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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir किया है। पाणिनि के शब्दानुशासन में प्रयुक्त, धातु, प्रातिपदिक, नाम, विभक्ति, उपसर्ग, इत्यादि अनेक पारिभाषिक शब्द (संज्ञाएं) गोपथब्राह्मण, ऐतरेय ब्राह्मण जैसे वैदिक ग्रंथों में उपलब्ध होते हैं। प्राचीन परंपरा के अनुसार व्याकरण के (और सभी शास्त्रों के) प्रथम प्रवक्ता थे ब्रह्मा। उनके बाद, बृहस्पति, इन्द्र, महेश्वर, इत्यादि प्राचीन वैयाकरण हुए। वेदों के शब्दों का आकलन अल्प प्रयत्न से हो सके इस उद्देश्य से व्याकरण की उत्पत्ति हुई। महाभाष्यकार पतंजलि व्दारा बताई गई एक जनश्रुति के अनुसार, एक बार देवों ने अपने अधिराजा इन्द्र से प्रार्थना की "वेद हमारी भाषा है। परंतु वह अव्याकृत अवस्था में होने के कारण, दुर्बोध हुई है। आप उसे व्याकृत करें। सर्व प्रथम इन्द्र ने यह कार्य किया। प्रत्येक पद का विभाजन कर, प्रकृति, प्रत्यय, विभागशः उन्होंने वेद की भाषा का "व्याकरण" किया। व्याकरण की उत्पत्तिविषयक इस जनश्रुति के अनुसार इन्द्र को ही आदि वैयाकरण माना जाता है। इन्द्र को यह ज्ञान बृहस्पति से प्राप्त हुआ था। इन्द्र द्वारा भरद्वाजादि ऋषियों ने इसका अध्ययन-अध्यापन किया। ____ अग्निपुराण के 349 से 359 तक के 11 अध्यायों में व्याकरण की उत्पत्ति की जानकारी दी है। तद्नुसार स्कन्द ने कात्यायन को यह ज्ञान सिखाया और आगे उसका ही प्रचार हुआ। स्कन्द के व्याकरण को ही "कौमार व्याकरण" कहते हैं। वैदिक प्रातिशाख्यों में भी सन्धि, विश्लेष जैसे व्याकरण संबंधी विषयों की चर्चा होती है। वैसे अन्य एक वेदांग निरुक्त में भी वैदिक शब्दों के अर्थनिर्णय के लिए व्याकरण से संबंधित धातुओं का विचार होता है। व्याकरण शास्त्र में दो प्राचीन संप्रदाय प्रसिद्ध हैं। एक ऐन्द्र और दूसरा माहेश्वर (अथवा शैव)। वर्तमान प्रसिद्धि के अनुसार कातन्त्र व्याकरण ऐन्द्र सम्प्रदाय का और पाणिनीय व्याकरण शैव सम्प्रदाय का माना जाता है। व्याकरण शास्त्र के सर्वश्रेष्ठ मुनि पाणिनि ने अपने शास्त्र में दस प्राचीन आचार्यों का नामनिर्देश किया है। उनके अतिरिक्त अन्यत्र 15 आचार्यों का उल्लेख मिलता है। दस प्रातिशाख्य और सात अन्य वैदिक व्याकरण उपलब्ध हैं। इन प्रातिशाख्य आदि ग्रंथों में 59 प्राचीन व्यैयाकरण आचार्यों का उल्लेख मिलता है। यद्यपि प्रातिशाख्यों में शिक्षा और छंद वेदांगों का समावेश हुआ है, तथापि प्रातिशाख्यों को मूल वैदिक व्याकरण कहा जा सकता है। पाणिनि ने अपनी सुप्रसिद्ध अष्टाध्यायी में वैदिक और लौकिक, दोनों प्रकार के शब्दों का विवेचन किया है। सामान्यतः विद्वत्समाज में "व्याकरणम् अष्टप्रभेदम्" - माना जाता है। इन आठ व्याकरणों के विषय में कुछ मतभेद हैं। पोरंतु बोपदेव कृत कविकल्पद्रुम के, इन्द्रश्चन्द्रः काशकृत्स्नापिशली शाकटायनः । पाणिन्यमरजैनेन्द्राः जयन्त्यष्टादिशाब्दिकाः ।। इस सुप्रसिद्ध श्लोक में निर्दिष्ट इन्द्र, चन्द्र, काशकृत्स्र आपिशलि, शाकटायन आदि आठ आचार्यों को आदि शाब्दिक मानते हैं, और सामान्यतः इन्हीं के ग्रन्थों द्वारा प्रस्थापित आठ पृथक् संप्रदाय माने जाते हैं। कुछ लोग पांच व्याकरण मानते हैं और उनमें सूत्रपाठ, धातुपाठ, गणपाठ, उणादिपाठ और लिङ्गानुशासन इन पांच अंगों का अन्तर्भाव करते हैं। अन्य मतानुसार वे पांच अंग हैं- पदच्छेद, समास, अनुवृत्ति, वृत्ति और उदाहरण। आज तक जितने व्याकरणशास्त्र निर्माण हुए उनका विभाजन (1) छांदसमात्र प्रातिशाख्यादि, (2) लौकिकमात्र-कातन्त्रादि और लौकिक-वैदिक उभयविधं-आपिशल, पाणिनीय इत्यादि। इनमें लौकिक य्वाकरण के जितने ग्रंथ उपलब्ध हैं, वे सब पाणिनि के उत्तरकालीन हैं। पाणिनि ने अपने शब्दानुशासन में, आपिशल, काश्यप, गार्ग्य, गालव चाक्रवर्मण, भारद्वाज, शाकटायन, शाकल्य, सेनक और स्फोटायन इन दस वैयाकरणों का नामतः उल्लेख किया है, इससे इनकी इस शास्त्र में कितनी महान योग्यता थी इसका अनुमान किया जा सकता है। इन के अतिरिक्त महेश्वर, बृहस्पति, इन्द्र, वायु भरद्वाज, भागुरि, पौष्करसादि काशकृत्स्र, रौढि, चारायण, माध्यंदिनि, वैयाघ्रण, शौनकि, गौतम, शन्तनु, और व्याडि इन पंद्रह महत्त्वपूर्ण नामों का भी निर्देश अन्यत्र मिलता है। प्रातिशाख्यों के, शौनक, कात्यायन, वररुचि, आश्वलायन, शांखायन, चारायण इत्यादि नामों का उल्लेख प्रातिशाख्य वाङ्मय के परिचय में पहले आ चुका है। प्रातिशाख्य वाङ्मय में 59 वैदिक व्याकरण प्रवक्ताओं के नाम मिलते हैं। पाणिनि के उत्तरकालीन व्याकरण-सूत्रकार :सूत्रकार सूत्रग्रंथ (1) कातंत्र कातंत्र पाल्यकीर्ति चंद्रगोमी चान्द्र (8) शिवस्वामी (3) क्षपणक क्षपणक (9) भोजदेव सरस्वतीकंठाभरण देवनन्दी (10) बुद्धिसागर बुद्धिसागर वामन विश्रान्त विद्याधर हेमचंद्र हैमव्याकरण अकलंक जैन शाकटायन भद्रेश्वरसूरि क्षपणक काशकृत्स्र, We अनुमान किया जा सकता है। इन नामतः उल्लेख किया है, इससे इन जैनेन्द्र (11) (12) संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड /45 For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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