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को दर्शन क्षेत्र में प्रविष्ट किया। भर्तृहरि शब्दाद्वैत के संस्थापक थे। उनकी दृष्टि में "स्फोट" ही एकमात्र परम तत्व है और यह जगत् उसी का विवर्त रूप है।
भट्टोजी दीक्षित की परम्परा में नागेश भट्ट (ई. 18 शती) का कार्य सर्वोच्च माना जा सकता है। इनका परिभाषेन्दुशेखर पाणिनि व्याकरण की परिभाषाओं का विवेचन करनेवाला सर्वमान्य ग्रंथ है। इनका शब्देन्दुशेखर, प्रौढमनोरमा की व्याख्या है। इन दो महत्वपूर्ण ग्रंथों के कारण "शेखरान्तं व्याकरणम्" यह सुभाषित रूढ हुआ। नागेश भट्ट (नागोजी) की लघुमंजूषा शब्द और अर्थ के सिद्धान्तों की मीमांसा करनेवाला, भर्तृहरि के वाक्पदीय की योग्यता का पाण्डित्यपूर्ण ग्रंथ है। इनके अतिरिक्त हरि दीक्षित (भट्टोजी के पौत्र) के लघुशब्दरत्न तथा बृहच्छद्वरत्न, वैद्यनाथ पायगुंडे के प्रभा, चिदस्थिमाला, गदा एवं छाया नामक टीकात्मक ग्रंथ, तर्कसंग्रहाकार अन्नंभट्ट के महाभाष्यप्रदीपोद्योतन, अष्टाध्यायीमिताक्षरा इत्यादि अर्वाचीन काल में निर्माण हुए व्याकरणशास्त्र विषयक ग्रंथ इस वेदाङ्गात्म शास्त्र का अखंड प्रवाह सिद्ध करते हैं। सिद्धान्त कौमुदीकार भट्टोजी दीक्षित का अन्तर्भाव अर्वाचीन संस्कृत लेखकों में होता है। नव्य व्याकरण की परम्परा सिद्धान्तकौमुदी से मानी जाती है। उस युगप्रवर्तक ग्रंथ के पश्चात् निर्माण हुए सभी प्रौढ पाण्डित्यपूर्ण ग्रंथ अर्वाचीन संस्कृत वाङ्मय की प्रगल्भता के उत्कृष्ट प्रमाण कहे जा सकते हैं।
7 विविध व्याकरण संप्रदाय __ "व्याकरण' को मुख्य स्थान दिया गया। व्याकरण शब्द का प्रयोग गोपथब्राह्मण, मुण्डकोपनिषद्, रामायण, महाभारत इत्यादि प्राचीन ग्रंथों में हुआ है। प्राचीन परम्परा के अनुसार ब्रह्मा, बृहस्पति, इंद्र चंद्र, प्रजापति, त्वष्टा, वायु, भरद्वाज, काशकृत्स्र, कुमार, भागुरी, रौढि, माध्यन्दिनि, पौष्करसादि, व्याडि, शौनकि, गौतम, चारायण, वैयाघ्रपद्य इत्यादि व्याकरण शास्त्रज्ञों के नाम यत्र तत्र उपलब्ध होते हैं। भगवान पाणिनि द्वारा इस क्षेत्र में जो कार्य हुआ, उसकी अलौकिकता के कारण व्याकरण का विभाजन (1) पाणिनि के पूर्वकालीन और (2) पाणिनि के उत्तरकालीन इन दो भागों में किया जाता है। स्वयं पाणिनि ने अपनी अष्टाध्यायी के सूत्रों में उपरिनिर्दिष्ट नामावलि के अतिरिक्त आपिशति, काश्यप, गार्ग्य, गालव, चाक्रवर्मण, भारद्वाज, शाकटायन, शाकल्य, सेनक और स्फोटायन इन दस शाब्दिकों का उल्लेख किया है।
व्याकरण को एक वेदांग माने जाने के कारण, जिन प्रातिशाख्यों से वैदिक शब्दों का विचार प्रारंभ हुआ इसी को व्याकरण शास्त्र का मूलस्त्रोत माना जाता है। जिन पाणिनिपूर्व वैयाकरणों की नामावली उपर दी है उनके ग्रंथ तो उपलब्ध नहीं होते परंतु उनमें से अनेकों के वचन या मत यत्र तत्र मिलते है, जिनसे उनके विचारों की सूक्ष्मता का परिचय मिलता है।
"ऐन्द्र व्याकरण" ऐन्द्र व्याकरण का उल्लेख प्राचीन ग्रंथों में अनेकत्र मिलता है। जैन परंपरा के अनुसार ऐसी मान्यता है कि भगवान् महावीर ने इन्द्र के लिये शब्दानुशासन कहा। उसे उपाध्याय (लेखाचार्य) ने सुनकर लोक में “ऐन्द्र" नाम से प्रकट किया। जिनविजय उपाध्याय और लक्ष्मीवल्लभ मुनि जैसे कुछ जैन ग्रंथकारों ने जैनेन्द्र व्याकरण को ही “ऐन्द्र" व्याकरण बताने का प्रयत्न किया है।
वस्तुतः “ऐन्द्र" और "जैनेन्द्र" ये दोनों व्याकरण भिन्न हैं। जैनेन्द्र से अतिप्राचीन उल्लेख “ऐन्द्र व्याकरण" के संबंध में प्राप्त होते हैं। दुर्गाचार्य ने “निरुक्तवृत्ति" के प्रारंभ में ऐन्द्र व्याकरण का सूत्र निर्दिष्ट किया है। शाकटायन व्याकरण में ऐन्द्र व्याकरण का मत प्रदर्शन किया है। (चरक के व्याख्याता भट्टारक हरिश्चन्द्र ने ऐन्द्र व्याकरण का निर्देश किया है। दिगम्बर जैनाचार्य सोमदेव सूरि ने अपने "यशस्तिलकचम्पू" (आश्वास-1) में ऐन्द्र व्याकरण का उल्लेख किया है। डॉ. ए.सी. बर्नेल ने ऐन्द्र व्याकरणसे संबंधित चीनी, तिब्बतीय और भारतीय साहित्य के उल्लेखों का संग्रह कर “ऑन दी ऐन्द्र स्कूल ऑफ ग्रामेरियन्स" नामक ग्रंथ लिखा है । ऐन्द्र व्याकरण की रचना का समय ईसा पूर्व पांचवी-छठी शताब्दी माना जाता है परंतु वह व्याकरण अभी तक अप्राप्त है।
___"जैनेन्द्र व्याकरण" "सिस्टिम्स ऑफ संस्कृत ग्रामर" नामक अपने ग्रंथ में डॉ. बेलवलकर ने देवनन्दी नामक दिगम्बर जैनाचार्य को इस व्याकरण का प्रवर्तक कहा है। उन्होंने इस व्याकरण के दो उपलब्ध पाठों का उल्लेख किया है, जिनमें पाणिनीय व्याकरण का संक्षेप दिखाई देता है। बोपदेव ने जिन आठ प्राचीन शाब्दिकों (अर्थात वैयाकरणों का) निर्देश किया है उनमें जैनेन्द्र व्याकरण ही सर्वप्रथम माना गया है। इस व्याकरण में पांच अध्याय होने से इसे "पंचाध्यायी" भी कहते हैं। इसमें सिद्धान्त कौमुदी की तरह प्रकरण विभाग नहीं है। पाणिनि की तरह विधान क्रम को लक्ष्य कर इसमें सूत्रों की रचना की गई है। इसमें संज्ञाएं अल्पाक्षरी हैं और पाणिनीय व्याकरण के आधार पर ही इसकी रचना हुई है। परंतु यह केवल लौकिक व्याकरण है, जब कि पाणिनीय व्याकरण लौकिक और वैदिक दोनों प्रकार के शब्दप्रयोगों को लक्ष्य करता है। जैनेन्द्र व्याकरण में "छांदस (वैदिक) प्रयोग भी लौकिक मान कर सिद्ध किये गये हैं। जैनेन्द्र व्याकरण के दो सूत्रपाठ मिलते हैं, जिनमें प्राचीन सूत्रपाठ के 3000 सूत्र और संशोधित पाठ के 3700 सूत्र हैं। दोनों सूत्रपाठों पर भिन्न भित्र टीका ग्रंथ लिखे गये हैं। इस व्याकरण पर देवनन्दी
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 47
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