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और शैव तथा रौद्र आगाम
योजक, चिंत्य, कारण, आजत
गैरव, मकुट,
पंचाम्नाय : परंपरानुसार आगमों (या तंत्रों) की उत्पत्ति भगवान शिव के पांच मुखों से मानी गयी है। पांच मुखों के नाम है : 1) सद्योजात 2) वामदेव 3) अघोर 4) सत्पुर और 5) ईशान। इन मुखों से निर्गत आगमों की कुल संख्या 28 है। पंचाम्नाय के अन्तर्गत 28 आगमों के नाम और शैव तथा रौद्र आगमों में अन्तर्भूत 28 आगमों के नामों में कुछ साम्य है।
अठ्ठाईस शैवागमों के दो विभाग हैं : 1) शैवागम = कामिक, योजक, चिंत्य, कारण, अजित, दीप्त, सूक्ष्म, सहस्र, अंशुमान और सुप्रभ (या सुप्रभेद) (कुल 10)। 2) रौद्रिक आगम = विजय, निश्वास, स्वायंभुव, आग्नेयक, भद्र, रौरव, मकुट, विमल, चंद्रहास, मुखबिंब, प्रोद्गीत, ललित, सिद्ध, संतान, नारसिंह, (सर्वोक्त या सर्वोत्तर) परमेश्वर, किरण और पर (या वातुल) (कुल 18)।
64 भैरवागम : श्रीकंठी संहिता में इस तंत्र के "अष्टक' नामक आठ विभाग हैं। इन अष्टकों के नाम हैं : 1) भैरवाष्टक 2) यामलाष्टक, 3) मताष्टक, 4) मंगलाष्टक, भ) चक्राष्टक, 6) बहुरूपाष्टक, 7) वागीशाष्टक और 8) शिखाष्टक। इन आठ अष्टकों में प्रत्येकशः आठ तंत्रों का अन्तर्भाव होता है। इस प्रकार भैरवागमों की संख्या 64 मानी गयी है। इनमें भैरवाष्टक, यामलाष्टक और मताष्टक के अंतिम भाग अप्राप्य होने के कारण 64 संख्या पूर्ण नहीं होती।
64 तंत्र : आगमतत्त्वविलास में निम्नलिखित 64 तंत्रों की नामावली प्रस्तुत की है :- स्वतंत्र, फेत्कारी, उत्तर, नील, वीर, कुमारी, काल, नारायणी, बाला, समयाचार, भैरव, भैरवी, त्रिपुरा, वामकेश्वर, कुक्कुटेश्वर, मातृका, सनत्कुमार, विशुद्धेश्वर, संमोहन, गौतमीय, बृहद्गौतमीय, भूत-भैरव, चामुण्डा, पिंगला, वाराही, मुण्डमाला, योगिनी, मालिनीविजय, स्वच्छंदभैरव, महा, शक्ति, चिंतामणि, उन्मत्तभैरव, त्रैलोक्यसार, विश्वसार, तंत्रामृत, महाफेत्कारी, वायवीय, तोडल, मालिनी, ललिता, त्रिशक्ति, राजराजेश्वरी, महामाहस्वरोतर, गवाक्ष, गांधर्व, त्रैलोक्यमोहन, हंसपारमेश्वर, कामधेनु, वर्णविलास, माया, मंत्रराज, कुन्तिका, विज्ञानलतिका, लिंगागम, कालोतर, ब्रह्मयामल, आदियामल, रूद्रयामल, बृहद्यामल, सिद्धयामल और कल्पसूत्र ।
भैरवागम के आठ अष्टकों में अन्तर्भूत 64 आगमों के नाम इन 64 तंत्रों से अलग हैं।
सूत्रपंचक : निश्वास-संहिता (ई. 7 वीं शती) नामक ग्रन्थ नेपाल में प्राप्त हुआ। इस में लौकिकसूत्र, मूलसूत्र, उत्तरसूत्र, नयनसूत्र और गृह्यसूत्र नामक पाच विभाग हैं। इनमें लौकिकसूत्र उपेक्षित है। उतरसूत्र में 18 प्राचीन शिवसूत्रों का उल्लेख मिलता है।
शुभागमपंचक : वसिष्ठसंहिता, सनकसंहिता, सनंदनसंहिता, शुकसंहिता और सनत्कुमारसंहिता इन पांच आर्ष संहिताओं को "शुभागम" कहते हैं। इन संहिताओं का तांत्रिकों के समयाचार में अन्तर्भाव होता है। समयाचार का ही अपरनाम है कौल मार्ग।
श्रीविद्यासंप्रदाय : तांत्रिकों के इस संप्रदाय में कादि, हादि और कहादि नामक तीन तंत्रभेद माने जाते हैं। कादि विभाग में प्रधान देवता काली है। इस मत में त्रिपुरा उपनिषद् और भावनोपनिषद् विशेष महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं। हादितमत में त्रिपुरासुंदरी प्रधान देवता है। त्रिपुरातापिनी उपनिषद् में इस मत का प्रतिपादन हुआ है। दुर्वासा मुनि हादि विद्या के उपासक माने जाते हैं।
___ कहादि-मत में तारा अथवा नीलसरस्वती प्रधान देवता है। क और ह वर्ण महामंत्र हैं, ककार से ब्रह्मरूपता और हकार से शिवरूपता की प्राप्ति इस मत में मानी जाती है। बंगाल में विरचित तांत्रिक ग्रंथों की संख्या अधिक है। श्यामारहस्य, तारारहस्य, छिन्नमस्तामंत्ररहस्य, महानिर्वाणतंत्र, कुलार्णवतंत्र, बृहत्कालीनतंत्र, चामुंडातंत्र, बगलातंत्र इत्यादि बंगाली आचार्यों के महत्त्वपूर्ण ग्रंथों में अन्य तांत्रिकों के अनैतिक वामाचार को टाल कर तंत्राचार का शुद्धीकरण करने का प्रयास हुआ है।
तांत्रिक ग्रंथों में उपनिषद, सूत्र, मूलतंत्र, सारग्रंथ, विधिविधानसंग्रह, स्वतंत्रप्रबंध, विवरण इत्यादि विविध प्रकार होते हैं। परशुराम कल्पसूत्र जैसे ग्रंथों को तांत्रिक कर्मकाण्ड में वैदिक कल्पसूत्रों जैसी मान्यता दी जाती है।
तांत्रिक उपनिषद् ग्रंथ : शैव, शाक्त और वैष्णव संप्रदायों में मान्यता प्राप्त तांत्रिक उपनिषदों की संख्या काफी बडी है। प्रस्तुत कोश में अनेक तंत्रिक उपनिषदों का यथास्थान संक्षिप्त परिचय दिया गया है। इन उपनिषदों की रचनाशैली आपाततः वैदिक उपनिषदों क समान है। परंतु भाषा की दृष्टि से वे उतरकालीन प्रतीत होते हैं। तांत्रिक साधकों की दृष्टि में इन उपनिषदों को महत्त्वपूर्ण स्थान है। तंत्रव्याकरण, शैवव्याकरण इत्यादि ग्रंथों में तांत्रिक-व्युत्पत्ति का मार्गदर्शन किया है। इस पद्धति में वर्णमाला के अक्षरों के गूढ अर्थों का विवेचन अधिक मात्रा में होता है।
यामलग्रंथ : तांत्रिक आगम ग्रंथों के बाद रुद्र, स्कन्द, विष्णु, यम, वायु, कुबेर और इन्द्र इन देवताओं के नामों से संबंधित यामल ग्रंथों की रचना हुई। जयद्रथयामल नामक 24 हजार श्लोकों का ग्रंथ ब्रह्मयामल का परिशिष्ट माना जाता है और पिंगलमत यामल, जयद्रथ यामल का परिशिष्ट है । यामल ग्रंथों के निर्माताओं ने तांत्रिक साधना में जातिभेद को स्थान नहीं दिया।
सारग्रंथ : इन ग्रंथों में तांत्रिक विधि-विधानों का सविस्तर प्रतिपादन मिलता है। इस प्रकार के तांत्रिक ग्रंथों की रचना भारत के सभी प्रदेशों में मध्ययुगीत कालखंड में हुई। तंत्रमार्ग की लोकप्रियता सारग्रंथों की बहुसंख्या से अनुमानित होती है। शंकराचार्यकृत प्रपंचसार और लक्ष्मण देशिककृत शारदातिलक इत्यादि सारग्रंथों को तांत्रिक वाङ्मय में विशेष मान्यता है। वाराहीतंत्र
154 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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