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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जौमर (13) अनुभूतिस्वरूप सारस्वत (15) क्रमदीश्वर (14) बोपदेव मुग्धबोध (16) पद्मनाभ सुपद्म इन वैयाकरणों का काल ई.पू. शती से ई. 14 वीं शती तक माना गया है। पाणिनि का शब्दानुशासन न केवल व्याकरण विषय में ही अपि तु, संसार के समस्त वाङ्मय में एक अद्भुत कृति है। प्राचीन भारतीय वाङ्मयेतिहास की दृष्टि से वह अतिप्राचीन और अर्वाचीन काल को जोड़ने वाला महान सेतु है। भाष्यकार पतंजलि के मतानुसार, पाणिनीय सूत्रों में एक वर्ण भी निरर्थक नहीं हो सकता। वेदार्थज्ञान के लिए जिस स्वरज्ञान की अनिवार्य आवश्यकता होती है, उसकी पूर्तता पाणिनीय सूत्रों से होती है। पाणिनि ने केवल वैदिक स्वर विशेष के परिज्ञान के लिए 400 सूत्र रचे हैं। वेद के षडंगों में व्याकरण को वेदपुरुष का मुख (अर्थात् प्रमुख अंग) जिस कारण माना है, उसका साक्षात्कार पाणिनि के व्याकरण में यथार्थ रीति से होता है। पाणिनि के काल के संबंध में मतभेद स्वाभाविक है। गोल्डस्ट्रकर, वेबर, कीथ आदि पाश्चात्य विद्वान ई.पू. 7 वीं से चौधी शती तक पाणिनि का आविर्भावकाल सिद्ध करते हैं। इस विषय में पाश्चात्य पंडितों द्वारा प्रस्तुत 7 प्रमाणों का खण्डन कर विख्यात वैयाकरण पं. युधिष्ठिर मीमांसक ने किया है। उन्होंने वह कालमर्यादा महाभारत युद्ध से 200 वर्ष पश्चात् अर्थात् 2900 विक्रम पूर्व प्रतिपादित की है। ___ अष्टाध्यायी के वार्तिककार- संस्कृत वाङ्मय में वार्तिक नामक एक वाङ्मय प्रकार माना जा सकता है। वार्तिक का लक्षण है “उक्तानुक्तदुरुक्तचिन्ता'। पाणिनीय सूत्रों के भी उक्त, अनुक्त और दुरुक्त का, वार्तिकीय पद्धति के अनुसार, कई आचार्यो द्वारा चिन्तन हुआ। इस कार्य में कात्यायन का नाम अग्रगण्य है। भाष्यकार पतंजलि ने "प्रियतद्धिता हि दाक्षिणात्याः । यथा लोके वेदे च प्रयोक्तव्ये लौकिक-वैदिकेषु प्रयुज्जते।" इस वचन के अनुसार, अष्टाध्यायी के वार्तिककार कात्यायन को दाक्षिणात्य माना है। पं. युधिष्ठिर मीमांसक, कात्यायन का काल विक्रमपूर्व 2900-3000 मानते हैं। कात्यायन के साथ, भारद्वाज, सुनाग, क्रोष्टा, वाडव, व्याघ्रभृति, और वैयाघ्रपद्य इत्यादि अन्य वार्तिककारों के नाम भी वार्तिककारों में मान्यताप्राप्त हैं। व्याकरण वाङ्मय में पतंजलिकृत महाभाष्य अपने ढंग का एक अद्भुत ग्रंथ है। इस ग्रंथ में भगवान पतंजलि ने व्याकरण जैसे दुरूह और नीरस विषय को सरल और सरस किया है। सारे विद्वान इसकी, सरल, प्रांजल भाषा और रचना-सौष्ठव की मुक्तकंठ से प्रशंसा करते हैं। पाणिनीय व्याकरण का यह सर्वश्रेष्ठ प्रामाणिक ग्रंथ है। सूत्र, वार्तिक और महाभाष्य में जहां मतभेद उत्पन्न होता है वहां, "यथोत्तरं मुनींना प्रामाण्यम्" इस नागेश भट्ट के वचनानुसार, पंतजलि मुनि का ही मत ग्राह्य माना जाता है। पाश्चात्य विद्वानों ने पतंजलि का काल ई. पू. दूसरी शती माना है। पं. युधिष्ठिर मीमांसक पतंजलि को वि.पू. 2000 अथवा 1200 तक के मानते हैं। पातंजल महाभाष्य पर भर्तृहरि कृत महाभाष्य-दीपिका, कैयटकृत महाभाष्यप्रदीप, पुरुषोत्तमदेवकृत प्राणपणा, वनेश्वरकृत चिन्तामणि, शेषनारायणकृत सूक्तिरत्नाकर, विष्णुमित्रकृत क्षीरोद, नीलकण्ठ वाजपेयी कृत भाष्यतत्त्वविवेक, शिवरामेन्द्र सरस्वतीकृत महाभाष्यरत्नाकर, तिरुमलयज्वाकृत अनुपदा, इत्यादि 20 व्याखाएं उपलब्ध हैं। इससे महाभाष्य की विद्वन्मान्यता व्यक्त होती है। इन टीका ग्रंथों में कैयटकृत “प्रदीप"- टीका पर भी अनेक टीकाएं लिखी गईं जिनमें नागेशभट्ट कृत "उद्योत" विशेष महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। ___पाणिनि की अष्टाध्यायी पर तीस से अधिक वृत्ति नामक ग्रंथ लिखे गए। उनमें जयादित्य और वामन की काशिका-वृत्ति विशेष प्रसिद्ध हैं। प्रस्तुत काशिकावृत्ति पर जिनेन्द्रबुद्धिकृत "न्यास" नामक व्याख्या भी विद्वन्मान्य है। इसके अतिरिक्त अनुन्यास और महान्यास नामक टीका भी काशिका पर उपलब्ध है। ई. 16 वीं शताब्दी के बाद पाणिनीय व्याकरण की परंपरागत अध्ययन प्रणाली के स्थान पर कातन्त्र की प्रणाली के अनुसार, प्रक्रियानुसार अध्ययन की प्रणाली का प्रारंभ हुआ। इस पद्धति के अनुसार लिखे गए ग्रन्थों में धर्मकीर्ति कृत रूपावतार, रामचंद्र शेष कृत प्रक्रियाकौमुदी, भट्टोजी दीक्षित कृत सिद्धान्तकौमुदी और नारायण भट्ट (केरलवासी) कृत प्रक्रियासर्वस्व ये ग्रंथ विशेष प्रसिद्ध और प्रचलित हैं। रूपावतार, प्रक्रियाकौमुदी इत्यादि प्रक्रियाग्रंथों में अष्टाध्यायी के समस्त सूत्रों का अन्तर्भाव नहीं हुआ था। भट्टोजी दीक्षित के सिद्धान्त कौमुदी ने इस त्रुटि को समाप्त किया। उन्होंने स्वयं अपनी सिद्धान्तकौमुदी पर प्रौढ मनोरमा नामक व्याख्या लिखी। इनके अतिरिक्त ज्ञानेन्द्र सरस्वतीकृत तत्त्वबोधिनी, नागेशभट्ट कृत बृहच्छब्देन्दुशेखर तथा लघुशब्देन्दुशेखर, रामकृष्णकृत रत्नाकर और वासुदेव वाजपेयीकृत बालमनोरमा इत्यादि टीका ग्रंथ प्रसिद्ध हैं। बालमनोरमा अत्यंत सुबोध होने के कारण प्रौढ छात्रों के लिए विशेष उपादेय है। व्याकरण के क्षेत्र में आचार्य भर्तृहरि (ई. 6 श.) कृत वाक्यपदीय ग्रन्थ का कार्य कुछ अनोखा है। इस ग्रंथ ने व्याकरण 46/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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