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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लोकमान्य तिलक और याकोबी इन दोनों पंडितों ने ज्योतिषशास्त्र के आधार पर संहिता और ब्राह्मण ग्रंथों की रचना का समय निर्धारित किया है, फिर भी दोनों के प्रतिपादन में अंतर है। याकोबी ईसापूर्व 4500 से 2500 तक संहिताकाल मानते हैं और इस काल के उत्तरार्ध में संहिताओं की रचना मानते हैं। जब कि लोकमान्य तिलक ईसापूर्व 4500 से 2500 वर्ष पीछे जाकर, ईसापूर्व 6000 में संहिता की निर्मिति मानते हैं। पाश्चात्य और भारतीय विद्वानों की वेदकालनिर्णय के विषय में दृष्टि किस प्रकार की थी इस की कल्पना इस उदाहरण से ठीक समझ में आ सकती है। विंटरनिट्झ का मत ज्योतिष और भूगर्भशास्त्र के आधार पर वेदों का काल ई. पू. 6000 अथवा 2500 मानना विंटरनिट्झ योग्य नहीं समझते। वे ब्राह्मण ग्रंथों के आधार पर पाणिनि ने अपने व्याकरण में निर्धारित की हुई संस्कृत भाषा और अशोक के शिलालेखों की (इ. स. 300) भाषा, इनका वैदिक भाषा से साम्य ध्यान में लेकर, ऋग्वेद का समय इसी (याकोबी और तिलक द्वारा निर्धारित) कालखंड में संभवनीय मानते हैं। शिलालेखों का अध्ययन करनेवाले विद्वानों ने यह मत प्रतिपादन किया है कि ई. पू. 300 तक दक्षिण भारत में आर्यों का तथाकथित ब्राह्मणधर्म दृढमूल हो चुका था। बोधायन और आपस्तंब इत्यादि वैदिक शाखाओं का प्रचार भी इस इस समय तक दक्षिण में हो गया था। अर्थात् उत्तर से दक्षिण की ओर प्रगति करने वाले आर्यों का दक्षिणदिग्विजय (जिसे अनेक विद्वान सर्वथा काल्पनिक और अनैतिहासिक मानते हैं) ई. पू. 700-800 तक पूर्ण हो चुका होगा। विजय पाने पर धर्मप्रचार करने में काफी अवधि लगती है। अतः ई.पू. 300 आर्यों के दक्षिण-दिग्विजय का काल मानना उचित नहीं होगा। ई. पू. 300 आर्यों के दक्षिण में पहुंचे होंगे तो, भारत के उत्तर में और अफगानिस्तान में उनका वास्तव्य ई. पू. 1200 से 1500 की अवधि में रहा होगा। इसी समय के पूर्व सिंधु नदी के किनारे पर वेदों की रचना होना संभव है। जे. हर्टल नामक विद्वान, ऋग्वेद की रचना भारत की वायव्य दिशा में नहीं मानते। वे झरतुष्ट (इ. पू. 500) के बाद में ईरान में वेदों की रचना मानते थे। . प्रा. बूलर, पांच-सातसो वर्षों की अल्पावधि में आर्यों का अखिल भारतीय दिग्विजय संभवनीय नहीं मानते परंतु ओल्डेनबर्ग उसे संभाव्य मानते है। प्रो. जी. ह्यूसिंग ने कूनीफार्म शिलालेख के कुछ नामों का ऐसा कुछ रूपांतर किया है कि जिस कारण वे नाम भारतीय नामों से मेल खाते हैं। उन नामों के आधार पर उन्होंने निष्कर्ष निकाला है कि आर्य लोग ई. पू. 1000 के आगे-पीछे आर्मिनिया से अफगानिस्थान में आए होंगे और वहीं उन्होंने वेदों की रचना की होगी, क्यों कि वेदों में वर्णित कुछ प्राकृतिक वर्णन अफगानिस्तान के प्राकृतिक दृश्यों से मेल खाते हैं। बोधाझकोई का इष्टिकालेख 1907 में एशिया मायनर के बोधाझकोई नामक स्थान में, ह्यूगो विकलर नामक अन्वेषक को, एक इष्टिकालेख प्राप्त हुआ। लेख का संबंध हिट्टाइट और मिट्टानी के राजाओं में हुई संधि से है। यह घटना ई. पू. 14 वीं शताब्दी की मानी गई है। लेख में संधि के संरक्षक देवताओं की नामावलि में बाबिलोनी और हिट्टाइट की देवताओं के नामों के साथ मित्र, वरुण, इंद्र और नासत्यौ इन मिटानी (अथवा मितनी) देवताओं के नामों का निर्देश और कुछ भारतीय पद्धति के संख्या चित्र भी मिलते हैं। इन वैदिक देवताओं के नामों के कारण इस इष्टकालेख लेख को वैदिक अन्वेषकों की दृष्टि से असाधारण महत्त्व प्राप्त हुआ। सुप्रसिद्ध इतिहासज्ञ एडवर्ड मेयर कहते हैं कि जिस कालखंड में भारतीय और ईरानी समाजों की भाषा और धर्मप्रणाली अविभक्त थी उस काल में मेसोपोटोमिया और सीरिया इन प्रदेशों में आर्यों का प्रवेश हो चुका था। इसी काल में आर्य लोग भारत के वायव्य प्रदेश में वास्तव्य करने लगे थे। इसी कारण ई. पूर्व. 14 वीं शती के बोधाझकोई इष्टकालेख में मित्र, वरुण, इंद्र नासत्यौ इन वैदिक देवताओं का नामोल्लेख मिलता है। एवम् आर्यों की ईरान से अफगानिस्थान द्वारा सिंधु नदी की दिशा से होनेवाली प्रगति और वेदों में उपलब्ध सप्तसिंधु प्रदेश का वर्णन इन दो बातों का समन्वय करते हुए कुछ विद्वानों ने वेदरचना का काल ई. पू. 1400 पहले का माना है। बोधाझकोई के संदर्भ में एक स्वाभाविक शंका यह है कि मूलतः भारतवासी आर्य लोग दिग्विजय अथवा वैवाहिक संबंधों के कारण, पश्चिम की ओर आगे बढे होंगे और ई. पू. 14 वीं शताब्दी में बोधाझकोई की घटना में अपनी इष्ट देवताओं के नाम सन्धिलेख में उन्होंने प्रविष्ट किए होंगे। पाश्चात्य मतानुयायी विद्वानों को यह सयुक्तिक शंका एक चुनौती है और उसका निरसन करना उनके लिए कठिन है। वेबर के मतानुसार ई. पू. 16 वीं शताब्दी में ईरान के आस पास रहनेवाले लोगों के समूह ने भारत की ओर प्रस्थान भों का नामोल्लेख मिलता कारण ई. पूर्व. 14 वीं शताश हो चुका था। इसी कार धर्मप्रणाली 10 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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