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"उर्छ मूलं फलं शाकमुपादाय तपोधनाः। दानं विभवतो दत्त्वा नराः स्वयन्ति धार्मिकाः ।। एष धर्मो महायोगो दानं भूतदया तथा। ब्रह्मचर्य तथा सत्यमनुक्रोशो धृतिः क्षमा। सनातनस्य धर्मस्य मूलमेतत् सनातनम् ।।
इसी विचारधारा का समर्थन करने वाली नेवले की कथा आश्वमेधिक पर्व में बतायी गयी है। "उत्रवृत्ति" (धान्यबाजार में या खेत में पड़े हुए धान्य कणों पर उपजीविका करना) से जीविका चलाने वाले एक गरीब ब्राह्मण ने स्वयं भूखा रहकर,
क्षुधात अतिथि को अपना सारा सत्तुरूप अत्र समर्पण किया। उस ब्राह्मण के घर की धूलि से नेवले का आधा शरीर सुवर्णमय हो गया। बाकी आधा शरीर युधिष्ठिर के यज्ञमंडप की पवित्र धूलि से भी सुवर्णमय नहीं हुआ। इस रोचक कथा के द्वारा हिंसामय महायज्ञ से भी क्षुधात को अन्नदान देना श्रेष्ठ है यह सिद्धान्त प्रतिपादन किया गया है। यज्ञदान-प्रधान प्रवृत्तिमार्ग से पृथक् मोक्षप्रद निवृत्तिमार्ग का प्रतिपादन,
___ "निवृत्तिलक्षणस्त्वन्यो धर्मो मोक्षाय तिष्ठति। सर्वभूतदया धर्मो न चैकग्रामवासिता।। आशापाशविमोक्षश्च शस्यते मोक्षकांक्षिणाम्। न कुट्यां नोदके संगो न वाससि न वासने ।।
न त्रिदण्डे न शयने नाग्नौ न शरणालये। अध्यात्मगतिचित्तो यस्तन्मनास्तत्परायणः ।
आत्मन्येवात्मनो भावं समासज्जेत वै द्विजः ।। एष मोक्षविदां धर्मो वेदोक्तः सत्पथः सताम् ।। इन ओजस्वी शब्दों में अनुशासनपर्व में किया है। यह निवृत्तिलक्षण धर्म ही संन्यासमार्ग है। संन्यास का वास्तव स्वरूप प्रतिपादन करते हुए शांतिपर्व के सुलभा-जनक संवाद में राजर्षि जनक कहते हैं :
काषायधारणं मौण्ड्यं त्रिविष्टब्धं कमण्डलुम्। लिंगान्युत्पथभूतानि न मोक्षायेति मे मतिः ।।
आकिंचन्ये न मोक्षोऽस्ति किंचन्ये नास्ति बन्धनम्। किंचन्ये चेतरे चैव जन्तुनिन मुच्यते ।। अर्थात् केवल गेरवे वस्त्र परिधान करने से, सिर मुण्डाने से या दण्डकमण्डलु धारण करने से मोक्ष नहीं मिलता। दरिद्रता मोक्ष का या बन्धन का कारण नहीं है। मोक्षप्राप्ति केवल आत्मज्ञान से ही होती है। वह अध्यात्मज्ञान गृहस्थाश्रम में भी प्राप्त होता है। यही सिद्धान्तशान्ति पर्व के तुलाधार-जाजलि संवाद में भी बताया गया है। तुलाधार जाजलि से कहता है :
"वेदाहं जाजले धर्म सरहस्यं सनातनम्। सर्वभूतहितं मैत्रं पुराणं ये जना विदुः ।। "सर्वेषां यः सुहृन्नित्यं सर्वेषां च हिते रतः । "सा वृतिः स परो धर्मस्तेन जीवामि भूतले।।"
"तुला मे सर्वभूतेषु समा तिष्ठति जाजले। नाऽहं परेषां कृत्यानि प्रशंसामि न गर्हये।।" "यो हन्याद् यश्च मां स्तौति तत्रापि श्रुणु जाजले।
समौ तावपि में स्यातां न हि मेऽस्ति प्रियाऽप्रियम्" इस प्रकार के उदात्त विचार व्यक्त करने वाला तुलाधार अपनी दुकानदारी का काम करता हुआ जाजलि ने देखा। महाभारतकार को कर्म तथा ज्ञान निष्ठाओं से भी जो निष्ठा अभिमत थी वह यही तीसरी निष्ठा है। राजर्षि जनक ने इसी तीसरी निष्ठा का अवलंब किया था। पारिवारिक जीवन में प्राप्त कर्तव्यों को निभाते हुए उनके बन्धन से अलिप्त रहना, किसी की आसक्ति न रखना, किसी का द्वेष, मत्सर, वैर न करना और सर्वभूतहित में निरत रहना, यहि इस तीसरी निष्ठा का स्वरूप है। श्रीमद्भगवद्गीता में इसी को "निष्काम कर्मयोग" कहा है। शांतिपर्व के नारायणीयोपाख्यान में भगवद्गीता में प्रतिपादित भागवत धर्म का स्वरूप समुचित पद्धति से प्रतिपादन किया है। उपरिनिर्दिष्ट अर्थशास्त्र तथा अध्यात्मशास्त्र के विषयों के अतिरिक्त दैववाद
और प्रयत्नवाद, लक्ष्मी का प्रियस्थान, व्यावहारिक आचरण, गोप्रशंसा, दानप्रशंसा, लोकोपकारक पूर्तकर्मों की प्रशंसा, इत्यादि विविध महत्त्वपूर्ण विषयों का विवेचन महाभारत में हुआ है। इन सभी विषयों के प्रतिपादन में महाभारत की वैशिष्ट्यपूर्ण विचारधारा का परिचय होता है।
पर्वानुक्रम के अनुसार महाभारत का
कथासार
1 "आदिपर्व" नैमिषारण्य में शौनकादि ऋषि यज्ञ कर रहे थे। एक दिन पुराण सुनाने वाले सौति वहां आये। ऋषिगण ने उनसे पूछा, "आप कहां से आये हैं। वे कहने लगे "हम राजा जनमेजय के यज्ञ से आये हैं। किन्तु आस्तिक ऋषि ने यह यज्ञ पूरा नहीं होने दिया। उस सत्र में वैशम्पायन ने राजा जनमेजय को महाभारत की कथा सुनायी। उस कथा को श्रवण कर हम यहां आये
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 91
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