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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir में आगमों का स्वरूपलक्षण सात प्रकार का कहा है। तदनुसार, सृष्टि, प्रलय, देवतार्चन, सर्वसाधन, पुरश्चरण, षटकर्मसाधन 1) शांति, 2) वशीकरण, 3) स्तंभन, 4) विद्वेषण, 5) उच्चाटन और 6) मारण) और 7) चतुर्विध ध्यान, इन सात विषयों का आगमों में प्रतिपादन होता है। 2 तंत्रशास्त्र और वेद । जिस प्रकार व्याकरणादि को "शास्ति इति शास्त्रम्" इस व्युत्पत्ति के अनुसार शास्त्र माना जाता है, उसी प्रकार आगमों को भी शास्त्र माना जाता है। व्याकरण साधु शब्दप्रयोग का, न्याय प्रमाणप्रमेयादि का, पूर्वमीमांसा शास्त्र कर्तव्यपदार्थों का और उत्तर मीमांसा शास्त्र आत्मस्वरूप की प्राप्ति का शासन करते हैं। उसी प्रकार आगम भी पूर्व और उत्तर मीमांसा का कार्य संपादन करने के कारण "शास्त्र" कहा जाता है। पूर्वमीमांसा और उत्तर मीमांसा का अपर नाम है पूर्वतंत्र और उतरतंत्र। इसी कारण पूर्वमीमांसा विषयक वाङ्मय में तन्त्रवार्तिक, तन्त्ररहस्य, तन्त्रसिद्धान्तरत्नावली, तंत्रसार, तंत्रशिखामणि इत्यादि तंत्र-शब्दयुक्त ग्रन्थनाम मिलते हैं। जैमिनि के द्वादशाध्यायी मीमांसाग्रन्थ में 11 वें अध्याय का नाम ही तंत्राध्याय है। अंतर केवल इतना ही है कि तंत्रशास्त्रविषयक, वाराहीतंत्र, योगिनीतंत्र, इत्यादि ग्रन्थों के नामों में तंत्र शब्द अंत में मिलता है जब कि मीमांसाशास्त्र के ग्रन्थों में वह आरंभ में आता है। इसका कारण यह हो सकता है कि जिस प्रकार आधुनिक समय में विज्ञान (साइंस) के प्राधान्य के कारण भाषाविज्ञान, आयुर्विज्ञान, नाडीविज्ञान, भौतिकविज्ञान इत्यादि विज्ञान शब्दयुक्त शास्त्रों के नाम रूढ हो रहे हैं, उसी प्रकार प्राचीन काल में तंत्र' की प्रधानता के कारण, तंत्र शब्द सहित ग्रन्थों के नाम दिये गये। मीमांसक अपने कर्मकाण्ड में याग, होम, दान, भक्षण इत्यादि शब्दों का प्रयोग करते हैं, उसी प्रकार तंत्रशास्त्रकार भी याग, होम, महायाग, अन्तर्याग, बहिर्याग, यागशाला, देवता, कर्म, प्रयोग, अधिकार इत्यादि शब्दों का प्रयोग करते हैं। इसमें कर्ता और अनुकर्ता कौन है यह कहना असंभव है। तंत्र और मीमांसा दोनों शास्त्रों की प्राचीनता इस प्रकार के शब्दसाम्य से सिद्ध होती है। वैदिक कर्मों के समान तांत्रिक कर्मों में भी अर्थज्ञान सहित मंत्रोच्चारण आवश्यक माना गया है। तांत्रिक कर्मों में वैदिक और तांत्रिक दोनों मंत्रों का उच्चारण होता है। अगस्त्य ऋषि ने तंत्रसिद्ध मंत्रों के अर्थ का विवरण इसी कारण किया है। वेदमंत्रों के प्रत्येक अक्षर में अद्भुत शक्ति होती है यह सिद्धान्त याज्ञिक मीमांसकों के समान तांत्रिकों को भी संमत है। वेदों में जिस प्रकार ज्ञान कर्म और उपासना नामक तीन कांड होते हैं, उसी प्रकार तंत्रों में भी ज्ञान, चर्या और उपासना नामक तीन विभाग होते हैं। याज्ञिक और तांत्रिक इन दोनों परम्परा में कर्म का प्रारंभ करते समय गुरुपरम्परा का अनुस्मरण आवश्यक माना गया है। उसी प्रकार चित्तवृत्ति को दृढ करने के लिए कर्मानुष्ठान करते समय अपने शरीर के भिन्न भिन्न स्थानों पर श्रीचक्र के भागों का एवं उनकी अधिष्ठात्री देवताओं का भावना से विन्यास तंत्रसाधक करते हैं। वैदिकों के यागों में भी "तस्यैवं विदुषो यज्ञस्यात्मा यजमानः श्रद्धा पत्नी, शरीरमिध्मम्" इत्यादि मंत्रों के अनुसार यज्ञीय पदार्थों की भावना की जाती है। आगम (तंत्र) और निगम (वेद) मार्गों की समानता का यह द्योतक है। "अष्टाचक्रा नवद्वारा देवनां पूरयोध्या। तस्यां हिरण्मयः कोशः स्वर्गों लोको ज्योतिषावृतः" यह एक ही मंत्र वैदिकों के चयनयाग में और तांत्रिकों की साधना में उच्चारित होता है, यद्यपि उसका आशय भिन्न माना जाता है। दक्षिण भारत में श्रौतयागों का अनुष्ठान करनेवाले प्रायः सभी वैदिक विद्वान, तांत्रिक पद्धति से श्रीचक्र की उपासना करते है। इस प्रकार वैदिक और तांत्रिक मार्गों में प्राचीन काल से अभेद सा माना हुआ दिखाई देता है। 3 उपनिषद और शक्तिसाधना वेदों में तांत्रिक शक्तिरूपों के कुछ नाम पाये जाते हैं जैसे यजुर्वेद के "श्रीश्च ते लक्ष्मीश्च" इस मंत्र में श्री एवं लक्ष्मी का नाम आता है। इनका संबंध सूर्य की शक्ति तथा सौन्दर्य से माना गया है। मुण्डकोपनिषद के “काली कराली च मनोजवा च। सुलोहिता या च" (4/1) इस मंत्र में अग्नि की विविध वर्गों की लपटों में जिह्वा के आरोपण क्रम में 'काली' नाम आता है किन्तु लौकिक और तांत्रिक व्यवहार में काली इत्यादि संज्ञाओं से मानवाकृति उपास्य देवताविशेष का निर्देश होता है। सामवेद के इन्द्रपरक मंत्रों में सूर्य की चर्चा है। तदनुसार शक्तिरूप सूर्य का परिचय मिलता है। सूर्य के प्रकाश में बैठना तथा स्वयं को सूर्यशक्ति से सम्पन्न होते हुये अनुभव करना वैदिकी शक्तिसाधना मानी जाती है। सामवेद में गोपवान् ऋषि की चर्चा है जिसने शरीरस्थ अग्निशक्ति (जो रस-धातुओं का परिपाक करती है) के योगक्षेम की प्रार्थना की है। वाग्देवी का निर्देश पंचतत्त्वों से निर्मित आकाश में किया गया है। इस वाग्देवी (अर्थात वाणी) के कारण ही एक, दूसरे के अभिमुख होता है। पितरों की आराधना करने वाले "श्राद्ध" करते हैं। श्रद्धा की शक्ति अर्थात् "श्रद्धादेवी" मानव में रहती है। इसी श्रद्धादेवी या शक्ति के कारण मनुष्य में ज्ञान का उदय होता है। 'श्रद्धावान् लभते ज्ञानम्' यह सिद्धान्त भगवद्गीता में कहा गया है। इसी प्रकार सामवेद में ज्वालादेवी, अदिति, सरस्वती, गायत्री, तथा गंगादेवी की चर्चा की गई है। अथर्ववेद में पशुधन का दायित्व, नारीशक्ति को बताया है। व्यष्टि जीवन में नारी भरण पोषण करने भार्यारूप स्त्री है। समष्टिजीवन में वही शक्ति पृथ्वी या धरा संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 155 For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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