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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नाम “जय नामेतिहासोऽयं श्रोतव्यो विजिगीषुणा (आदिपर्व अ-63) इस वचन के अनुसार "जय" था। इस प्रकार युद्धों का वर्णन करने की प्रथा वेदकाल में भी थी। ऋग्वेद के 7 वें मंडल में दिवोदासपुत्र सुदास ने दस राजाओं पर जिस युद्ध में विजय प्राप्त की उस “दाशराज्ञ युद्ध" का महत्त्व माना गया है। इस प्रकार की ऐतिहासिक घटनाओं एवं उनसे संबंधित राजवंशों का वर्णन जिस वाङ्मय में होता है, उसे “इतिहास' संज्ञा थी। शतपथ ब्राह्मण एवं छांदोग्य उपनिषद् में पुराण एवं इतिहास को "वेद" या "पंचमवेद" संज्ञा दे कर उस वाङ्मय के प्रति आदर व्यक्त किया है। वेदों का अर्थ समझने की याज्ञिकों और नैरुक्तकों की पद्धति थी। ऐतिहासिकों के मतों का निर्देश. यास्काचार्य के निरुक्त में मिलता है। शतपथ ब्राह्मण में “नाराशंसी गाथा" नामक मनुष्य प्रशंसात्मक काव्यों का उल्लेख मिलता है। इन प्रमाणों से इतिहास विषयक कुछ वाङ्मय वैदिक काल में भी था यह सिद्ध होता है। उसी प्रणाली में कृष्ण द्वैपायन का "जय" नामक इतिहास मानना चाहिए। विद्यमान महाभारत का यही मूलस्रोत था। इस प्रकार के युद्धवर्णन पर आधारित वीरकाव्य सूत या बंदी जन राजसभाओं में या रणभूमि पर, वीरों को प्रोत्साहित करने के हेतु गाते थे। यह पद्धति आधुनिक काल तब समाज में प्रचलित थी। शिवाजी महाराज की राजसभा मे "पोवाडा" नामक मराठी वीरकाव्यों का गायन वीरों को प्रोत्साहित करने के निमित्त होता था। राजपूत राजाओं की सभा में भी इस प्रकार के वीरकाव्यों का गायन होता था इसके प्रमाण मिलते हैं। मूल "जय" ग्रंथ भी सूतों द्वारा राजसभाओं में गाया जाता होगा इस में संदेह नहीं। मूल जय ग्रंथ की श्लोकसंख्या परंपरा के अनुसार आठ सहस्र मानी जाती है। इसी "जय" ग्रंथ का द्वितीय संस्करण 24 सहस्र श्लोकों में हुआ, जिसका नाम "चतुर्विंशतिसाहस्री चक्रे भारतसंहिताम्। उपाख्यानैर्विना तावद् भारतं प्रोच्यते बुधैः" इस प्रसिद्ध श्लोक के अनुसार केवल "भारत" था। इस "भारत" संहिता में महाभारत में यत्र तत्र मिलने वाले "उपाख्यान" नहीं थे। "मन्वादि भारत केचिद् आस्तिकादि तया परे। तथोपरिचरादन्ये विप्राः सम्यगधीयते ।।" इस श्लोक के अनुसार, "मनुश्लोक" (नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम्। देवी सरस्वती व्यासं ततो जयमुदीरयेत् ।। इस वंदनपरक श्लोक को "मनु" कहते हैं।) से अथवा आस्तिक आख्यान से या तो उपरिचर वसु (भगवान व्यास के मातामह) के आख्यान से माना जाता है। इसी ग्रंथ का तीसरा या अंतिम संस्करण सौति उग्रश्रवा के द्वारा माना जाता है। इसी संस्करण को “महाभारत" कहते हैं जिसके अन्तर्गत भारतोक्त इतिहास में अनेक आख्यानों उपाख्यानों; तीर्थक्षेत्र- वर्णनों, राजनीति विषयक संवादों इत्यादि विविध विषयों का अन्तर्भाव हो कर, श्लोकसंख्या एक लाख तक हुई। यह महाभारत प्राचीन पद्धति का ज्ञानकोश माना जाता है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चतुर्विध पुरुषार्थ के संबंध में महाभारत में जितना सूक्ष्म विवेचन मिलता है उतना संसार के अन्य किसी एक ग्रंथ में नहीं मिलता। ___ "यथा समुद्रो भगवान् यथा मेरुर्महागिरिः। ख्यातावुभौ रत्ननिधी तथा भारतमच्युते।। ___ धर्मे चार्थे च कामे च मोक्षे च भरतर्षभ। यदिहास्ति तदन्यत्र यन्नेहास्ति न तत् क्वचित् ।।" इन सुप्रसिद्ध श्लोकों में महाभारत की महिमा बतायी गयी है। भारतीय हिंदुसमाज में इस ग्रंथ की योग्यता ऋग्वेद के समान मानी गयी है। ब्रह्मयज्ञ में इसका "स्वाध्याय' विहित माना गया है। गत 15-20 शताब्दियों में हिंदु समाज के हृदय पर इस ग्रंथ का अधिराज्य है। भारत के बाहरी देशों में भी इसका प्रभाव व्यक्त हुआ है। इ. दूसरी शती के ग्रीक वाङ्मय में इसके उल्लेख मिलते हैं। ई. छठी शती में कांबोडिया के मंदिरों में इसका वाचन होता था। सातवीं शती में मंगोलिया के लोग हिडिंबवध जैसे आख्यान काव्यरूप में गाते थे। दसवीं शती के पूर्व जावा द्वीप में संपूर्ण महाभारत का अनुवाद हुआ था। ई. 19 वीं शती में फ्रांझ बाँप ने सर्वप्रथम महाभारत के नलोख्यान का रूपांतर जर्मन भाषा में किया तब उस आख्यान की अपूर्वता से यूरोपीय विद्वान चकित हुए थे। सन 1846 में अंडाल्फ हाल्टझमन ने जर्मन भाषा में इस संपूर्ण ग्रंथ का यूरोप को प्रथम परिचय यथाशक्ति कराया। संपूर्ण महाभारत का विभाजन 18 पर्यों में किया गया है। "हरिवंश" नामक ग्रंथ इसका परिशिष्ट माना जाता है जिसके हरिवंशपर्व, विष्णुपर्व और भविष्यपर्व नामक तीन भागों की संपूर्ण अध्याय संख्या 318 और श्लोक संख्या 20 हजार से अधिक है। महाभारत में श्रीकृष्ण का उत्तरचरित्र मिलता है। हरिवंश के विष्णुपर्व में उनका बाल्य एवं यौवन काल का चरित्र चित्रित किया है। परंपरागत कथा के अनुसार "जय" ग्रंथ का "महाभारत" के रूप में विकास होने का कार्य भगवान व्यास के अनंतर एक दो पीढ़ियों में माना जाता है। परंतु उस ग्रंथ का विस्तार, भाषा वैचित्र्य विविध कथाएं, वर्णन और संवादात्मक चर्चा का परिशीलन करने वाले आधुनिक विद्वान महाभारत ग्रंथ का विकास इतना शीघ्र नही मानते। उनके मतानुसार यह विकास होने के लिए कुछ शताब्दीयों का समय लगा होगा। आश्वलयान गृह्यसूत्र में "सुमन्तु-जैमिनि-वैशम्पायन-षैल-सूत्रभाष्यभारत महाभारत-धर्मोचार्याः तृप्यन्तु" इत्यादि तपर्णसूत्र के अनुसार विद्यमान महाभारत की उत्तर मर्यादा गृह्यसूत्रों से पूर्वकालीन (अर्थात् ई.पू. छठी शती के पूर्व) मानी जाती है। महाभारत में शक, यवन पह्लव जैसे परकीय लोगों का निर्देश मिलता है। इन परकीयों के इस देश 86 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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