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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इनका पूरा घराना ही विद्यावान् था। इन्होंने मीमांसा पर को अर्पित किया तब इन्होंने "बालमार्तण्डविजयम्" नामक अधिकरणकौमुदी नामक ग्रंथ की रचना की है जिसमें मीमांसा नाटक की रचना की। राजा बालमार्तण्ड ने ही त्रावणकोर के और धर्म के संबंध का अभेद प्रतिपादित किया है। पद्मनाभ-मंदिर का जीर्णोध्दार किया था। देवनाथ तर्कपंचानन- ई. 17 वीं शती। प्रसिद्ध बंगाली देवविजय गणि - तपागच्छ के आचार्य। विजयदान सूरि के नैयायिक। कृतियां- रसिकप्रकाश और काव्यकौमुदी। प्रशिष्य और रामविजय के शिष्य। कार्यक्षेत्र- गुजरात। रचना देवनारायण पांडे- संस्कृत साहित्य सुषमा का संपादन । (राजापुर "पाण्डवचरित्र" जो देवप्रभसूरिकृत "पाण्डवचरित्र" महाकाव्य (उ.प्र.) के निवासी)। का संस्कृत में गद्यात्मक रूपान्तर है (18 सर्ग)। जैन-रामायण देवपाल - कठ मन्त्रपाठ के भाष्यकार। यह स्वतंत्र ग्रंथ नहीं (वि.सं. 1652) और कुछ अन्य रचनाएं भी इनके नाम पर अपि तु कठ-गृह्यभाष्य के अंतर्गत ही उपलब्ध है। इससे प्राप्त हुई हैं। विद्वानों का तर्क है कि देवपाल के पिता हरिपाल ने कठ देवविमल गणि - एक जैन महाकवि। समय- ई. 16 वीं मन्त्रपाठ पर भाष्यरचना की थी और पुत्र देवपाल ने उसे शती। इन्होंने "हीर-सौभाग्य" नामक महाकाव्य की रचना की स्वकृत गृह्यभाष्य में संमिलित किया। वेद-मंत्रों का यज्ञपरक है जिसमें हीरविजय सूरि का चरित वर्णित है। इस महाकाव्य तथा अध्यात्मपरक अर्थ देने में देवपाल की श्रेष्ठता अभ्यासकों के 17 सर्ग हैं। सूरिजी ने मुगल सम्राट अकबर को जैन को प्रतीत होती है। धर्म का उपदेश दिया था। देवप्रभ सूरि - एक जैन कवि। ई. 13 वीं शती।। देवशंकर पुरोहित - ई. 18 वीं शती। राठोड ग्राम (गुजरात) मलधारी गच्छ के आचार्य। रचना- पाण्डवचरित नामक (18 के निवासी। रचना - अलंकारमंजूषा जिसमें बडे माधवराव सर्ग) वीररसप्रधान महाकाव्य । ग्रंथरचना मुनिचन्द्रसूरि के शिष्य तथा रघुनाथराव इन दो पेशवाओं का चरित्र-वर्णन करते हुए देवानन्द सूरि के अनुरोध पर हुई है। भाषा-शैलीगत प्रौढता अलंकारों के उदाहरण दिये हैं। पेशवाओं पर लिखी गई यही और कवित्व-कला का अभाव । कथानक का आधार षष्ठांगोपनिषद् एकमात्र संस्कृत रचना है। तथा त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरित है। देवसूरि- सन्- 1086-1169। श्वेतांबर पंथ के एक जैन देवराज यज्वा- ई. 14 वीं शती। समग्र वैदिक निघण्टु के आचार्य, मुनि चन्द्रसूरि के शिष्य। इन्होंने न्यायशास्त्र पर भाष्यकार। पिता-यज्ञेश्वर आर्य और पितामह- देवराज यज्वा । "प्रमाणनय-तत्त्वालोकालंकार" नामक ग्रंथ की रचना की और गोत्र-अत्रि । निवास-स्थान रंगेशपुरी। देवराज यज्वा ने नैघण्टुक उस पर स्वयं ही "स्याद्वादरत्नाकर' नामक टीका भी लिखी। का निर्वचन ही अधिक विस्तार से किया है। इस ग्रंथ का जैन न्याय में इन ग्रंथों को प्रमाणभूत माना जाता है। गुजराथ मूल आधार आचार्य स्कन्दस्वामी का ऋग्वेदभाष्य और स्कन्दमहेश्वर के अनहिलपट्टणस्थित जयसिंहदेव के दरबार में एक बार की निरुक्तभाष्य-टीका है। फिर भी स्कंदभाष्य पर विशेष बल दिगंबरपंथी कुमुदाचार्य से इनका शास्त्रार्थ हुआ। वाद का है। "स्कंद- स्वामिव्यतिरिक्त भाष्यकार" इस तरह निर्देश देवराज विषय था- स्त्रियां निर्वाण पद को प्राप्त कर सकती हैं या यज्वा के भाष्य में मिलता है किन्तु यह कौन भाष्यकार है नहीं। इस वाद में यह सिद्ध करते हुए कि स्त्रियां भी यह ठीक समझ में नहीं आता। निर्वाण-पद प्राप्त कर सकती हैं, देवसूरि ने कुमुदाचार्य को देवराज यज्वा सायणाचार्य के वचन उद्धृत नहीं करते। पराजित किया। इन्होंने सन् 1147 में फलवर्धिग्राम में एक इससे वे सायण के पूर्ववर्ती हैं यह बात सूचित होती है। चेत्य का निर्माण कराया और अरसाणा में इन्होंने नेमिनाथ की आचार्य देवराज यज्वा ने दुर्गाचार्य को कहीं भी उद्धृत नहीं मूर्ति स्थापित की। किया यह आश्चर्यजनक है किन्तु दुर्गाचार्य की प्राचीनता देवसेन - समय ई. 10 वीं शताब्दी। गुरु नाम- विमलगणि। प्रमाणान्तर से स्पष्ट है। देवराज के निर्वचन में स्वतंत्र रूप रचनाएं - दर्शनसार, भावसंग्रह, आलापपध्दति, लघुनयचक्र, बहुत कम लिखा गया है। वहां पुरातन प्रमाणों का संग्रह आराधनासार और तत्वसार । सुलोचनाचरित्र के रचयिता देवसेन अत्यधिक है। से भिन्न (देवसेन नाम के अनेक जैन आचार्य प्रसिद्ध हैं) देवराज सूरि - उपाधि- "अभिनव कालिदास"। केरल के देवस्वामी - ई. 11 वीं शती। विमलबोध के ग्रंथ राजा बालमार्तण्ड वर्मा (1729 से 1758 ई. तक) तथा उनके विदित होता है कि इन्होंने ऋग्वेद पर भाष्य लिखा था। भागिनेय रामवर्मा (1758-1798) के प्रमुख सभापण्डित। आश्वालायन श्रौतसूत्र पर भी इनका भाष्य है। भट्टोजी लिखित मद्रास के तिन्नेवेल्ली जनपद में पट्टमडाड ग्राम के निवासी। चतुर्विंशतिमत नामक ग्रंथ की टीका में देवस्वामी के मत का पिता- शेषाद्रि। सन् 1765 ई. में जिन बारह ब्राह्मणों को उल्लेख किया गया है। प्राप्त उल्लेख के अनुसार देवस्वामी अग्रहार प्रदान किया गया उनमें देवराज प्रमुख थे। सन् 1750 ने शाबरभाष्य पर भी व्याख्या लिखी है। महाभारत की में जब मार्तण्ड ने दिग्विजय के पश्चात् अपना राज्य पद्मनाभ विमलबोधनात्मक टीका में पूर्ववर्ती टीकाकार के नाते देवस्वामी 340/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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