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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पर आक्रमण ई.पू. 4 थी से ई. 1-2 शती तक होते थे। अर्थात् इन आक्रमणों का निर्देश करने वाले श्लोक उस काल के बाद में लिखे गये। इस प्रकार प्राचीन महाभारत में कुछ अंश प्रक्षिप्त माना जाता है। "जय" ग्रंथ से ले कर उसका अंतिम संस्करण होते तक के कालखंड में मूलग्रंथ के स्वरूप में जिस क्रम से परिवर्तन होता गया, उसकी यथार्थ कल्पना आज करना असंभव है। सौती द्वारा हुए तृतीय संस्करण का स्वरूप क्या था यह भी जानना कठिन है। भारत वर्ष जैसे खंडप्राय विशाल देश में, इस ग्रंथ का प्रचार सूतवर्ग द्वारा मौखिक रूप में सदियों ता चलता रहा। सैकड़ो लेखकों ने उसकी पांडुलिपियां करते समय अनवधान से भरपूर प्रमाद किए। इन सब कारणों से महाभारत की प्राचीत हस्तलिखित प्रतियों में कहीं भी एकरूपता नहीं मिलती। इन विविध प्राचीन प्रतियों का तौलनिक अध्ययन करते हुए महाभारत का अधिकांश प्रामाणिक संस्करण करने का कार्य, पुणे की भांडारकर प्राच्य विद्यामंदिर द्वारा हुआ है। सामान्य अध्येताओं के लिये महाभारत के सारग्रंथ संपादन करने के भी प्रयत्न हुए। इसी शताब्दी के प्रारंभ में श्री चिन्तामणराव वैद्य ने "संक्षिप्तभारतम्" का संपादन किया था जिस में श्लोक संख्या 8 हजार थी। सन् 1954 में पुसद (महाराष्ट्र) के सुप्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता श्री. शंकर सखाराम सरनाईक ने माहुर (मातापुर विदर्भ) के विद्वान पं. वा. गं. जोशी के प्रधान संपादकत्व में "महाभारतसारः'' तीन खंडों में प्रकाशित किया, जिसकी श्लोकसंख्या 24 हजार से अधिक है। (इन संपादन कार्य में सहभागी होने का सद्भाग्य प्रस्तुत लेखक को भी मिला था) ये दोनों सारग्रंथ आज दुर्लभ हैं। रामायण-महाभारत में पौर्वापर्य गत शताब्दी में प्रसिद्ध जर्मन पंडित वेबर ने भारतीय परंपरागत मत के प्रतिकूल यह मत उपस्थित किया कि रामायण की अपेक्षा महाभारत की रचना पहले हुई। परंतु याकोबी, श्लेगेल, विंटरनिट्झ इत्यादि अन्य यूरोपीय विद्वान रामायण को महाभारत से पूर्वकालीन ही मानते हैं। इस विवाद में रामायण का उत्तरकालीनत्व प्रतिपादन करने वालों का कहना है कि, महाभारत में वर्णित लोकस्थिति प्रक्षोभयुक्त, संघर्षयुक्त एवं अव्यवस्थित है, परंतु रामायण में वर्णित परिस्थिति महाभारत की अपेक्षा अधिक शांत, व्यवस्थित, सुसंस्कृत एवं आदर्शवादी है। संस्कृति का विकास महाभारत की अपेक्षा रामायण में अधिक मात्रा में प्रतीत होता है। रामायण में सुन्दर पदविन्यास तथा रचना की सुबोधता उसकी उत्तरकालीनता का द्योतक है। परंतु इस विवाद में रामायण की उत्तर कालीनता का खंडन विद्वानों ने अनेक प्रमाण दे कर किया है। रामायण में रीछ और वानरवीरों का उल्लेख, दशमुखी रावण, सागर पर सेतु का निर्माण, हनुमान् द्वारा लंकादहन जैसी अद्भुतता का प्रमाण महाभारत की अपेक्षा अधिक है। महाभारत में म्लेच्छ समाज तथा भाषा का उल्लेख आता है। रामायण में म्लेच्छों का नाम भी नहीं है। महाभारत में संपूर्ण भारतवर्ष में व्यवस्थित एवं सुशासित आर्य सभ्यता दिखाई देती है, परंतु रामायण में दक्षिण भारत में वानर एवं राक्षस समाज की सभ्यता का दर्शन होता है। आर्य सभ्यता उत्तर भारत तक सीमिति थी। महाभारत में युद्ध का वर्णन प्रगत अवस्था में दीखता है जब कि रामायण के वानरवीर वृक्षों एवं पत्थरों से, प्रतिपक्षी राक्षसवीरों से संग्राम करते हैं। इन प्रमाणों के अतिरिक्त सबसे महत्त्वपूर्ण प्रमाण यह है कि रामायण में महाभारत कि घटनाओं तथा पात्रों का उल्लेख तक नहीं है, परंतु महाभारत में संपूर्ण रामकथा वनपर्व में (अ. 274-291) वर्णित है। महाभारत के इस उपाख्यान में वाल्मीकीय रामायण के श्लोक शब्दशः मिलते हैं। रामायण के नायक एवं खल नायक, महाभारत में उपमान हुए हैं। आदि पर्व में भीष्म और द्रोण की प्रशंसा में उन्हे श्रीराम की उपमा दी है। सभापर्व में द्यूतक्रीडा के प्रति युधिष्ठिर के मोह का वर्णन करते हुए रामायण के कांचनमृग से मोहित राम का दृष्टांत दिया गया है। इस प्रकार के और भी अन्य कुछ प्रमाणों के आधार पर वेबर द्वारा उठाए गये महाभारत की उत्तरकालीनता के पक्ष का विद्वानों ने संपूर्णतया खंडन कर परंपरागत रामायण की पूर्वकालीनता प्रस्थापित की है। अब यह विवाद समाप्त हो चुका है। महाभारत के 18 पर्यों के नाम : 1) आदि, 2) सभा, 3) वन, 4) विराट, 5) उद्योग, 6) भीष्म, 7) द्रोण, 8) कर्ण, 9) शल्य, 10) सौप्तिक, 11) स्त्री, 12) शांति 13) अनुशासन, 14) आश्वमेधिक, 15) आश्रमवासिक, 16) मौसल, 17) महाप्रस्थानिक और 18) स्वर्गारोहण। इन के अतिरिक्त खिल पर्व नामक १९ वा पर्व हरिवंश नाम से प्रसिद्ध है। यह खिल पर्व सौतिद्वारा ग्रन्थपूर्ति निमित्त निर्माण किया गया है। 10 साहित्य में महाभारत महाभारत कवियों का उपजीव्य ग्रंथ है। स्वयं महाभारतकार ने "इतिहासोत्तमादस्माज्जायन्ते कविबुद्धयः" इस श्लोक में, अपने ग्रंथ से कवियों को स्फूर्ति मिलती है यह जो घोषणा की वह सर्वथा यथार्य है। इ.पू. दूसरी सदी से आज तक संस्कृत तथा अन्य प्रादेशिक भाषाओं के साहित्यिकों ने काव्य-नाटक चम्पू इत्यादि विविध प्रकार के ग्रंथ महाभारत से प्रेरणा लेकर लिखे हैं। पंतजलि के महाभाष्य में (ई.पू.2 शती) कंसवध और बलिबन्ध नामक दो नाटकों के प्रयोग का उल्लेख आता है। समस्त संस्कृत नाट्यवाङ्मय में यही सर्वप्रथम ज्ञात नाटक माने जाते हैं। इन दोनों नाटकों के विषय हरिवंश तथा महाभारत के आख्यान से लिए गए हैं। भास का समय ई-2 शती माना जाता है। भासनाटकचक्र के 13 नाटकों में से मध्यमव्यायोग, पंचरात्र, दूतघटोत्कच, कर्णभार, ऊरुभंग, और बालचरित ये छह नाटक महाभारत तथा हरिवंश पर आधारित हैं। कालिदास के तीन भारतवर्ष मा का दर्शन होता है। आर्य सभा एवं पत्थरों से, प्रतिपक्षी राक्षापात्रों का उल्लेख तक नहींग के श्लोक संस्कृत वाङ्मय कोश- ग्रंथकार खण्ड/87 For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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