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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir का निर्देश होता है। ये सभी भिन्न व्यक्ति हैं या अभिन्न, यह देवचन्द्र सुरि। ग्रंथ - चन्द्रप्रभचरित - वि. सं. 1260। इसमें गवेषणा का विषय है। वज्रायुध नप की कथा विस्तार से वर्णित है जिसका उत्तरभाग देवाचार्य - निबार्क संप्रदाय में प्रसिद्ध कृपाचार्य के शिष्य । नाटक शैली में लिखा गया है। इनकी सर्वश्रेष्ठ रचना है “सिद्धान्तजाह्नवी" जो ब्रह्मसूत्र का देवेन्द्र भट - ई. 14-15 शती। रचना - संगीतमुक्तावली। विस्तृत समीक्षात्मक भाष्य है। इस ग्रंथ में निंबार्क से 7 वीं देवेन्द्रकीर्ति - ई. 16 वीं शती। कारंजा के बलात्कारगण के पीढी में स्थित पुरुषोत्तमाचार्य द्वारा प्रणीत "वेदान्त-रत्नमंजूषा" आचार्य। ग्रंथ - कल्याणमंदिरपूजा और विषापहारपूजा । का उल्लेख है। अतः ये अवांतरकालीन ग्रंथकार हैं। गुरुपरंपरा देवेन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय - रचना - वंगवीरः प्रतापादित्यः नामक में क्रमांक 16 पर। गुर्जराधिप राजा कुमारपाल के अभिषेक ऐतिहासिक उपन्यास। काल में ये वर्तमान माने जाते हैं। आपके समय तक एक ही शिष्यपरंपरा थी। किन्तु पश्चात् दो शाखाएं हुई। प्रधान देवेन्द्र वंद्योपाध्याय - ई. 19-20 वीं शती। कृति - पाणिनिप्रभा नामक व्याकरण विषयक ग्रंथ। शाखा में सुंदर भट्टाचार्य तथा दूसरी शाखा में व्रज-भूषण देवाचार्य प्रसिद्ध हुए। देवेश्वर या देवेन्द्र - वाग्भट के पत्र । एस. के. डे. का कथन है कि ये वाग्भट दोनों साहित्यशास्त्रज्ञों से भिन्न हैं। ये मालवा देवातिथि - ऋग्वेद के आठवे मंडल का चौथा सूक्त इनके नरेश के महामात्य थे। एक श्लोक में इन्होंने हम्मीर महीनाम पर है। इस सूक्त में इंद्र-सूर्यस्तुति है। तुर्वश राजा के महेन्द्र की प्रशंसा की है। इस चौहान नप का समय ई. 13 यज्ञ में दान में सौ घोडे प्राप्त हुए ऐसा उनका कथन है। वीं शती है। रचना - कविकल्पक्तता। समय ई. स. 13001 सूर्यस्तुति में उन्होंने एक निराले ही प्रकार की प्रार्थना सूर्य से देशमुख, चिंतामणि द्वारकानाथ - (पद्मविभूषण) की है जो निम्नांकित है - जन्म ई. 18961 जन्मस्थान- कोंकण में रोहे नामक गाव । सं नः शिशीहि भुजयोरिव क्षुरं रास्व रायो विमोचन। मुंबई और केंब्रिज में शिक्षा। बरिस्टर तथा आई.सी.एस. की त्वे तन्नः सुवेदमुस्त्रियं वसु यं त्वं हिनोषि मर्त्यम् ।। (ऋ. 8,4,16) उपाधि प्राप्त होने पर सन 1910 से अनेक उच्च अधिकारपद __ अर्थ - दोनों हाथों में पकड़ कर जिस प्रकार छुरी को ___पर विभूषित किए। 1950 में स्वतंत्र भारत के अर्थमंत्री बने घिसा जाता है, उसी प्रकार (संकटों के पत्थर पर घिस कर) और संयुक्त महाराष्ट्र राज्य की स्थापना के विषय में मतभेद हम लोगों को तीक्ष्ण बनाइये। हे दुःखविमोचन, हमें अक्षय के कारण मंत्रीपद का त्याग किया। अनेक जागतिक संस्थाओं संपत्ति प्रदान कीजिये। जो उषःकाल की कांति के समान के पदाधिकारी रहने का सम्मान श्री. देशमुख के समान प्रायः तेजस्वी हैं और (जिसे आप मर्त्य मानव की ओर सहज ही अन्य किसी को नहीं मिला। कलकत्ता, कर्नाटक, अन्नमलै, बिखेर देते हैं), वे आपके पास के गउओं के झुंड आदि इलाहाबाद, नागपुर और पंजाब इन विश्वविद्यालयों द्वारा आपको अक्षय धन हमें प्राप्त हो। डाक्टर आफ सायन्स एवं डाक्टर आफ लिटरेचर जैसी श्रेष्ठतम देवापि - ऋग्वेद के 10 वें मंडल का 98 वां सूक्त देवापि उपाधियां असामान्य विद्वत्ता के कारण दी गईं। डा. देशमुख के नाम पर है। ये कुरुकुलोत्पन्न एक राजपुत्र तथा राजा शंतनु की संस्कृत साहित्य में अत्यधिक रुचि प्रारंभ से ही रही। के ज्येष्ठ बंधु थे। कुष्ठरोग से पीडित होने के कारण, राजगद्दी 'गांधीसूक्तिमुक्तावली' नामक महात्मा गांधी के वचनों का पर न बैठते हुए तपस्या हेतु इन्होंने वन की ओर प्रस्थान पद्यानुवाद तथा संस्कृतकाव्यमालिका (अनेक स्फुट काव्यों संग्रह) किया था। इसी लिये छोटे भाई शंतनु राजगद्दी पर आए इन ग्रंथों के अतिरिक्त मेघदूत का मराठी भाषा में समश्लोकी किन्तु बड़े भाई के जीवित रहते हुए छोटे भाई के राजा बनने अनुवाद आपने किया है जो मराठी के अनेक अनुवादों में के कारण देवताओं ने राज्य में पर्जन्यवृष्टि बंद कर दी। तब सर्वोत्कृष्ट माना गया है। भगवद्गीता पर आपका एक निबंध शंतनु ने देवापि को राजा बनने हेतु सविनय आमंत्रित किया। __ ग्रंथ और अमरकोश पर व्याख्याग्रंथ अंग्रेजी में प्रकाशित हुए इस पर देवापि ने शंतनु से कहा से कहा "तुम यज्ञ करो हैं। (प्रकाशक उप्पल पब्लिशिंग हाऊस नई दिल्ली-2) । मृत्यु और मै तुम्हारा पुरोहित बनूंगा, इससे पर्जन्यवृष्टि होगी।" सन 1980 में हैदराबाद में। इंडिया इंटरनेशनल एवं अन्य तदनुसार शंतनु ने यज्ञ किया और उसके फलस्वरूप सर्वत्र अनेकविध सांस्कृतिक संस्थाओं की संस्थापना आपने की है। पर्जन्यवृष्टि हुई। उपरोक्त सूक्त की रचना देवापि ने इसी यज्ञ आपकी धर्मपत्नी श्रीमती दुर्गाबाई देशमुख एक विदुषी, के समय की थी। चरित्र से देवापि क्षत्रिय थे ऐसा प्रतीत स्वातंत्र्यसैनिक तथा प्रसिद्ध सार्वजनिक कार्यकर्ता होने के कारण होता है, फिर भी उनके द्वारा पौरोहित्य किये जाने की कथा भारत शासन द्वारा "पद्मविभूषण उपाधि' से सम्मानित थीं। है। (ऋ. 10,98,11)। थोड़े बहुत अंतर से देवापि के विषय दैवज्ञ सूर्य - "नृसिंहचंपू' नामक काव्य के प्रणेता। रचना में यही जानकारी पुराणवाङ्मय में भी मिलती है। काल ई. 16 वीं शती का मध्य भाग। इन्होंने नृसिंह चंपू में देवेन्द्र . नागेन्द्रगच्छीय विजयसिंह सरि के शिष्य देवेन्द्र या स्वयं का परिचय दिया है। (5-76-78)। तदनसार देवज सर्य संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 341 For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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