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केरल में कालटी नामक एक गांव है। इसी से सटकर जो नदी है उसे अलवाई कहते हैं। वहीं शिवगुरु नामक एक तपोनिष्ठ नंपूतिरी ब्राह्मण थे। उनकी पत्नी का नाम विशिष्टा या सती था। दोनों शिवभक्त थे। शिव की उपासना करने पर वैशाख शुद्ध पंचमी पर उन्हें पुत्रप्राप्ति हुई। शिवकृपा के कारण शंकर नाम रखा गया। शंकर के पिता की मृत्यु कुछ ही दिनों बाद हो गई। मां ने पांचवें वर्ष में इनका उपनयन कराया। विद्याध्ययन प्रारंभ हुआ। शंकर के मन में संन्यास लेने की इच्छा जागृत हुई। मां की अनुमति मिल पाना कठिन था। कहते है एक बार नदी में स्नान करते समय एक मगरमच्छ ने शंकर का पैर पकड़ लिया। पैर छूट नहीं रहा था। शंकर ने मां से कहा कि वे अब बच नहीं सकते। उन्हें मरते समय तो संन्यास लेने की अनुमति दे। व्यथित मां ने स्वीकृति दी। उसी समय कुछ केवट सहायतार्थ दौडे और शंकर बचा लिये गये।
शंकर ने नर्मदा-तीर पर समाधि लगाये बैठे गोविन्द यति के पास पहुंचकर उनसे संन्यास-दीक्षा ली और वे शंकराचार्य बने। इस संबंध में एक कथा है। एक बार गुरु समाधिस्थ थे। नर्मदा में बाढ आई थी। उन्होंने मिट्टी का एक घडा गुफा के द्वार पर रख दिया। बाढ़ का पानी उस घडे में जाता और वहीं समा जाता। उसे गुफा में जाने का मौका ही नहीं मिला। बाढ उतर गयी। गुरुजी जब समाधि से उठे, तो उन्होंने यह चमत्कार देखा। आचार्य के सामर्थ्य का उन्हें ज्ञान हुआ। उन्होंने कहा- "तुरन्त काशी जाओ, विश्वनाथजी का दर्शन लो और ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखो। वेद व्यास कह गये हैं कि जो कोई बाढ पानी घडे में समा लेगा वही मेरे ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिख सकेगा।" __ गुरु की आज्ञा लेकर आचार्य काशी पहुंचे और । मणिकर्णिका-घाट पर वेदान्त के पाठ देने लगे। गुरु बारह वर्ष का, और उसके शिष्य तरुण-प्रौढ । काशी के विद्वानों को आश्चर्य होता। इन्हीं में एक विद्वान थे सदानंद। वे ही आचार्य के प्रथम शिष्य थे। ___ एक दिन आचार्य मध्याह्नकृत्य; लिये गंगा की ओर जा रहे थे। बीच में एक चांडाल आया। आचार्य ने उसे हटने के लिये कहा। इस पर उस चांडाल ने विनीत भाव से कहा- "यतिवर्य, ओ अद्वैती! जो परमात्मा सर्वत्र है, वही मुझमें भी है। मुझे हटने के लिये स्थान ही कहां है। यतिराज, आप अद्वैत के पाठ ही देते हैं, पर वह बुद्धि में ही रहा है। उसका अनुभव नहीं'
आचार्य अवाक् रह गए। "तुम मेरे गुरु हो" कहकर, उन्होंने चांडाल को प्रणाम किया। वह चांडाल, साक्षात् काशी-विश्वनाथ थे। आचार्य को उन्होंने बाद में दर्शन दिया।
आचार्य वहां से बदरिकाश्रम की ओर रवाना हुए। मार्ग
में उन्होंने तांत्रिकों द्वारा अपनाई गई नरबलि की प्रथा बंद करवाई। बदरी क्षेत्र में, उन्हें मंदिर में नारायण-मूर्ति दिखाई नहीं दी। चीनी मूर्तिभंजकों के भय से वह नारदकुंड में डाली गई और वहां से उसे निकालना कठिन है यह ज्ञात होते ही, वे अलकनंदा के नारदकुंड में कूद पडे और नारायण मूर्ति को निकाल लाये। फिर समारोहपूर्वक उन्होंने उसकी प्रतिष्ठा की। वहां के पुजारी मंत्रमुख नहीं थे। अतः उन्होंने केरल के वैदिक विद्वान् बुलवाये और उन्हें पूजा का अधिकार सौंपा।
बदरीक्षेत्र के पास व्यासतीर्थ है। वहीं व्यास आश्रम है। कहते हैं व्यासजी ने वहां "भारत" की रचना की थी। आचार्य वहीं गये और उन्होंने ब्रह्मसूत्र, गीता व उपनिषदों पर भाष्य लिखे। एक कथा के अनुसार वहीं भगवान वेद व्यास ने भी उन्हें दर्शन दिये । आचार्यजी की आयु उस समय सोलह वर्ष थी।
आचार्य इसके बाद प्रयाग रवाना हुए। प्रयाग में त्रिवेणी-संगम पर कुमारिल भट्ट का वास्तव्य था। वे महा मीमांसक एवं वैदिक कर्मकांड के प्रखर अभिमानी थे। वहां पहुंचने पर ज्ञात हुआ कि भट्ट स्वयं को तुषाग्नि में जला रहे हैं। आचार्यजी के प्रश्न पर इन्होंने कहा कि बौद्ध धर्म का सप्रमाण खंडन करने के लिये, उन्होंने उसका सूक्ष्म ज्ञान नालंदा विश्वविद्यालय में प्राप्त किया। वहीं धर्मपाल नामक उनके गुरु से वादविवाद में उन्होंने गुरु को परास्त किया। इस गुरुद्रोह पर वे प्रायश्चित्त ले रहे हैं। आचार्यजी के आग्रह पर भी भट्ट नहीं माने और उन्होंने स्वयं को जला लिया। इसके बाद आचार्य मध्यप्रदेश पहुंचे, जहां माहिष्मती नगरी में महान् कर्मकाण्डी मंडनमिश्र रहते थे। मीमांसा-श्रेत्र में उनका शब्द प्रमाण था। अतः अद्वैत वेदान्त के अबाधित प्रचार के लिये, उन्हें अनुकूल करना आवश्यक था। उनके साथ शास्त्रार्थ हुआ और आचार्यजी विजयी रहे। पर उनकी पत्नी ने उन्हें चुनौती दी, उनके साथ शास्त्रार्य में जब कामशास्त्र के प्रश्न उठे, तो आचार्य ने अनुभवज्ञान के लिए छह माह की अवधि मांगी। फिर उसी समय मृत हुए राजा अमरु के शरीर में प्रवेश कर उन्होंने इस शास्त्र की जानकारी प्राप्त की, एवं छह माह बाद लौटकर शास्त्रार्थ में विजयी हुए। मंडनमिश्र आचार्य के शिष्य बने और उन्होंने अपना सारा विद्यावैभव अद्वैत सिद्धान्त के मंडन में ही सार्थक किया।
शंकराचार्य अपने प्रवास में केरल में अपने जन्म ग्राम पहुंचे। उनकी मां वहां मृत्युशय्या पर थी। पुत्र की भेंट के बाद उनकी मृत्यु हुई। धर्मशास्त्र के अनुसार संन्यासी को अपने किसी भी रिश्तेदार की अंत्येष्टि नहीं करनी चाहिये। किन्तु किसी भी ब्राह्मण के आगे नहीं बढने से, आचार्यजी मां का शव किसी भांति बाहर ले आये और घर के आंगन में ही उन्होंने अंत्येष्टि की।
आचार्य ने देश भर प्रवास कर अद्वैत सिद्धान्त का प्रसार
466 / संस्कत वाङमय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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