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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir "स हि भूतं भविष्यच्च भवच्च भरतर्षभ। वेत्ति धर्मविदां श्रेष्ठः तमस्मि शरणं गतः ।।" वर्तमान, भूत और भविष्य काल के ज्ञानी होने के कारण भीष्म के प्रतिपादन में अनेक प्राचीन कथाओं का उल्लेख आता है। अतः इस संवाद को कुछ विद्वान "इतिहास संवाद" कहते हैं। शांतिपर्व में वर्णाश्रम धर्म का धर्मशास्त्रानुसार प्रतिपादन किया गया है। परंतु संन्यासाश्रम के विषय में शक्रतापस संवाद के अन्तर्गत विशेष चेतावनी दी है कि बाल्यावस्था में या अज्ञानी दशा में संन्यास नहीं देना चाहिए। मोक्ष केवल संन्यास से ही मिलने की संभावना होती तो, ___"पर्वताश्च द्रुमाश्चैव क्षिप्रं सिद्धिमवाप्नुयः।।" । अर्थात् पर्वत और वृक्ष संन्यासी जैसे निस्संग होने के कारण तत्काल मोक्षप्राप्ति के अधिकारी होंगे। इस प्रकार समाज विघातक अनुचित संन्यास का निषेध शांतिपर्व में किया गया है। सभी वर्गों के लिये साधारण धर्म शांतिपर्व के अन्तर्गत पाराशर जनक संवाद में बताया गया है। पाराशर ऋषि जनक को कहते है : "आनृशंस्यमहिंसाचाप्रसादः संविभागिता। श्राद्धकर्मतिथेयं च सत्यमक्रोध एव च।। स्वेषु दारेषु सन्तोषः शौचं नित्यानसूयता। आत्मज्ञानं तितिक्षा च धर्माः साधारणा नृप ।। (प्राणिमात्र के प्रति अनुकंपा, विवेक, धनादि का दान, श्राद्धकर्म, अतिथिसत्कार, सत्यभाषण, क्रोध, संयम, स्वपत्नी में संतोष, शुचित्व, अद्वैत, आत्मज्ञान और सहनशीलता यह सर्व मानव लिए साधारण धर्म है। महाभारत में चारों वर्गों के कर्म धर्मशास्त्र के अनुसार ही बताए हैं। तथापि शास्त्रविहित कर्म से उपजीविका होना असम्भव होने पर त्रैवर्णिकों के लिए अन्य वर्गों के कर्म करते हुए उपजीविका निभाने के पक्ष में अनुकूल मतप्रदर्शन किया है : क्षत्रधर्मा वैश्यधर्मा नावृत्तिः पतते द्विजः।। शूद्रधर्मा यदा तु स्यात् तदा पतति वै द्विजः ।। इस श्लोक में शूद्रवृत्ति (अर्थात परिचर्यात्मकर्म) के अतिरिक्त अन्य वर्गों के कर्म करने से वृत्तिहीन द्विजों का पतन नहीं होता। भारत पर आक्रमण करने के उद्देश्य से आये हुए शक, यवन, पह्लव इत्यादि परकीय लोगों को महाभारत "दस्यु" कहता हैं। इन परकीयों को राष्ट्रीय समाज में अन्तर्भूत करने का प्रश्न उस समय में उठा होगा। इस विषय में शांतिपर्व के 65 वें अध्याय में विवेचन मिलता है। इन दस्युओं ने माता, पिता, गुरु, आचार्य, तपस्वी जैसे श्रेष्ठों की सेवा करना, अहिंसा, सत्य, शांति से व्यवहार करना और अष्टकादि पाकयज्ञ करना ही धर्म है, इस प्रकार मार्गदर्शन महाभारत ने किया है। इस आदेश से परकीय समाज को राष्ट्रीय समाज के समकक्ष करने की वृत्ति व्यक्त होती है। इसी उदार वृत्ति के कारण प्राचीन काल में भारत में प्रविष्ट हुए ग्रीक, शक, कुशाण, हूण, गुर्जर इत्यादि परकीय समाज के लोग इस देश के राष्ट्रीय समाज में समाविष्ट होकर शिव, स्कन्द, वासुदेव इत्यादि भारतीय देवताओं के उपासक बने थे। प्राचीन शिलालेखों एवं नाणकों के प्रमाण से यह तथ्य सिद्ध हुआ है : शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्म या राजनीति विषयक चर्चा कुल 76 अध्यायों में हुई है। प्राचीन वाङ्मय में राजनीति का अन्तर्भाव “अर्थशास्त्र' में होता था। इसी कारण शान्तिपर्व में इस चर्चा के प्रास्ताविक श्लोक में "अर्थशास्त्र" शब्द का प्रयोग हुआ है। राजसत्ता का उदय बताते हुए, मनु की कथा बताई गयी है। जिस समय राजसंस्था का सर्वथा अभाव था उस समय में "मात्स्यन्याय" चल रहा था। प्रबल अधार्मिक लोग, दुर्बल धार्मिक लोगों का विनाश कर रहे थे। ऐसी भयानक अवस्था में ब्रह्माजी ने मनु को राजा होकर प्रजारक्षण करने का आदेश दिया। जब मनु ने कहा : “बिभेमि कर्मणः पापाद् राज्यं हि भृशदुस्तरम्। विशेषतो मनुष्येषु मिथ्यावृत्तेषु नित्यदा।। (मिथ्याचरणी मनुष्यों पर राज चलाना दुष्कर कर्म है अतः इस कारण लगने वाले पाप का मुझे डर लगता है।) मैं राजा होना नहीं चाहता। तब लोगों ने कहा दुराचार का पाप, दुराचारियों को ही लगेगा- “कर्तृन् एनो गमिष्यति"। और प्रजानन जो पुण्याचरण करेंगे उसका चतुर्थांश राजा को प्राप्त होगा। इसके अतिरिक्त प्रजा के धन का पचासवां भाग, और धान्य का दसवां भाग भी राजा को मिलेगा। इस प्रकार आदान प्रदान का सामाजिक संकेत (सोशल कॉन्ट्रॅक्ट) निश्चित हो कर मनु ने राजपद का स्वीकार किया। राजा का राज्याभिषेक होता था, तब उससे प्रतिज्ञा का उच्चारण किया जाता था। वह प्रतिज्ञा थी: "प्रतिज्ञां चाधिरोहस्व कर्मणा मनसा गिरा। पालयिष्याम्यहं भौमं ब्रह्म इत्येव चासकृत् ।।" यश्चाऽत्र धर्मो नित्योक्तो दण्डनीति-व्यपाश्रयः। तमशङ्क करिष्यामि स्ववशो न कदाचन । । मै प्रजा की धर्म संस्कृति का रक्षण करूंगा, राजनीतिशास्त्र के अनुसार बर्ताव करूंगा, स्वेच्छा से कभी भी व्यवहार नहीं करूंगा इस प्रकार का आशय इस प्रतिज्ञा में भरा हुआ है। संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 89 For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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