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कथा (अध्याय
कथाओं के अलावा उपाख्यान।
18) ब्रह्माण्ड पुराण- अध्याय संख्या-109 :
1) कृष्णलीला, 2) रामायण की कथा, 3) परशुराम की कथा (अध्याय 21-27)। 4) गंगावतरण की कथा (अ. 47-57)| 5) भंडासुरवधकथा, 6) ललितादेवी उपाख्यान ।
सभी पुराणों में इन कथाओं के अतिरिक्त अनेक संवादों में तीर्थक्षेत्रों, देवताओं, नदियों, पर्वतों आदि का माहात्म्य, देवता स्तोत्र अनेक शास्त्रा के उपदेश, सृष्टि की उत्पत्ति, प्रलय, इत्यादि विविध विषयों का प्रतिपादन उनकी अपनी विशिष्ट शैली में किया है। भारतीय संस्कृति तथा परम्परा का ज्ञान प्राप्त करने की दृष्टि से जिज्ञासु को कम से कम किसी एक पुराण का ठीक
अध्ययन करना आवश्यक है। आधुनिक विद्वानों ने पुराण का समय, रचनास्थान, श्लोकसंख्या, पौर्वापर्य, ऐतिहासिक सामग्री, भूगोलज्ञान, इत्यादि, विविध दृष्टि से पुराणों का परिशीलन किया है, परंतु उनके प्रतिपादन में कहीं भी एकवाक्यता नहीं दिखाई देती। सभी विषयों में विद्वानों के मतभेदों के कारण किसी भी विषय के संबंध में निश्चित कुछ कहना अशक्य है।
4 "रामायण और महाभारत" भारतीय संस्कृति के विकास तथा गठन में पुराण वाङ्मय का योगदान जितना महत्त्वपूर्ण है उतना ही, किंबहुना उससे भी अधिक मात्रा में रामायण और महाभारत रूपी इतिहास वाङ्मय का योगदान माना जाता है। भारत के राष्ट्रीय धर्म तथा नैतिक मूल्यों का यथोचित ज्ञान आबालवृद्ध स्त्री-पुरुषों को, पुराणों एवं रामायण महाभारत के द्वारा इतनी उत्कृष्ट रीति से हुआ है कि उसका परिणाम यहां की जीवन प्रणाली में शाश्वत सा हो गया है। श्रुति-स्मृति से भी पुराणों एवं रामायण महाभारत रूप इतिहास की कथाओं द्वारा प्रतिपादित नैतिक सिद्धान्तों का प्रभाव अखिल भारत भर में, सभी पंथोंपपंथों एवं जाति-उपजातियों में विभाजित हिन्दू समाज पर चिरकाल तक रहेगा इसमें संदेह नहीं।
रामायण महाभारत का विस्तार पुराणग्रंथों के समान भरपूर है तथा उनमें आधिदैविक अद्भुतता का अंश भी पुराणों के समान पर्याप्त मात्रा में मिलता है। तथापि इन दो महाग्रंथों की गणना पुराणों या उपपुराणों में नहीं होती। इन दोनों ग्रंथों का स्वरूप पौराणिक शैली में लिखित ऐतिहासिक महाकाव्यों जैसा है। रामायण तो "आदिकाव्य" ही माना गया है और उसके रयचिता महर्षि वाल्मीकि को “आदिकवि" कहा गया है। संसार का कोई भी महाकाव्य इस महाकाव्य के समान, उनके अपने राष्ट्र में सर्वमान्य नहीं हुआ है। वाल्मीकि रामायण की प्रस्तावना में प्रत्यक्ष ब्रह्मदेव ने वाल्मीकि ऋषि को अभिवचन दिया है कि
यावत् स्थास्यन्ति गिरयः सरितश्च महीतले।
तावद् गमायणकथा लोकेषु प्रचरिष्यति।। -इस धरती पर पर्वत और नदियाँ जब तक रहेंगी, तब तक रामायण की कथा सर्वत्र प्रचारित होती ही रहेगी।
ब्रह्माजी का यह अभिवचन आज तक सत्य हुआ है और निःसंदेह आगे भी होता रहेगा। बारह वीं शती में तमिल भाषा में इस महाकाव्य का प्रथम अनुवाद हुआ, उसके बाद हिंदुस्थान की सभी प्रादेशिक भाषा में रामायण के अनुवाद और रामायण पर आधारित उत्तमोत्तम काव्य ग्रंथ निर्माण हुए। गोस्वामी तुलसीदासजी का, नीति, धर्म एवं तत्त्वज्ञान-प्रचुर महाकाव्य रामचरित मानस ई. 17 वीं शती के पूर्वार्ध में अवधी भाषा में निर्माण हुआ, जो समस्त हिंदीभाषी प्रदेश में वेदतुल्य पवित्र माना जाता है। उत्तर भारत के लोकनाट्य में "रामलीला" के प्रयोग अत्यंत लोकप्रिय हैं। सदियों से लाखों की संख्या में जनता "रामलीला" का आनंद लूट रही है। रामायण के महावीर हनुमान इस राष्ट्र के संकटमोचक ग्रामदेवता हैं। कल्हण की राजतरंगिणी में काश्मीर के राजा दामोदर की आख्यायिका में कहा है कि राजा को किसी शाप के कारण सर्पयोनि में जाना पड़ा। उस अवस्था में राजा ने एक ही दिन में संपूर्ण रामायण का श्रवण किया, तब उसको मुक्तता प्राप्त हुई। श्रीमद्भागवत में (स्कन्ध 11 अध्याय 5) कलियुग की उपास्य देवता के नाते श्रीरामचंद्र का निर्देश किया है। केवल श्रीराम ही नहीं तो रामायण ग्रंथ भी उपासना का विषय हुआ है। अनेक उपासक अपनी उपासना में सुंदरकांड का पारायण करते हैं और उसमें
के श्लोकों का मंत्रवत् विनियोग करते हैं। मानव जीवन के शाश्वत दिव्यादर्श चित्रित करने की प्रेरणा से महर्षि वाल्मीकि ने रामचरित्र विषयक अपने महाकाव्य की रचना की। इसकी अपूर्वता के कारण अतिप्राचीन काल से आज तक समस्त रसिक वर्ग ने इसे शिरोधार्य “आदिकाव्य' माना। इस आदिकाव्य का धीरोदात्त नायक, मानवी जीवन का ऊर्जस्वल आदर्श होने के कारण स राष्ट्र में परमपूज्य "धर्मपुरुष" माना गया। "रामो विग्रहवान् धर्मः" यह सुभाषित सर्वमान्य हुआ और वाल्मीकि रामायण इस हिंदुराष्ट्र के समस्त सुशिक्षित एवं अशिक्षित जनता का एक प्रमाणभूत धर्मग्रंथ हो गया है। महर्षि वाल्मीकि ने अपने इतिहासात्मक महाकाव्य में दैवी और आसुरी संपदा का शाश्वतिक संग्राम इतने मनोरम स्वरूप में चित्रित किया है कि उसे पढ़ कर "रामादिवत्
वर्तितव्यं न रावणादिवत्" (राम सीता लक्ष्मण आदि के समान अपना वर्तन रखना चाहिए न कि रावण कुंभकर्ण आदि असुरों क समान) यह प्रेरणा रामायण का श्रवण मनन करने वाले प्रत्येक सुबुद्ध व्यक्ति के अंतःकरण में स्वयमेव अंकुरित होती है।
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड 177
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