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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हे गौतम . 8 वी विषय में ली थी। किया है। इससे यह अनुमान लगाया जाता है कि इनका कालखण्ड ई. 7 वीं शती का पूर्वार्ध रहा होगा। (2) एक विख्यात रस-वैद्य। वैद्यक-शास्त्र पर अनेक ग्रंथों की रचना की। उनमें "अष्टांग-हृदय" सर्वाधिक ख्यातिप्राप्त ग्रंथ है। कुछ विद्वान इन्हें साक्षात् धन्वंतरि मानते है, तो कुछ इन्हें गौतम बुद्ध का अवतार मानते हैं। होन्ले के मतानुसार इनका कालखण्ड ई.8 वीं या 9 वीं शती रहा होगा। रसायन. रसकुपी व कायाकल्प के विषय में इनकी ख्याति जावा, कम्बोडिया, इजिप्त आदि देशों तक फैली थी। इनका "अष्टांग-हृदय" नामक ग्रंथ श्लोकबद्ध है तथा इसमें शस्त्रक्रिया का विस्तृत विवेचन है। आयुर्वेद में इसे आज भी प्रमाण-ग्रंथ माना जाता है। इस पर 34 टीकाएं हैं। इसका हिन्दी अनुवाद हुआ है और हिन्दी टीका भी लिखी गई है। इनके बारे में कहा जाता है कि इन्होंने भारतीय आयुर्वेद शास्त्र को विदेशों में श्रेष्ठत्व प्राप्त कराया। इस सम्बन्ध में एक आख्यायिका इस प्रकार है: ___ मिस्र (इजिप्त) देश के तत्कालीन राजा ने, जो उदरशूल से पीडित थे, दुनिया भर के चिकित्सकों से इलाज करवाने के बाद भी कोई लाभ नहीं होने पर वाग्भट को मिस्र आमंत्रित किया। वाग्भट ने निमंत्रण स्वीकार कर वृद्धावस्था के बावजूद लम्बी विदेश यात्रा की, और मिस्र पहुंच कर राजा को रोगमुक्त किया। राजा ने इनके सम्मान में भव्य समारोह आयोजित कर आधा राज्य देने की घोषणा की किन्तु इन्होंने यह कहकर कि इससे सम्पूर्ण जगत् में भारतीय वैद्यकी की श्रेष्ठता प्रतिष्ठापित होने का जो समाधान उन्हें मिला है, वही पर्याप्त है, अन्य कोई पुरस्कार लेना अस्वीकार कर दिया। मिस्र की कुछ वनस्पतियों पर संशोधन करने के विचार से वे कुछ काल मिस्र में रहे किन्तु इस बीच एक दुर्घटना हुई। मिस्र की राजकन्या किसी कर्मचारी के साथ प्रेमबंधन में फंस गई और उससे उसे गर्भ रह गया। यह बात जब महारानी के कानों तक पहुंची, तो राजकन्या को गर्भ से मुक्ति दिलाने हेतु वाग्भट से अनुरोध किया गया। वाग्भट ने यह कहकर कि "ऐसा भयंकर पाप मैं कदापि नहीं करूंगा" अनुरोध स्वीकार नहीं किया। इस पर राजकन्या ने कहा- वह अपने प्रेमी के साथ आत्महत्या कर लेगी, तब एक साथ तीन जीवों की हत्या का पाप उन पर लगेगा। वाग्भट ने इससे बचने का एक उपाय यह सुझाया कि होने वाले बच्चे के पिता के रूप में वह वाग्भट का नाम घोषित कर दें। इससे भले ही उन्हें मौत का सामना करना पडे, किन्तु एक साथ तीन जीवों के प्राणों की रक्षा का समाधान उन्हें मिलेगा। महारानी ने विवश होकर वाग्भट की यह सलाह मान ली और राजा के कानों तक यह बात पहुंचाई। इस अपराध पर मिस्र में मृत्युदण्ड दिया जाता था। वाग्भट से द्वेष करने वाले मंत्रियों के दुराग्रह पर राजा ने यह सोचे बिना कि इतनी वृद्धावस्था में भी वाग्भट के हाथों यह पाप कैसे हो सकता है, वाग्भट को मृत्युदण्ड दिया। कहते हैं कि महारानी ने चंदन की चिता पर वाग्भट का दाहसंस्कार कराया और उनकी रक्षा स्वर्ण-कुंभ में भर कर गंगा में प्रवाहित करने भारत भिजवाई। (3) ई. 12 वीं शती का पूर्वार्ध। “वाग्भटालंकार" नामक ग्रंथ के रचयिता। टीकाकारों ने इनके पिता का नाम सोम बताया है। उक्त ग्रंथ साहित्य शास्त्र पर है जिसमें विभिन्न अलंकारों का विवेचन किया गया है। इस ग्रंथ के पांच परिच्छेद हैं तथा अनुष्टुभ् छंद का अधिक प्रयोग किया गया है। इस पर लिखी गई 8 टीकाओं में से 2 प्रकाशित। हिन्दी अनुवाद भी प्रकाशित हो चुका है। ये जैन थे तथा प्राकृत में इनका नाम बाहड बताया गया है। इनका संबंध जयसिंह (1093-1143 ई.) से था। (4) ई. 13 वीं शती के एक अलंकारशास्त्री । जैन-धर्मावलंबी, मेवाड के एक धनी व्यापारी नेमिकुमार इनके पिता थे। ये दिगम्बर सम्प्रदाय के अनुयायी थे। इन्होंने अलंकार प्रधान "काव्यानुशासन" नामक ग्रंथ की रचना की। कुल पांच अध्यायों वाले इस ग्रंथ में 289 सूत्र हैं। अपने इसी ग्रंथ पर पृथक् रूप से आपने विस्तृत व्याख्या भी लिखी है, जिसका नाम "अलंकारतिलकवृत्ति" है। इनका दूसरा ग्रंथ है “छन्दोनुशासन"। (5) जैन कवि। इन्होंने "नेमिनिर्वाण" नामक महाकाव्य की रचना की है जिसमें 15 सर्गों में जैन तीर्थंकर नेमिनाथ की कथा कही गयी है। इनका जन्म अहिछत्र (वर्तमान नागोद) में हुआ था और ये परिवाटवंशीय छाहयु या बाहड के पुत्र थे। नेमिनिर्माण पर भट्टारक ज्ञानभूषण ने पंजिका नामक टीका लिखी है। वाचस्पति मिश्र - (1) ई. 9 वीं शती के मिथिला-निवासी टीकाकार। इन्होंने वैशेषिक दर्शन छोड कर अन्य सभी दर्शनों पर टीकाएं लिख कर अपने स्वतंत्र विचार व्यक्त किये हैं। इसलिये इन्हें सर्वतंत्रस्वतंत्र की उपाधि प्राप्त हुई। इन्हें मिथिला का राजाश्रय प्राप्त था। गुरु-त्रिलोचन । ब्रह्मसूत्र के "शांकरभाष्य" पर आपने “भामती" नामक टीका लिखी। ग्रंथलेखन में इनकी तन्मयता इतनी अधिक थी कि वे उस समय सारे जगत को भूल बैठते। इस सम्बन्ध में एक आख्यायिका ऐसी बतायी जाती है कि एक बार ग्रंथ-लेखन के समय रात्रि में दीप बुझ गया। उनकी पत्नी ने आकर पुनः उसे प्रज्वलित किया और वहीं पास खडी रही। जब वाचस्पति का ध्यान उनकी और गया तो वे उससे पूछ बैठे "तुम कौन हो"। पत्नी ने उत्तर दिया- “मै आपकी चरणदासी हूं"। इस पर उन्होंने दूसरा प्रश्न किया- "क्या तुम मुझसे कुछ मांगने आयी हो"। पत्नी ने कहा- "पति की सेवा करना स्त्री का संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड । 443 For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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