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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सिद्धान्तभूषण के संपादकत्व में 'संस्कृत चन्द्रिका' में 'मातृभक्तिः' विषय पर आयोजित काव्य-स्पर्धा में आपको प्रथम पुरस्कार मिला था। कालान्तर से अपनी प्रतिभा के कारण आप स्वयं संस्कृतचन्द्रिका के संपादक बने। इसमें प्रकाशित आपके प्रबन्धों के कारण आपको 'विद्यावाचस्पति' की उपाधि प्राप्त हुई। गद्य-काव्यों में आपकी ‘इन्दिरा', 'देवीकुमुद्वती', 'दशापरिणति', 'मातृभक्ति' तथा 'लावण्यमयी' आदि रचनाएं विशेष उल्लेखनीय हैं। आपने 'अधर्मविपाक' नामक सामाजिक नाटक के अतिरिक्त 'सामान्यधर्मदीप', 'मातृगोत्रवर्णननिर्णय', 'पतितोद्धारमीमांसाखण्डन' जैसे धार्मिक ग्रंथों तथा 'समाजसंस्कार', धर्मपीठानि धर्माचार्याश्च' आदि ग्रंथों की रचना की। गद्य और पद्य दोनों पर इनका समानाधिकार था। उसी प्रकार उनमें कारयित्री और भावयित्री प्रतिभा का अद्भुत समन्वय था। संस्कृत के प्रति उनका जन्मजात अनुराग था। आपने 1889 ई. तक हरिशास्त्री पाटगांवकर से काव्यशास्त्र की शिक्षा प्राप्त की, अनंतर कोल्हापुर में 1893 ई. तक कान्ताचार्य से व्याकरण की। हिंदी, बंगला, मलयालम, तेलगु, तमिल व अंग्रेजी का भी आपने ज्ञान प्राप्त किया। 1894 ई. में आपकी प्रथम संस्कृत कविता, 'संस्कृत-चन्द्रिका' में प्रकाशित हुई। संस्कृतचंद्रिका का संपादन और प्रकाशन का कार्य कलकत्ता से आपने किया। बाद में कोल्हापुर में निवास कर सुनृतवादिनी का संपादन किया। मृत्यु- 1913 में हुई। महाराष्ट. मैसर, केरल, मद्रास, बंगाल आदि में भ्रमण कर संस्कृत का प्रचार किया। संस्कृत पत्रकारिता के इतिहास में विशेष उल्लेखनीय हैं। जान पडता है। रुद्रधर उपाध्याय - ई. 15 वीं शती के एक धर्मशास्त्री। मिथिला-निवासी म.म. लक्ष्मीधर के पुत्र और हलधर के सबसे छोटे भाई। आपने श्राद्धविवेक, पुष्पमाला, वर्षकृत्य, व्रतपद्धति, शुद्धिविवेक आदि ग्रंथों की रचना की है। श्राद्धविवेक के चार परिच्छेद हैं जिनमें श्राद्ध की व्याख्या, श्राद्धप्रकार, क्रियापद्धति, श्राद्ध के स्थल-काल आदि का विवेचन है। 'शुद्धिविवेक' के तीन परिच्छेद हैं जिनमें जननमरणअशौच, अन्त्रशुद्धि, जलशुद्धि, रजस्वला की शुद्धि आदि का विवेचन है। रुद्र न्यायपंचानन - नवद्वीप- निवासी काशीनाथ विद्यानिवास के पुत्र । पितामह- रत्नाकर विद्यावाचस्पति। समय- ई. 17 वीं शती का उत्तरार्ध माना जाता है। इनके द्वारा प्रणीत ग्रंथों की संख्या 39 है :- अधिकरण- चंद्रिका, कारक-परिच्छेद, कारक-चक्र, विधिरूप-निरूपण, उदाहरण-लक्षण-टीका, उपाधिपूर्वपक्षग्रंथ-टीका, केवलान्वयि-टीका, पक्षतापूर्व ग्रंथ-टीका, न्यायसिद्धांत-मुक्तावली-टीका, व्याध्यनुगम-टीका, कारकाद्यर्थ-निर्णय-टीका, सव्यभिचारसिद्धांत-टीका, भावप्रकाशिका, अनुमिति-टीका, कारकवाद, तत्त्वचिंतामणि-दीधिति- टीका आदि । इनके द्वारा रचित 4 काव्य-ग्रंथ भी हैं- भावविलासकाव्य, वृन्दावनविनोद, भ्रमरदूत व पिकदूत। भ्रमरदूत में राम द्वारा किसी भ्रमर से सीता के पास संदेश भेजने का वर्णन है। पिकदत नामक संदेश-काव्य में राधा ने पिक के द्वारा श्रीकष्ण के पास संदेश भेजा है। इस छोटे-से काव्य में केवल 31 श्लोक हैं। संभवतः ये बंगाल के हुसेन शाह के आश्रित राजकवि भी थे। रुद्रभट्ट - काव्य-शास्त्र के आचार्य । श्रृंगार-तिलक' नामक ग्रंथ के प्रणेता। डा. एस.के.डे के अनुसार समय ई. 10 वीं शती । बहुत दिनों तक रुद्रट व रुद्रभट्ट को एक ही व्यक्ति माना जाता रहा है किन्तु अब निश्चित हो गया है कि ये दोनों भिन्न व्यक्ति थे। बेबर, बुल्हर, औफ्रेट व पिशल ने फिर भी इन दोनों को अभिन्न माना है। पर रुद्रटकृत 'काव्यालंकार' तथा रुद्रभट्टकृत 'श्रृंगार-तिलक' के अध्ययन से दोनों का पार्थक्य स्पष्ट हो चुका है। 'काव्यालंकार' के रचयिता रुद्रट एक महनीय आचार्य के रूप में आते है। इन्होंने अपने ग्रंथ में काव्य के सभी अंगों का विस्तारपूर्वक विवेचन किया है। इसके विपरित . रुद्रभट्ट की दृष्टि परिमित है और वे काव्य के एक ही अंग (रस) का वर्णन करते हैं। इस प्रकार रुद्रभट्ट का क्षेत्र संकुचित है, और वे मुख्यतः कवि के रूप में दिखाई पड़ते हैं। रुद्रराम - ई. 18 वीं शती। रचनाएं- वादपरिच्छेद, व्याख्याव्यूह, चित्तरूप, अधिकरणचन्द्रिका और वैशैषिकशास्त्रीयपदार्थ - निरूपण और तर्कसंग्रह की टीका। रूप गोस्वामी - समय- 1492 ई. 1591 ई.। बंगाल की रुद्रकवि - ई. 16-17 वीं शती। राजा नारायण शाह के आश्रित इस कवि ने, 'जहांगीरचरितम्" की रचना दशकुमारचरितम् की पद्धति के अनुसार की। इसमें जहांगीर के चरित्र का वर्णन है। अन्य रचना राष्ट्रोदवंश। 20 सर्गों के इस महाकाव्य में बागुलवंशीय राजाओं का चरित्र-चित्रण है। रुद्रट - 'काव्यालंकार' नामक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ के प्रणेता। नाम के आधार पर इनका काश्मीरी होना निश्चित होता है। 'काव्यालंकार' के प्रारंभ व अंत में गणेश, गौरी, भवानी, मुरारि व गजानन की वंदना होने के कारण ये शैव माने गए हैं। टीकाकार नमिसाधु के अनुसार इनका दूसरा नाम शतानंद था और ये वामुकभट्ट के पुत्र थे। इनके पिता सामवेदी थे। भरत के बाद रुद्रट रससिद्धांत के प्रबल समर्थक सिद्ध होते हैं किन्तु इन्होंने भामह, दंडी, उद्भट की अपेक्षा अलंकारों का अधिक व्यवस्थित विवेचन किया है और कतिपय नवीन अलंकारों का भी निरूपण किया है। अतः ये उपर्युक्त आचार्यों से परवर्ती थे। इनके मत को ई. 10 वीं शती के आचार्यो ने उद्धृत किया होने से, ये उनके पूर्ववर्ती सिद्ध होते हैं। इस प्रकार इनका समय ई. 9 वीं शती का पूर्वार्ध उचित 432 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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