष, व्याकरण, वेदान्त आदि परम्परागत शास्त्रीय ज्ञान इतना भरा है कि इसे 'शास्त्रकाव्य' कहने की प्रथा है। नैषधीय के अध्ययन से मन, बुद्धि सदृढ बनती हैं। इसे विद्वानों की बलवर्धक औषधि ('नैषधं विद्वदौषधम्') कहा गया है। श्रुतकक्ष - ऋग्वेद के आठवें मंडल के 92 वे क्रमांक के सूक्त के द्रष्टा। अंगिरस कुलोत्पन्न। इंद्र-सोम की स्तुति इनके सूक्त का विषय है। श्रुतकीर्ति - समय- ई. 12 वीं शती। नन्दिसंघ की गुर्वावली में श्रुतकीर्ति को वैयाकरण भास्कर लिखा है। कन्नड भाषा के चन्द्रप्रभचरित नामक ग्रंथ के कर्ता अग्गल कवि के ये गुरु थे। रचना- पंचवस्तु नामक व्याकरण ग्रंथ। श्रुतकीर्ति - ई. 16 वीं सदी। दिगम्बर संप्रदाय के भट्टारक। गुरु का नाम त्रिभुवनकीर्ति । मालवा के जेरहट ग्राम के नेमिनाथ मंदिर में हरिवंशपुराण, परमेष्ठीप्रकाशसार, योगसार एवं धर्मपरीक्षा नामक ग्रंथों की रचना आपने की। श्रुतसागर सूरि - मूलसंघ, सरस्वतीगच्छ और बलात्कारगण के आचार्य। सूरत-शाखा के भट्टारक। विद्यानन्द के शिष्य, देवेन्द्रकीर्ति के प्रशिष्य। मल्लिषेण के गुरुभाई। शिष्यनाम श्रीचंद्र। समय- ई. 16 वीं शती। ईडर के राजा भानु अथवा रविमाण के समकालीन। रचनाएं- यशस्तिलक-चन्द्रिका, तत्त्वार्थवृत्ति, तत्त्वत्रयप्रकाशिका, जिनसहस्रनाम-टीका, महाभिषेक
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 479
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