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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir होता है। जैन धर्म में इस प्रकार के नैष्ठिक एवं शुचिशील जीवन को अत्यंत महत्व होने के कारण, इस विषय का विवरण करने वाले अनेक ग्रंथ निर्माण हुए जिन में प्राकृत ग्रंथों की संख्या अधिक है। उनमें से कुछ ग्रंथों पर संस्कृत टीकाएँ लिखी • गई। संस्कृत ग्रंथों में उमास्वाती कृत प्रशमरति (श्लोक-313), श्रावकप्रज्ञप्ति; समन्तभद्रकृत रत्नकरण्डक श्रावकाचार (श्लोक-150); अमितगतिकृत उपासकाचार; माघनन्दी कृत श्रावकाचार; जिनेश्वरकृत श्रावकधर्म विधि; रत्नशेखर सूरि कृत आचारप्रदीप (श्लोक-4065), इत्यादि ग्रंथ उल्लेखनीय हैं। ___ तंत्रमार्ग के प्रभाव से भारत का एक भी धर्म संप्रदाय अछूता नहीं रह सका। तांत्रिक वाङ्मय विषयक प्रकरण में इस संबंध में विस्तारपूर्वक जानकारी दी है। जैन वाङ्मय में सकलचन्द्रगणि कृत प्रतिष्ठाकल्प; वसुनन्दकृत प्रतिष्ठासारसंग्रह (700 श्लोक); आशाधर कृत जिनयज्ञकल्प; जिनप्रभसूरि कृत सूरिमन्त्रबृहत्कल्पविवरण; सिंहतिलक सूरिकृत वर्धमानविद्याकल्प और मंत्रराजरहस्य; मल्लिषेणकृत विद्यानुशासन, सुकुमारसेनकृत विद्यानुवाद; मल्लिषेणकृत भैरवपद्मावतीकल्प; वालिनीकल्प, सरस्वती-मंत्रकल्प, कामचांडालिनीकल्प; चन्द्रकृत अद्भुतकदम्वावती कल्प; जिनप्रभसूरिकृत विविधतीर्थकल्प इत्यादि मंत्र तंत्र विषयक ग्रंथ उल्लेखनीय हैं। इनमें से कुछ ग्रंथों में संस्कृत और प्राकृत दोनों भाषाओं का प्रयोग हुआ है तथा उन पर लिखी हुई टीकाएं मुख्यतः संस्कृत भाषा में हैं। 4 "जैन-काव्य" जैन वाङ्मय का वर्गीकरण आगमिक, अन्वागमिक और आगमेतर नामक तीन भागों में किया जाता है। आगमिक वाङ्मय में आचारांत्र आदि 45 आगमों तथा उनपर लिखे नियुक्ति, चूर्णि, भाष्य और टीकाओं का अन्तर्भाव होता है। अन्वागमिक वाङ्मय में कसायपाहुड, षट्रखण्डागम तथा कुन्दकुन्दाचार्य आदि विद्वानों के महनीय ग्रंथ, तथा अन्य दार्शनिक ग्रंथों का अन्तर्भाव होता है। आगमेतर वाङ्मय में "धर्मकथानुयोग" के अन्तर्गत पूज्य अर्हन्त तथा कुलकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव आदि महापुरुषों की जीवनियों से संबंधित काव्यात्मक साहित्य का अन्तर्भाव होता है। यह आगमेतर साहित्य आगमिक साहित्य से सर्वथा स्वतंत्र नहीं है। उसने प्राचीन आगमों से ही बीजसूत्रों को लिया है और बाहरी उपादानों तथा नवीन शैलियों द्वारा उन्हें पल्लवित कर, एक स्वतंत्र रूप धारण किया है। ई. चौथी पांचवी शताब्दी से जैन काव्यों की रचना का प्रारंभ माना जाता है। इन काव्यों मे पौराणिक, ऐतिहासिक और शास्त्रीय महाकाव्यों, खण्डकाव्यों, गद्यकाव्यों, नाटक, चम्पू, कथा आदि विविध ललित काव्यप्रकारों का अन्तर्भाव होता है। प्राचीन जैन वाङ्मय प्रधानतथा प्राकृत तथा संस्कृत भाषा में लिखा गया है। प्रस्तुत प्रकरण में केवल संस्कृत वाङ्मय का संक्षिप्त परिचय देते हुए यथावसर श्रेष्ठ प्राकृत ग्रंथों का भी निर्देश किया है। "धर्मकथानुयोग" के अन्तर्गत काव्यात्मक रचनाकारों का प्रधान उद्देश्य यही था, की उन द्वारा जैन धर्म के आचार और विचार आदि को रमणीय एवं रोचक शैली में प्रस्तुत कर, सामान्य जनता में धार्मिक चेतना एवं भक्तिभावना उद्दीपित हो। इस धार्मिक भावना को प्रकट करने में उन्होंने जैनधर्म के जटिल सिद्धान्तों और मुनिधर्म संबंधी नियामों को उतना अधिक महत्त्व नहीं दिया, जितना कि ज्ञातदर्शन-चरित्र के सामान्य विवेचन के साथ, अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, दान, शील, तप, स्वाध्याय आदि आचरणीय धर्मों को प्रतिपादित किया है। सामान्य गृहस्थाश्रमी जैन बांधवों के लिए व्रत, पर्व, तीर्थादि-माहात्म्य, तथा विशिष्ट पुरुषों का चरित्रवर्णन करते हुए कथात्मक ग्रंथरचना की ओर भी उन्होंने विशेष ध्यान दिया। ये सभी काव्यग्रन्थ मुख्यतः धार्मिक या धर्मपरक हैं। इन में से कई काव्यों में ब्राह्मण, बौद्ध, चार्वाक आदि दर्शनों के सिद्धान्तों का खण्डन और जैन दर्शन मण्डन है। ये काव्य रस की दृष्टि से अधिकांश शान्तरस प्रधान है। इन में शृगार, वीर, रौद्र, आदि अन्य रस गौण होते हैं। अनेक जैन पौराणिक महाकाव्यों की कथावस्तु जैन परंपरा में प्रसिद्ध शलाका-पुरुषों के जीवन चरितों को लेकर निबद्ध की गई है। इन शलाकापुरुषों की संख्या जिनसेन और हेमचंद्र ने 63 दी है। समवायांगम में 24 तीर्थंकर, 12 चक्रवर्ती, १ नारायण और १ बलदेव को ही "उत्तम पुरुष" मान कर कुलसंख्या 54 दी है। पर उनमें 9 प्रतिनारायणों को जोड़ कर 63 संख्या बनती है। भद्रेश्वर ने अपनी कथावलि में 9 नारदों की संख्या जोडकर शलाकापुरुषों की संख्या 72 दी है। शलाकापुरुष शब्द का अर्थ, शलाका अर्थात सम्यक्त्व से युक्त महापुरुष। हेमचद्राचार्य का त्रिषष्टि-शलाकापुरुषचरित एक महान संस्कृत आकर ग्रंथ है। उसमें अनेक पौराणिक महाकाव्यों के बीज हैं। उल्लेखनीय पौराणिक काव्यों की सूचि :महापुराण- (आदि पुराण और उत्तरपुराण सहित पर्वसंख्या-76) आदिपुराण के लेखक-जिनसेन और गुणभद्र। उत्तर पुराण के लेखक गुणभद्र और लोकसेन । पुराणसारसंग्रह :- ले. दामनन्दी । इस में आदिनाथ, चंद्रप्रभ, शान्तिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और महावीर इन तीर्थंकरों के चरित्र संकलित हैं। त्रिषष्टिशलाकापुराण (अपरनाम-महापुराण):- ले. आशाधर। अध्याय-24। श्लोक-4801 194 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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