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अपने 120 वर्ष के दीर्घ जीवन में रामानुज ने श्रीभाष्य के अतिरिक्त वेदान्तसंग्रह, वेदानादीप, वेदान्ततत्त्वसार, गीताभाष्य, अष्टादशरहस्य, कूटसंदोह, गुणरलकोष, न्यायरत्नमाला, नारायणमन्त्रार्थ नित्वाराधनविधि, पंचरात्ररक्ष, मुण्डकोपनिषद् व्याख्या, विष्णुविग्रहशंसन-स्तोत्र आदि ग्रंथों की रचना की।
रामानुज ने अपने विशिष्टाद्वैत मत को प्राचीनतम श्रुत्यनुकूल सिद्ध करने का विपुल उद्योग किया। उनके महनीय प्रयत्नों से दक्षिण प्रदेश में वैष्णव धर्म का भरपूर प्रचार-प्रसार हुआ।
रामानुजाचार्य के श्री वैष्णव मत में दास्य-भाव की भक्ति स्वीकार की गई है। इन्होंने भगवान नारायण की उपासना की पद्धति चलाई। इनके संप्रदाय का जन्म, शांकर अद्वैत प्रतिक्रिया के रूप में हुआ था । इसीलिये दार्शनिक जगत् में यह संप्रदाय विशेष महत्त्व का अधिकारी है। एक द्रविड पंडित किंतु वृंदावन रामानुजाचार्य योगी के रंगनाथजी के विशाल मंदिर एवं संस्थान से आकृष्ट होकर, वृंदावन ही में रहने लगे। इस संस्थान से वे संबद्ध भी थे।
इन्होंने वेद - स्मृति ( भाग 10-87) पर अपनी 'सरला' नामक टीका लिखी। यह विस्तृत टीका, रामानुज के मान्य सिद्धान्तों को दृष्टि में रखकर विरचित है। इसमें उन्होंने अपने द्रविड व वृंदावनवासी होने का उल्लेख किया है।
उक्त कृतियों के अतिरिक्त संस्कृत, हिन्दी व अंग्रेजी में अनेक शोध निबंध लिखे और मित्रगोष्ठी पत्रिका का संपादन किया । रामाश्रम सारस्वत व्याकरण का रूपान्तर 'सिद्धान्त चन्द्रिका' । नामक यह टीका स्वतन्त्र व्याकरण के रूप में प्रसृत हुई । सिद्धान्त चन्द्रिका पर तीन टीकाएं लिखी गई है।
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रामेश्वर भट्ट ई. 16-17 वीं शती । पैठण निवासी गोविंद भट्ट के पुत्र ये अनेक शास्त्रों तथा कलाओं में पारंगत थे। प्रख्यात मीमांसक गागाभट्ट काशीकर इसी वंश में मद्रास के छत्र नामक ग्राम में जन्म। हुए 1 रामेश्वरभट्ट के संबंध में कहा जाता है कि अहमदनगर दरबार के जाफर मलिक के पुत्र को इन्होंने महारोग से मुक्ति दिलाई। इन्होंने 'रामकुतूहल' नामक काव्य की रचना की किन्तु यह काव्य अब उपलब्ध नहीं है। इनकी मृत्यु काशी में हुई। इनके साथ इनकी पत्नी सती हो गई।
रामेश्वर वाराणसीस्थ मीमांसक 18 वीं शती । रचनाविधिविवेकः ।
रावण
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ई. 15 वीं शती । ऋग्वेद और यजुर्वेद के भाष्यकार । भाष्य-ग्रंथ अनुपलब्ध है किन्तु कुछ अंश इधर-उधर अवतरणों में उपलब्ध। उससे ज्ञात होता है कि रावणाचार्य शांकर मतानुयायी वेदान्ती थे। सायण शब्द का ही अपभ्रंश रावण है ऐसा कुछ विद्वानों का तर्क है किन्तु परमार्थप्रपा नामक सूर्यपण्डित रचित गीता - भाष्य के आधार से (जहां रावण - भाष्य का निर्देश है) दिखाया गया है कि ये दो भिन्न व्यक्ति हैं।
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इनका समय ई. 19 वीं शती के पूर्वार्ध में हुए श्रीनिवास सूरि के बाद का है अतः ये आधुनिक टीकाकार है। रामानुजाचार्य व्ही. विद्वत्ता तथा प्रतिभा के कारण 'सर्वशास्त्रपारंगत', 'संस्कृत महाकवीश्वर', 'सरसकविराज', 'कविरत्न', 'साहित्यभास्कर' आदि उपाधियां प्राप्त। इन्होंने रूपक-लक्षणों के अनुसार 10 प्रकार की रचना की। रचनाओं के नाम :- कलिका-कोलाहल (नाटक), आत्मावलीपरिणय (प्रकरण), श्रीनिवासविलास महादेशिकचरित (व्यायोग), लक्ष्मी-कल्याण
(भाण), (समवकार), दक्षमखरक्षण (डिम), नहुषाभिलाष ( इहामृग), अन्यायराज्यप्रध्वंसन (अंक), मुनित्रयविजय (वीथि) और वाणीपाणिग्रहण ( लाक्षणिक नाटक) । इसके व्यतिरिक्त रुक्माङ्गद चरित नाटक और अभिनव लक्ष्मी सहस्रनाम स्तोत्र की भी रचना इन्होंने की। यह अप्रकाशित साहित्य अयोध्या में पं. कालीप्रसाद त्रिपाठी, (संपादक - संस्कृतम्) के यहां सुरक्षित था।
रामामात्य तिम्मामात्य के पुत्र । विजयनगर के अलिय-रामराज के आश्रित ( रामराज तालिकोट की लड़ाई में मारा गया (सन् 1565 ) । संगीतरत्नाकर के टीकाकार चतुर- कल्लीनाथ के दौहित्र । रचना - स्वरमेल- कलानिधि ।
रामावतार शर्मा ( म.म. ) समय- 1877-1929 ई. 1 पिता- देवनारायण । माता गोविंददेवी। महामहोपाध्याय की पदवी प्राप्त। बिहार के छपरा जिले में दि. 6 मार्च 1877
को जन्म | साहित्यचार्य व एम.ए. (संस्कृत) की परीक्षाएं प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण। सन् 1906 में पटना- कालेज के संस्कृत विभागाध्यक्ष | सन् 1919 से 1922 तक हिंदू विश्वविद्यालय में प्राच्य विभाग के प्राचार्य इन्होंने नाटक, गीत, काव्य, निबंध आदि के साथ-ही-साथ दर्शन तथा संस्कृत विश्वकोष का भी प्रणयन किया है। इनके 'परमार्थदर्शन' की ख्याति सप्तमदर्शन के रूप में हुई है। इन्होंने केवल 15 वर्ष की ही आयु में 'धीरनैषध' नामक नाटक की रचना की जिसमें पद्य का बाहुल्य है। 'भारत गीतिका' (1904 ई.) तथा 'मुद्गर दूत' (1914 ई.) इनके काव्यग्रंथ है 'मुद्गर दूत' (श्लोक संख्या 1482) में मेघदूत के आधार पर किसी व्यभिचारी मूर्खदेव का जीवन चित्रित किया गया है इनका 'वाङ्मयार्णव नामक प्रसिद्ध पद्यबद्ध संस्कृत ज्ञानकोश ज्ञानमंडल वाराणसी से सन् 1967 में प्रकाशित हुआ है। अन्य रचना - भारतेतिवृत्तम् । विषयभारत का इतिहास ।
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रावणाचार्य ने ऋग्वेद का पदपाठ भी बनाया। वह शाकल्य के पदपाठ से भिन्न होने के कारण अन्य शाखा से संबंधित हो ऐसा विद्वानों का तर्क है। राशिवडेकर अप्पाशास्त्री समय- 1873-1913 ई. । जन्म महाराष्ट्र में कोल्हापुर के निकट राशिवडे ग्राम में दिनांक 2-11-1873 को। पिता- सदाशिव और माता पार्वती । जयचन्द्र
संस्कृत वाङ्मय कोश
ग्रंथकार खण्ड / 431
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