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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रजा का पालन ही राजा का मुख्य कर्तव्य है, इस सिद्धान्त को स्थिर करने के लिए शांतिपर्व में (धर्मशास्त्र के अनुसार) नियम बताया गया कि "प्रत्याहर्तुमशक्यं स्याद् धनं चौरेर्हतं यदि। तत्स्वकोशात् प्रदेयं स्यादशक्तेनोपजीवतः ।। चोरों द्वारा लूटा गया प्रजानन का धन, चोरों से मिलने के प्रयत्न में अपयश आने पर राजा ने अपने निजी कोश से देना चाहिए। प्रजापालन का संपूर्ण दायित्व राजा को निभाना चाहिए, यह सिद्धान्त इस प्रकार के नियमों द्वारा दृढमूल किया गया था। राज्य केवल संरक्षक ही नहीं अपि तु कल्याणकारी होना चाहिए यही भी तत्त्व शांतिपर्व में प्रतिपादन किया गया है। भीष्माचार्य कहते हैं : "कृपणानाथंवृद्धानां विधवानां च योषिताम्। योगक्षेमं च वृत्तिं च नित्यमेव प्रकल्पयेत् ।। आश्रमेषु यथाकालं चैलभाजनभोजनम्। सदैवोपहरेद् राजा सत्कृत्याभ्यर्च्य मान्य च।। जीविकाहीन अनाथ, वृद्ध तथा विधवा स्त्रियों का पालन संरक्षण करना एवं विद्या प्रदान करने वाले आश्रम, गुरुकुल, मठ, मंदिरों में रहने वाले विद्वान तपस्वी लोगों को अन्न, वस्त्र पात्र आदि सब आवश्यक साधन देना यह सारा दायित्व राजा का ही माना गया है। वार्धक्य वृत्ति (ओल्ड एज पेन्शन) की योजना इंग्लंड जैसे पाश्चात्य राष्ट्र में आधुनिक काल में मान्य हुई है। महाभारतकार ने यह योजना कलियुग के प्रारंभ में सिद्धान्त रूप से प्रतिपादन की है। राजा के अमात्य अथवा तत्सम श्रेष्ठ अधिकारी चारों वर्षों से चुने जाना चाहिये यह मत, "चतुरो ब्राह्मणान् वैद्यान् प्रगल्भान् स्रातकान् शुचीन्। क्षत्रियांश्व तथा चाष्टौ बलिनः शस्त्रपाणिनः । वैश्यान् वित्तेन सम्पन्नान् एकविंशतिसंख्यया। त्रीश्च शूद्रान् विनीतांश्च शुचीन् कर्मणि पूर्वके ।। इन श्लोकों में प्रतिपादन किया है। राजा की मंत्रिपरिषद में चार ब्राह्मण, आठ क्षत्रिय, इक्कीस वैश्य और तीन शूद्र मिला कर जो 26 अधिकारी नियुक्त किये जाते थे, वे सभी विद्या, विनय, शुचित्व इत्यादि गुणों से युक्त होना आवश्यक माना गया है। इन गुणों से हीन अधिकारी शासन में और समाज में भी भ्रष्टाचार को बढावा देते हैं। महाभारत के समय में राजसत्ता के समान गणसत्ता या गणतंत्रात्मक राज्य भी अस्तित्व में थे। गणराज्य की अभिवृद्धि तथा सुरक्षा के हेतु आवश्यक बातों का सविस्तर कथन भीष्माचार्य ने किया है जो आज की परिस्थिति में भी उपकारक है। भीष्म कहते हैं- लोभ, क्रोध तथा भेद जैसे दोषों से गणराज्यों को भय होता है। गणराज्य की परिषद् में मंत्रचर्चा सारे सदस्यों की सभा में नहीं होनी चाहिए। विशिष्ट योग्यता प्राप्त सदस्यों की सभा में ही चर्चा हो कर गण के हित के कार्य करने चाहिए। इसका कारण : जात्या च सदृशाः सर्वे कुलेन सदृशास्तथा। न चोद्योगेन बुद्धया वा रूप-द्रव्येण वा पुनः।। गण के सदस्य जाति या कुल दृष्ट्या समान होने पर भी उद्योग बुद्धिमत्ता, धनसम्पत्ति में समान नहीं होते। ___ कर के विषय में भीष्माचार्य की सूचना है कि, "ऊधश्छिंद्यान तु यो धेन्वाः क्षीरार्थी न लभेत् पयः। (गाय का स्तनपिण्ड काटने वाले को दूध नहीं मिलता) अतः प्रजा पर असह्य करभार लाद कर उसका शोषण नहीं करना चाहिए। लोभी वणिग्जन माल के मूल्य एकदम बढ़ा कर ग्राहकों का शोषण करते हैं। अतः सभी विक्रेय वस्तुओं के मूल्य राजा ने निर्धारित करने चाहिए। श्रोत्रिय (वेदाध्यायी) ब्राह्मणों से कर नहीं लेना चाहिए। अश्रोत्रिय तथा अग्निहोत्र न करने वाले ब्राह्मणों को करमुक्ति नहीं देनी चाहिए। ऐसे लोगों से सख्त काम करवा लेने चाहिए। राज्यऋण (स्टेट लोन) के विषयों में भी मौलिक सूचनाएं भीष्माचार्य ने दी हैं। अविनीत तथा प्रजापीडक दुष्ट राजा का नियमन हर प्रयत्न से आवश्यक होने पर शस्त्र प्रयोग से भी करना ब्राह्मणों का कर्तव्य माना गया है। ___"तपसा ब्रह्मचर्येण शस्त्रेण च बलेन च। अमायया मायया च नियन्तव्यं यदा भवेत्।।" इसी प्रकार दस्युओं (परकीय आक्रमणों) द्वारा आक्रमण होने पर अगर क्षत्रिय वीर असमर्थ सिद्ध हुए तो ब्राह्मणों ने शस्त्रधारण करना अधर्म नहीं माना। अर्थशास्त्र या राजधर्म के साथ मोक्षधर्म का भी मार्मिक विवेचन शांतिपर्व तथा आश्वमेधिक पर्व के संवादों में हुआ है। शांतिपर्व के सुलभा-जनक संवाद में कर्मनिष्ठा, ज्ञाननिष्ठा और इन दोनों निष्ठाओं से भिन्न तीसरी निष्ठा मोक्षार्थियों के लिए बतायी है। वर्णाश्रम के विधिनिषेधों की प्रशंसा "शाश्वत भूतिपथ" (अभ्युदय का मार्ग) इस शब्द में की है। सनातन वैदिक धर्म में पशुयाग का विधान है, परंतु आश्वमेधिक पर्व के शक्रऋत्विक् संवाद में, यज्ञ निमित्त पशुहवन कराने वाले शक्र को ऋषि कहते हैं : धर्मोपधानतस्त्वेष समारम्भस्तव प्रभो। नायं धर्मकृतो यज्ञो न हिंसा धर्म उच्यते ।। जिस में हिंसा हो रही है ऐसा यह यज्ञ धर्मकृत्य नहीं है। यह धर्म विघातक कर्म है। हिंसा को धर्म नहीं कहा जा सकता। इस विवाद का निर्णय करने के लिए वे वसु राजा के पास गये। उन दोनों का पक्ष सुन कर वसु राजाने निर्णय दिया : 90/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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